अतीन्द्रिय क्षमताओं में प्रमुख दिव्य दृष्टि

August 1978

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मनुष्य में काम करने और सोचने की क्षमता है। इन्हीं दोनों के समन्वय से अनेकानेक प्रकार की कलाओं और कुशलताओं का स्वरूप सामने आता है। उपार्जनों और उपलब्धियों के पीछे इन्हीं क्षमताओं का संयोग उपयोग काम कर रहा होता हैं। समृद्धि और वैभव के जो कुछ चमत्कार दीखते हैं, उनके पीछे मनुष्य की यह शारीरिक और मानसिक क्षमताएँ ही काम कर रही होती हैं।

अतिरिक्त क्षमताएँ इससे आगे भी भूमिका में उत्पन्न होती हैं। इन्हें विभूतियाँ कहते हैं और इनके पीछे दैवी अनुकम्पा काम करती समझी जाती है। ऋद्धि−सिद्धियों का क्षेत्र यही है। योगाभ्यास−तपश्चर्या, तन्त्र प्रयोग, भक्ति साधना आदि अनुष्ठानों का आश्रय लेकर इन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है।

चेतना ही गहरी खोजबीन करने पर पता चला है कि यह बाह्य उपार्जन नहीं−आन्तरिक उद्भव है। मानवी सत्ता का बहुत थोड़ा अंश ही प्रयोग में आ सका है। जितना ज्ञात है और जिसका प्रयोग होता है वह बहुत थोड़ा अंश है। इससे कितनी ही गुनी सम्भावनाएँ मानवी सत्ता के गहन अन्तराल में छिपी पड़ी हैं। धरती की ऊपरी सतह पर तो घासपात उगाने की क्षमता ही दिख पड़ती हैं। कहीं धूल, कहीं पत्थर बिखरे दीखते हैं, पर गहराई तक खोदते जाने पर बहुमूल्य खनिजों की परतें उपलब्ध होती जाती हैं। ठीक इसी प्रकार शरीर की श्रम शक्ति और मन की चिन्तन शक्ति से आगे गहराई में उतरने पर उन क्षमताओं का अस्तित्व सामने आता है जिन्हें अतीन्द्रिय या दैवी कहते हैं। वस्तुतः वे भी व्यक्ति की अपनी ही अविज्ञात एवं उच्चस्तरीय सामर्थ्यं ही होती हैं। उन्हें प्रयत्नपूर्वक जगाया या बढ़ाया जा सकता है।

पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने जो अतीन्द्रिय क्षमताएँ खोजी हैं वे उन्हें चार वर्गों में विभक्त करते हैं−(1) क्लेयर वायेन्स (परोक्ष दर्शन) अर्थात् वस्तुओं या घटनाओं की वह जानकारी जो ज्ञान प्राप्ति के सामान्य आधारों के बिना ही उपलब्ध हो जायें। (2) फ्रीकॉग्नीशन (भविष्य ज्ञान) बिना किसी मान्य आधार के भविष्य की घटनाओं का ज्ञान। (3) रेट्रोकॉग्नीशन (भूतकालिक ज्ञान) बिना किन्हीं मान्य−साधनों से अविज्ञात भूतकालीन घटनाओं की जानकारी। (4) टेलीपैथी (विचार−सम्प्रेषण) बिना किसी आधार या यन्त्र के अपने विचार दूसरों के पास पहुँचाना तथा दूसरों के विचार ग्रहण करना। इस वर्गीकरण को और भी अधिक विस्तृत किया जाय तो उन्हें 11 प्रकार की गतिविधियों में बाँटा जा सकता है।

चमत्कारी अनुभव मोटे तौर पर निम्न वर्गों में विभक्त किया जा सकता है−

(1) बिना किन्हीं ज्ञातव्य साधनों के सुदूर स्थानों में घटित घटनाओं की जानकारी मिलना।

(2) एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की मनःस्थिति तथा परिस्थिति का ज्ञान होना।

