जीवट मानव जीवन की सर्वोपरि सम्पदा

August 1978

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मनुष्य के पास पाई जाने वाली सम्पदाओं में बलिष्ठता, सुन्दरता, बुद्धिमत्ता, सम्पन्नता की जानकारी सभी को है। उन्हीं के आधार पर कई तरह की सुख−सुविधाओं एवं सफलताओं का सुयोग बनता है। इन सर्वविदित सम्पदाओं से भी एक और भी बड़ी क्षमता है, जिसके प्रभाव और परिणाम की जानकारी बहुत थोड़े ही लोगों को होती है। वह क्षमता है−जीवट।

साहस, सन्तुलन और पराक्रम के समन्वय का अभ्यास जब स्वभाव का अंग बन जाता है तो उसे ‘जीवट’ कहते हैं। जीवट वह धन है जिसके आधार पर मनुष्य के व्यक्तित्व की प्रखरता और समर्थता का मूल्यांकन किया जाता है। सफलताएँ ऐसे ही लोगों की चेरी बनती हैं। विजय श्री ऐसे ही लोगों के चरण चूमती है। दूसरे लोग जिन कामों को करने पर विश्वास तक नहीं करते उन्हें असम्भव मानते हैं ऐसे जीवट के धनी उन्हें करने के लिए अतिरिक्त आवेश उत्पन्न करते हैं और अनवरत पुरुषार्थ के सहारे अभीष्ट लक्ष्य तक जा पहुँचते हैं।

शरीर में स्फूर्ति, आँखों में चमक, चेहरे पर दृढ़ता, होठों पर मुसकान, भुजाओं में हिम्मत, छाती पर हिम्मत के चिन्ह वहाँ की मांसपेशियाँ प्रकट करती हैं। यह जीवट का ही चमत्कार है। ऐसे लोगों के चिन्तन में आत्म विश्वास, वाणी में आश्वासन, व्यवहार में प्रामाणिकता का सहज ही परिचय मिलता है। यह जीवट व्यक्ति के आचरण, उद्देश्य और क्रिया-कलाप के कण−कण से प्रकट होती है। वह ओछी या खोखली नहीं होती। उनके निर्णय अनिश्चित और अस्त−व्यस्त नहीं होते। दूरदर्शी सूझबूझ भी ऐसे ही लोगों के पास रहती है। दूरदर्शिता, शालीनता और साहसिकता का समन्वय, जिसके चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में घुला हुआ हो उसे जीवट की सम्पदा से सुसम्पन्न समझा जा सकता है।

टिटहरी अपने अण्डे वापिस लेने के आक्रोश में समुद्र को पाट देने के लिए चोंच में भर−भरकर बालू डालने लगी तो उसके साहस के आश्चर्यचकित अगस्त आगे आये और समुद्र सोख लेने का सहयोग देकर टिटहरी का उद्देश्य पूरा कराया। भागीरथ जब स्वर्ग से धरती पर गंगा उतारने का व्रत लेकर तप करने में जुट गये तो शिवजी ने उनकी सहायता की, इस प्रकार गंगावतरण सम्भव हो गया। जब गाण्डीव चलाने के लिए अर्जुन कटिबद्ध हो गये तो भगवान कृष्ण ने उनका सारथी बनना स्वीकार किया। जो साधन, सहयोग और अवसर ही आशा लगाये बैठे रहते हैं, उन्हें प्रतीक्षा में ही समय गुजारना पड़ता है, पर हिम्मत के धनी जब अपने बलबूते स्वयं ही चल पड़ते हैं तो कोलम्बस की तरह एक नई दुनिया के साथ सम्बन्ध जोड़ लेना सम्भव हो जाता है। राविन्सन क्रूसो है तो उपन्यास का ही एक पात्र, पर उस तरह की अप्रत्याशित सफलताएँ पाने वालों की सूची भी छोटी नहीं है। जीवट हिम्मत एवं सूझबूझ के रूप में दृष्टिगोचर होने वाली प्राण शक्ति सफलताओं का तीन चौथाई हिस्सा पूरा कर देती है।

ऋषियों के आश्रमों में गाय और सिंह शान्ति और सहयोग के साथ निवास करते थे। यह ऋषियों की प्रचण्ड प्राणशक्ति का ही प्रभाव था। संसार के विशिष्ट व्यक्तियों की प्रभावशाली शक्ति के असंख्य उदाहरण और संस्मरण मिलते हैं। यह उनकी तेजस्विता का ही परिणाम था।

यह प्राणशक्ति ही है जो व्यावहारिक जीवन में उत्साह एवं स्फूर्ति के रूप में दृष्टिगोचर होती है। साहस के रूप में उभरती है और दृढ़ता के रूप में निर्धारित लक्ष्य के साथ जुटाये रहती है। आत्म विश्वास इस प्राण शक्ति का ही गुण है। जीवट और जिजीविषा उसी की प्रतिक्रिया है। आत्मबल के धनी अपने ऊपर भरोसा करते हैं। अपने बलबूते किसी उत्तरदायित्व को कन्धों पर उठाते हैं और असीम साहस के साथ संकल्प की पूर्ति के लिए आगे बढ़ते हैं। आगे बढ़ने वाले ही साहसिकता के आगे कठिन परिस्थितियाँ नरम पड़ती हैं और अनुकूल बनती जाती हैं।

