व्यक्तित्व का स्तर गिरायें नहीं, ऊँचा रखें।

August 1978

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अस्थिरता, आतुरता, अव्यवस्था और आशंका की चाण्डाल चौकड़ी मनुष्य की उस क्षमता का बुरी तरह शोषण, अपहरण करती रहती हैं जिसके सहारे कोई भी अभीष्ट प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँच सकता है।

अधीरता ओछेपन का चिन्ह है। अपना कुछ निश्चय ही न हो। हवा के साथ उड़ने वाले तिनके की तरह जिस तिस के प्रभाव या प्रवाह में बहते रहा जाय तो बात कुछ बनेगी नहीं। मनुष्य का अपना व्यक्तित्व होना चाहिए और अपना निश्चय सन्तुलन हर दृष्टि से आवश्यक है। उसके बिना न संकटों से उबरना सम्भव हो सकता है और न प्रगति का मार्ग मिलता है। यहाँ तक कि भीतर का खोखलापन सामान्य जीवन को भी कठिन बना देता है। अवास्तविक आशंकाएँ सिर पर छाई रहती हैं और उन्हीं के दबाव से आदमी का कचूमर निकलता रहता है।

परीक्षा काल में छात्रों की मानसिक शक्ति का व्यय किस क्रम से होता है उसका सर्वेक्षण अमेरिका की मिशिगन युनिवर्सिटी में किया गया−उसमें पाया गया कि प्रश्न पात्र पाने पर उसकी कठिनाई, चिन्ता, आतुरता, आशंका आदि के कारण आरम्भ में वे अधिक उत्तेजित रहे और उतने समय तक अधिक मानसिक शक्ति गँवाते रहे। जब उनने प्रश्न पत्र हल करना आरम्भ कर दिया तो उत्तेजना सन्तुलन में बदल गई और उत्तर लिखने में जो मानसिक श्रम करना पड़ा वह उत्तेजित स्थिति की तुलना में कहीं कम था।

अधिक और सही काम कर सकने का मूड लाइमेक्स वस्तुतः सन्तुलित, प्रसन्न और आशांवित मनःस्थिति का ही उत्पादन है। लोग उसे अनायास बरसने वाली दैवी अनुदान जैसा मानते हैं और उसकी प्रतीक्षा में आशा लगाये बैठे रहते हैं। वर्षा होने पर बीज बोने की बात सोचकर जो हाथ पर हाथ रखे बैठे रहते हैं उनसे वे अधिक बुद्धिमान हैं जो कुँए से सिंचाई करके समय पर खेत में बीजारोपण कर लेते हैं। मूड बन जाय या बनाया जाय दोनों ही स्थितियों में मानसिक सन्तुलन और रचनात्मक उभार आवश्यक है। यह उत्पादन निश्चित रूप से अपने प्रयत्न द्वारा भी किया जा सकता है।

कितने ही लोग बातें करने में बहुत कुशल होते हैं। उनके तर्क, लहजे, प्रमाण और उदाहरण ऐसे होते हैं, जिनके सुनने वाले सहज ही प्रभावित हो जाते हैं। कुछ को तो बोलने की ऐसी आदत होती है कि जीभ रोके नहीं रुकती और कैंची की तरह चलती ही रहती है। कई बार ऐसे लोगों से सुनने वाले ऊबने लगते हैं और किसी प्रकार जान छुड़ाने की बात सोचते हैं। दूसरों को कुछ कहने का वे अवसर ही नहीं आने देते। अधिक बक−झक कुल मिला कर मनुष्य के स्तर को घटाती और व्यक्तित्व को गिराती है। बकवास सभ्य आचरण में नहीं गिनी जाती। उसने छिछोरापन टपकता है। कम और सारगर्भित बोलने वाले बुद्धिमान भी समझे जाते और उनकी बात का प्रभाव भी पड़ता है। वार्तालाप का यह कौशल यदि बहिर्मुखी न रहने देकर अन्तर्मुखी बना लिया जाय तो बुद्धिमत्ता की मात्रा में सहज ही आशाजनक अभिवृद्धि हो सकती है।