(3) भविष्य में घटने वाली घटनाओं का बहुत समय पहले पूर्वाभास।

(4) मृतात्माओं के क्रिया-कलाप, जिससे उनके अस्तित्व का प्रत्यक्ष परिचय मिलता हो।

(5) पुनर्जन्म की वह घटनायें, जो किन्हीं बच्चों, किशोरों या व्यक्तियों द्वारा बिना सिखाये-समझाये बताई जाती हों और उनका उपलब्ध तथ्यों से मेल खाता हो।

(6) किसी व्यक्ति द्वारा अनायास ही अपना ज्ञान तथा अनुभव इस प्रकार व्यक्त करना, जो उसके अपने व्यक्तित्व और क्षमता से भिन्न और उच्च श्रेणी का हो।

(7) शरीरों में अनायास ही उभरने वाली ऐसी शक्ति जो सम्पर्क में आने वालों को प्रभावित करती हो।

(8) ऐसा प्रचण्ड मनोबल जो असाधारण दुस्साहस के कार्य विनोद की साधारण स्थिति में कर गुजरे और अपनी तत्परता से अद्भुत पराक्रम कर दिखाये।

(9) अदृश्य आत्माओं के सम्पर्क से असाधारण सहयोग सहायता प्राप्त करना।

(10) शाप और वरदान जिससे दीर्घकाल तक व्यक्तियों व वस्तुओं पर प्रभाव बना रहता है।

(11) परकाया प्रवेश या एक आत्मा में अन्य आत्मा का सामयिक प्रवेश सिद्ध होता है।

इनके अतिरिक्त भी कुछ विविध तथा विसंगत बहुवर्गीय क्रम की भी घटनायें हो सकती हैं जिनसे अतीन्द्रिय शक्तियाँ प्रमाणित होती हों जैसे मानवेत्तर जीवों की सामान्य से असामान्य क्षमतायें।

अतीन्द्रिय ज्ञान−एक्स्ट्रा आर्डिनरी सेन्स परएप्शन−की प्राप्ति में यों मस्तिष्क के अचेतन भाग के अन्य केन्द्र भी काम करते हैं, पर आज्ञाचक्र का उपयोग सबसे अधिक होता है। धूमिल स्थिति में तो दर्पण पर अपनी आकृति तक देखना सम्भव नहीं होता, फिर धूमिल आज्ञाचक्र क्या काम करेगा। कैमरे के लैन्स पर धूलि जम रही हो तो साफ फोटो कहाँ आता हैं? आंखें दुखने आ जायँ या पट्टी बाँध ली जाय तो दृश्य कहाँ दिखाई देते हैं। इसी प्रकार धूमिल आज्ञाचक्र अपनी क्षमता का प्रकटीकरण प्रसुप्त स्थिति में नहीं कर सकता। सक्षम बनाने के लिए उसे स्वच्छ एवं जागृत बनाने की आवश्यकता होती है। इस विभाग को अध्यात्म की भाषा में तृतीय नेत्र कहा जाता है। उसमें दिव्य दृष्टि का अस्तित्व पाया जाता है, दिव्य दृष्टि का अर्थ है वह देख पाना जो नेत्र गोलकों की सामर्थ्य से आगे की बात है।

प्रसिद्ध जादूगर गोपियापाशा और प्रो0 सरकार नेत्रों से कड़ी पट्टी बँधवाकर घनी आबादी की भीड़ भरी सड़कों पर मोटर साइकिल दौड़ने के अपने करतब दिखा चुके हैं। इन प्रदर्शनों से पहले विशेषज्ञों ने अनेक प्रकार से यह परीक्षा कर ली थी कि इस स्थिति में आँखों से देख सकने की किसी प्रकार कोई गुंजाइश नहीं है। प्रदर्शनों के समय दुर्घटना घटित न होने देने के यों सरकारी प्रबन्ध भी थे, पर वैसा अवसर ही नहीं आया। प्रदर्शन पूरी सफलता के साथ सम्पन्न हुए और दर्शकों में से सभी को यह विश्वास करना पड़ा कि बिना आँखों की सहायता के भी बहुत कुछ देखा जाना सम्भव हो सकता है।