भगवान बुद्ध के तेज से आविर्भूत हुए खूँखार अँगुलिमाल डाकू को, जिसे मनुष्य को काटने और गाजर−मूली के टुकड़े कर डालने में कोई अन्तर न दिखाई पड़ता था−अपनी तलवार फेंकनी पड़ी और तथागत के चरणों में गिरना पड़ा। यह आत्म तेज का प्रभाव था। जिसकी शक्ति के आगे अजगर-चूहा, शेर-बकरी और भेड़िया-भेड़ बन जाता है। सरकस में हिंसक पशुओं पर शासन करने वाले रिंग मास्टर में यही शक्ति काम करती है।

नैपोलियन जेल से कूदकर भागा तो बोर्वोर्न सेनाएँ सतर्क कर दी गई। सेनापति ने सैनिकों को आदेश दिया कि जहाँ भी नैपोलियन मिले उसे गोली मार दी जाय, पर हुआ कुछ और ही। नैपोलियन सीधा उधर ही गया जहाँ सन्नद्ध सेना राइफलें लोड किये खड़ी थीं, पर उनके आगे किसी को भी घोड़ा दबाने का साहस नहीं हुआ। सारी सेना फिर नैपोलियन के सेनापतित्व में आ गई।

रोम का राज जूलियस सीजर एक बार समुद्री यात्रा करते समय समुद्री लुटेरों द्वारा कैद कर लिए गया। ‘फिरौती’ का पैसा मिलने तक उन्हें होउस द्वीप में बन्दी बना कर रखा गया। प्लूचार्ड ने लिखा है कि सीजर यद्यपि डाकुओं का बन्दी था तो भी वह सम्राट की तरह की रौब−दौब से रहता था। जिस किसी डाकू को वह डाँट देता था वह सन्न रह जाता था। सब उसकी आज्ञा का पालन करते थे। वह उन्हें धमकाता भी था और कहता था कि जब यहाँ से चला जाऊँगा तो तुम सबको फाँसी के तख्ते पर लटका दूँगा, पर कोई डाकू चूँ तक नहीं करता था। छुटकारा पाने पर उसने वैसा किया भी। यह उसके आत्म−बल की महत्ता थी, जो वह गिरफ्तार होकर भी उस समय के अपने मालिक डाकुओं पर शासन करता था।

कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् के चतुर्थ अध्याय में अजातशत्रु ने जिज्ञासु गार्ग्य को आत्म तेज की विद्या बताई है। वे कहते हैं कि जैसे काष्ठ में अग्नि, दूध में घृत और गन्ने में मिठास रहता है उसी प्रकार इस शरीर के कण−कण में आत्मा की सत्ता ओतप्रोत है। इसे जो जान लेता है वह तत्व ज्ञानी बनता है और जो इसका उपयोग करना जानता है उसकी सामर्थ्य असीम हो जाती है।

इसी प्रसंग में देवताओं के हारते रहने का समाधान है। इन्द्र से कहा गया है कि आत्म ज्ञान और आत्म-शक्ति गँवा बैठने के कारण ही देवता दुर्बल बने हैं और मनस्वी परि−पक्षियों से हारने लगे हैं। जो आत्मस्वरूप को समझता है उसे शक्ति की कमी प्रतीत नहीं होती। जो शक्तिवान है सो जीतता है।

राजकीय शक्ति का आधार सेना की प्रखरता और शस्त्रों की उत्कृष्टता हो सकती है। पद और अधिकार में अपनी शक्ति है। समर्थन के बलबूते लोग ऊँचे चढ़ते और बहुत कुछ कहते हैं। पैसा भी इस युग की एक शक्ति है, जिससे संसार के सुख−साधनों, प्रवीण मनुष्यों को खरीदा जा सकता है। व्यक्ति की शक्ति उसके शरीर गठन, कला कौशल और शिक्षा समझदारी के आधार पर आँकी जाती है। इतने पर भी जीवट का जीवन में सर्वोपरि स्थान सदा ही बना रहेगा। उसी के आधार पर अपने आपको अनुशासित और परिष्कृत किया जा सकता है। प्रगति के लिए बहुत कुछ करने और बनने की आवश्यकता पड़ती है। यह सारा सरंजाम जुटा सकना ‘जीवट’ के अतिरिक्त और किसी आधार पर सम्भव ही नहीं हो सकता।

रघुवंश काव्य के सर्ग दो में राजा दलीप गुरु की गौ नन्दिनी को चराते हुए वन जाते हैं। सिंह उस गौ पर आक्रमण करता है। दलीप के हाथ धनुष को चिपक जाते हैं। इस दैवी सिंह के सामने अपने को अशक्त अनुभव करते हुए दलीप उससे प्रार्थना करते हैं वह उनका शरीर खाले और गुरु की गौ को छोड़ दे।

इस पर सिंह कहता है−राजन् तुम कैसे मूर्ख हो जो तुच्छ गाय के बदले अपना राज्य, सुख, वैभव और शरीर का त्याग करने के लिए तैयार होते हो। दलीप उत्तर देते हैं− हे सिंह, तुम्हारा कथन ठीक है कि धन, वैभव और शरीर तीनों ही सुखद हैं, किन्तु उनकी स्थिरता का भरोसा कहाँ हैं? दुर्भाग्य के प्रकोप से धन चला जाता है। बुढ़ापा, यौवन को छीन ले जाता है और मृत्यु के मुख से काया भी कहाँ बचती है। इसलिए आप कृपाकर सकें तो हमारे यश शरीर को जीवित रखने की बात सोचें

यह जीवट ही है जो मौत तक को चुनौती देती है और अपने व्यक्तित्व की गरिमा को हर परिस्थिति में सुरक्षित रखे रहती है। यही मानव जीवन की सर्वोपरि सम्पदा है।

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