इसी से मिलती−जुलती एक घटना अमेरिका की भी है। पोद्देशिया नामक महिला घोर अँधेरे में आँखों से पट्टी बाँधकर दृश्य देखने और रंग पहचानने का दावा करती थी। उसकी परीक्षा बर्नार्ड कालेज न्यूयार्क की वैज्ञानिक मण्डली ने की। परीक्षा समिति के अध्यक्ष डॉ0 रिचर्ड यूटस् ने घोषित किया है। वस्तुतः महिला में वैसी ही क्षमता है जैसा कि उसका कथन है। ‘तन्त्र विद्या के विश्व कोश’ ‘एनसाइक्लोपीडिया आफ दि ऑकल्ट’ ग्रन्थ में ऐसे ढेरों उदाहरणों का वर्णन है जिनमें मनुष्य में पाई जाने वाली अतीन्द्रिय क्षमताओं का उल्लेख है। फ्रान्सीसी नाविक फोन्टान जन्मान्ध था, पर वह अपनी उँगलियों से छूकर सब कुछ उसी तरह जान लेता था जैसा कि आँखों वाले नेत्रों से देखकर जानते हैं। फ्रान्सीसी कवि और वैज्ञानिक ‘जूल्स रोमेन्स’ ने परोक्ष दृष्टि विज्ञान में गहरी दिलचस्पी ली थी और अपने शोध प्रयासों से सिद्ध किया था कि नेत्रों के द्वारा मस्तिष्क में दृश्य सूचना पहुँचाने वाले ज्ञान तन्तुओं के समान ही सम्वेदना वाहक धागे शरीर के अन्य अंगों में भी मौजूद रहते हैं। यदि उन्हें विकसित किया जा सके तो दृष्टि प्रयोजन अन्य अवयवों की सहायता से भी पूरा किया जा सकता है।

चैकोस्लोविया से परा मनोविज्ञान संस्थान के प्राध्यापक ‘मैलिन रिज्ल’ और लैनिन ग्राड विश्व विद्यालय के प्राध्यापक ‘वेलिलियेव’ अपनी शोध समीक्षा में उस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मनुष्य में अतीन्द्रिय क्षमता का अस्तित्व मौजूद है। किन्तु वह क्यों विकसित होती है और किस प्रकार उसे बढ़ाया जा सकता है, यह अभी भी रहस्य का विषय है।

इटली के एक पादरी जोसेफ ने अपने समय में हवा में उड़ सकने की क्षमता प्रदर्शित करके अनोखी ख्याति पाई थी। इस सिद्धि की चर्चा तब तो देश भर में फैल गई जबकि उसने मृत्यु से कुछ ही समय पूर्व एक डॉक्टर को भी अपने साथ हवा में उड़ाकर दिखा दिया।

जोसेफ की मृत्यु 1663 में हुई। जब वह मरणासन्न था जो प्रसिद्ध चिकित्सक फ्रांसेस्को थिरयोली को चिकित्सा के लिए बुलाया गया। डॉक्टर ने अपने संस्मरण में लिखा है− मैं देख-भाल कर ही रहा था कि जोसेफ ने मेरा हाथ पकड़ा और हवा में तैरने लगा। उससे जकड़ा हुआ में भी उड़ रहा था इसके बाद वह मुझे भी उड़ाते हुए फ्राँस के गिरजे तक ले गया और वहीं बैठकर प्रार्थना करने लगा। मुझसे कहा−आपके इलाज की जरूरत नहीं रही। मुझे भगवान ने बुलाया है सो मैं जल्दी ही परलोक जा रहा हूँ। डॉक्टर सन्न रह गया और बिना इलाज किये ही वापिस लौट गया। दूसरे दिन उसकी मृत्यु हो गई।

इटली के सरकारी कागजों में जोसेफ के हवा में तैरने के कितने ही प्रसंग है जो पुलिस तथा दूसरे अफसरों ने तथ्य का पता लगाने के लिए जाँच पड़ताल के सम्बन्ध में संग्रह किये थे। किंवदंतियों से लेकर प्रत्यक्ष दर्शियों तक के ऐसे अनेकानेक प्रसंग इटली की जनता में प्रचलित हैं, जिनसे पता चलता है कि वह पादरी ऊँची रखी हुई ईसा की मूर्तियों तक उछल कर जा पहुँचता था और ऐसे ही कुछ देर अधर में लटका रहता था। लोग उसे अलौकिक क्षमताओं से सम्पन्न सिद्ध पुरुष मानने लगे थे।

पादरी जोसेफ का पिता इटली के फेलिक्स डेला नामक गाँव में रहता था और बढ़ई का काम करता था। गरीबी और बेकारी से दुःखी होकर वह अपनी गर्भवती पत्नी को लेकर कहीं गुजारे का आसरा ढूँढ़ने के लिए चल पड़ा। सन् 1603 की बात है दुर्बल हड्डियों का ढाँचा मात्र था। जन्म से ही बीमार रहने लगा और थोड़े दिन में ही पेट की भयंकर व्यथा में ग्रसित हो गया। इलाज के लिए पैसा न होने से बाप ने एक साधु की शरण ली। साधु ने कहा−‘‘इसका शरीर मर चुका केवल आत्मा ही धरती पर बाकी हैं।” इतने पर भी उसने कहा वह बचा लिया जायगा और पादरी होकर जीयेगा। सचमुच ही वह बच गया और बचपन से ही साधुओं जैसा पूजा−पाठ का जीवनयापन करने लगा। उसकी उपासना चलती रही और चमत्कारी ख्याति बढ़ती रही। उसकी विशेषताओं में प्रार्थना के अवसरों पर हवा में तैरने लगने की प्रसिद्धि सर्वत्र फैली हुई थी।

लार्ड अडारे ने अपनी आँखों देखा ऐसा विवरण “रिपोर्ट आफ दि डायलेक्टिकल सोसाइटी आन स्प्रिचुअलिज्म” में प्रकाशित कराया था जिसके अनुसार एक व्यक्ति को उन्होंने हवा में पक्षी की तरह उड़ते और तैरते देखा था। उनके इस विवरण की यथार्थता के लिए ‘दी रायल एस्ट्रोमिकल सोसाइटी’ के अध्यक्ष की साक्षी भी जोड़ी गई थी।

इस विवरण में होम नामक एक ऐसे अद्भुत व्यक्ति का उल्लेख है जिसे कितनी ही तरह की चमत्कारी सिद्धियाँ प्राप्त थीं। वह हवा में उड़ सकता था। जलते हुए अंगारे बहुत देर तक हाथों पर रखे रहता था।

इन सिद्धियों की चर्चा हुई तो बहुतों ने अविश्वास किया और इसे अफवाह फैलाकर धोखाधड़ी करने की संज्ञा दी। फलतः प्रख्यात और प्रामाणिक विज्ञान वेत्ता सर विलियम क्रुक्स की अध्यक्षता में एक शोध समिति इसके परीक्षण के लिए बनाई गई। समिति इतना ही बताने में समर्थ हुई कि होम के बारे में जो कहा गया है वह सही है। उसमें कोई चालाकी नहीं है। किन्तु यह बात सकना कठिन है कि यह सब होता कैसे हैं? ब्रिटिश सोसाइटी फॉर साइकिक रिसर्च के प्रतिनिधि एफ0 डबल्यू मेयर्स से इस सम्बन्ध की भेंट वार्ता में प्रो0 क्रुक्स ने अपने परीक्षण, अनुभव और निष्कर्ष का विस्तार पूर्वक वर्णन सुनाया और कहा- चालाकी जैसी कोई बात इसमें नहीं है। अस्तु इस प्रकार की घटनाओं को विज्ञान की नई शोध का विषय माना जाना चाहिए और उन्हें अविश्वस्त न मानकर नये सिरे से खोज का प्रबन्ध करना चाहिए। क्रुक्स ने अपने परीक्षण के समय होम में ऐसी विलक्षण शक्ति भी पाई कि वह अपने प्रभाव से दूर रहते हुए भी बिना छुये वस्तुओं को इधर से उधर हटा सकता था और ऐसी वस्तुएँ प्रस्तुत कर सकता था जो वहाँ पहले से कहीं भी नहीं थीं।

गेविन मैक्सवेल ने दिव्य दृष्टि के अस्तित्व को खोजने में गहरी दिलचस्पी ली है और उन्होंने लम्बी जाँच पड़ताल के बाद यह पाया है कि बहुतों में सहज ही दृष्टि होती है। लगातार प्रयत्न और अभ्यास करने पर उसे बढ़ाया जा सकता है। किन्तु कितने ही बिना किसी अभ्यास के भी उस क्षमता से सम्पन्न पाये जाते हैं, किन्तु वे अपनी अनुभूतियों को प्रकट करने में प्रायः डरते रहते हैं। ढोंगी समझे जाने, किसी को बुरा लगने, सही न होने पर खिल्ली उड़ने, अपनी अनुभूति पर पूर्ण विश्वास न होने जैसे कारणों से भीतर से जो आभास मिलता है उसे प्रकट नहीं कर पाते और छिपाये ही रहते हैं। यदि पूर्वाभासों के प्रकटीकरण की परम्परा चल पड़े तो फिर प्रतीत होगा कि मनुष्यों में बुद्धिमत्ता की ही तरह अपनात्मानुभूति का अस्तित्व भी बड़ी मात्रा में मौजूद है। प्रयत्न पूर्वक विकसित करने पर तो उसे और भी अधिक सक्षम बनाया जा सकता है। अशिक्षितों को शिक्षित बनाकर जिस प्रकार बुद्धि वैभव बढ़ाया जाता है उसी प्रकार यह भी सम्भव है कि जनसाधारण में सामान्यता और कुछ विशिष्टों में विशेषतया पाई जाने वाली दिव्य दृष्टि को समर्थ बनाना और उससे लाभ उठाना सम्भव हो सके।

गेविन मैक्सवेल ने अपने अनुसन्धानों में एक अस्सी वर्षीय अन्धे का वर्णन किया है, जिसने समुद्र में डूबी हुई एक मछुआरे की लाश का सही स्थान बताने और उसे बाहर लाने में सहायता की थी। उन्होंने पश्चिमी पठार के द्वीप समूहों के लोगों में यह क्षमता विशेष रूप से पाये जाने का उल्लेख किया है। शमूस फियारना द्वीप में एक मछुआ पछली पकड़ते समय गाँव के समीप की खाड़ी में डूब गया। उसकी लाश निकालने और विधिवत् दफनाने के लिए सारा गाँव उत्सुक था। सभी नावें कई दिन तक लगातार खाड़ी में चक्कर काटती रहीं पर किसी के काँटे में लाश फँसी नहीं। निराशा छाई हुई थी। तभी एक अस्सी वर्षीय अन्धे कैलम मेकिनन ने कहा आप लोग मुझे नाव में बिठा कर ले चलें और खाड़ी में घुमाते रहें। सम्भवतः मैं लाश को तलाश करा दूँगा। वैसा ही किया गया। सही जगह मिलने पर बुड्ढा चिल्लाया−काँटा डालो लाश ठीक नीचे है। वैसा ही किया गया। फलतः मृतक को बाहर निकाल लिया गया और उसे विधिवत् दफनाया गया।

यह दिव्य दृष्टि भौतिक क्षेत्र में अदृश्य को देखने और अविज्ञान को जानने में काम आती हैं और आध्यात्मिक जगत में दूरदर्शिता एवं विवेकशीलता को विकसित करती है। ऐसे दिव्यदर्शी, तत्वदर्शी कहलाते हैं उन्हें जो सूझता और दीखता है वह बहुत ही उच्च स्तरीय होता है। पदार्थों में चेतना और प्राणियों में आत्मा को देख पाना इसी तत्वदर्शी दृष्टि के लिए सम्भव है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के नाम से यही प्रख्यात है, गायत्री महामन्त्र में इसी की आराधना है। इसकी उपलब्धि होने पर सर्वत्र अपना ही आत्मा बिखरा दीखता है और अन्यान्यों के सुख−दुःख अपने ही प्रतीत होते हैं। इन्हीं से आत्म साक्षात्कार और ईश्वर दर्शन का परम लक्ष्य प्राप्त होता है। दिव्यदर्शी भगवान बुद्ध ने कहा था−‘‘जब करुणा के नेत्र खुलते हैं तो मनुष्य अपने में दूसरों को और दूसरों में अपने को देखने लगता है। करुणा की दृष्टि ही माया का उच्छेद होता है और उसके पार पूर्णता की परम ज्योति का दर्शन होता हैं।” इसी परम ज्योति को प्राप्त करना मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है।

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