मन की दो परतें हैं− एक बाजारू बचकाना, दूसरा सम्मानित उपाध्याय। अध्यापक के प्रशिक्षण में छात्र की योग्यता बढ़ती है। बचकाने मन का समुचित प्रशिक्षण करना यदि उपाध्याय को रुचिकर लगे तो यह क्रम हर घड़ी चलता रह सकता है। सोचने का सही तरीका भर यह छात्र यदि ठीक से सीख सके तो उतने भर से मनःसंस्थान की गरिमा अत्यधिक बढ़ सकती है। अस्त−व्यस्त चिंतन से मानसिक शक्तियों का अपव्यय ही नहीं होता, वरन् हानिकारक गतिविधियाँ अपना लेने और पग−पग पर ठोकरें खाने का भी खतरा रहता है। जिस प्रकार बच्चों को शिष्टाचार सिखाया जाता है और बछड़ों को कृषि कार्य के लिए सधाया जाता है उसी प्रकार मन को भी सही सोचने और सही करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। यह कार्य अपना ही उच्चस्तरीय मन कर सकता है। वह मन जिसे अध्यापक उपाध्याय की योग्यता अनायास ही प्राप्त है।

कई परिवारों में संकोचशीलता की कुछ विलक्षण प्रथा चल पड़ती है। एक दूसरे से बहुत कम बोलते हैं और आमने-सामने आने से कतराते रहते हैं। कहने को तो इसे शील संकोच भी कह दिया जाता रहा है, पर वस्तुतः इसे दब्बूपन जैसा ही कुछ नाम दिया जाना चाहिए। परस्पर घुल मिल कर बातें करने से मन हलका ही नहीं होता−घनिष्ठता बढ़ती है, गुत्थियाँ खुलती हैं और कई उपयोगी निष्कर्ष निकलते हैं। यही बात मन के सम्बन्ध में भी है। मन से मन को समझाने की परस्पर शंका−समाधान, विचार-विनिमय और आदान−प्रदान करने की आदतें ऐसी अच्छी हैं कि दृष्टिकोण में आशाजनक सुधार होता है− दुष्प्रवृत्तियाँ छूटती हैं और सर्वतोमुखी प्रगति के कितने ही अप्रत्याशित द्वार खुलते हैं।

परिस्थितियों को सुधारने की बात सभी सोचते हैं किन्तु यह भूल जाते हैं कि मनःस्थिति पर ध्यान देना और भी अधिक आवश्यक है। यदि अपने चिन्तन को परिष्कृत ओर क्रिया-कलाप को व्यवस्थित बना लिया जाय तो परिस्थितियों की प्रतिकूलता बहुत हद तक स्वतः ही सरल हो जायगी। जो बच रहेगी उससे सूझ−बूझ और साहस के सहारे निपट लेना कुछ अधिक कठिन न रहेगा। प्रतिकूलताओं से डरने की अपेक्षा यह अधिक उपयुक्त है कि उनसे निपटने के कौशल को उभारा और परिपक्व किया जाय।

शेक्सपियर कहते थे− ‘‘आपत्तिकाल का सबसे बड़ा लाभ यह है कि वह हमें संसार की कड़ुई सच्चाइयों से परिचित कराता है। मित्रों और शत्रुओं के वास्तविक रूप को नंगा करके सामने खड़ा कर देता है।” लुकमान ने कहा है− आपत्तिकाल से पार होने का सबसे बड़ा सहारा है उज्ज्वल भविष्य की आशा। अँधेरी रात प्रातःकाल की प्रतीत में सहज ही कट सकती है। आपत्ति में डूबता वह है जिसने अन्धेरे भविष्य का अन्धकार अपने चारों ओर संजोकर रख लिया है।

हर स्थिति में हलके-फुलके बने रहने की आदत उत्पन्न कर लेना जीवन को सरस बनाने की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण कला कौशल है। खिलाड़ी की दृष्टि रखें तो हार−जीत में सन्तुलन बिगड़ने न पायेगा। नाटक के पात्र अपने अभिनय में चूक नहीं करते किन्तु प्रदर्शन के घटना−क्रम में इतने प्रभावित नहीं होते कि आवेशग्रस्त होकर अपनी नींद ही हराम कर बैठें। यही मध्यवर्ती मनःस्थिति हमारी होनी चाहिए।

मेसाचुसेट्स इलाके के ग्रेटवरीग्टन उपनगर का निवासी परसी एच0 व्हाइटिंग नामक एक हंसोड़ ने अपना जीवन वृत्तान्त लिखते हुए बताया है कि उसने जवानी के बीस वर्ष ऐसी बीमारियों से लड़ते हुए बिताये जिन्हें मौत की सहेली माना जाता था। डॉक्टर उसे असाध्य बताया करते थे। इलाज करके बदनामी लेने के लिए बड़े चिकित्सक तो तैयार ही न होते थे। बाप दवाओं की दुकान करते थे। उनकी जान−पहचान बहुत से डाक्टरों से थी। सो चित्र−विचित्र बीमारियों के इलाज और नित नये उपचार पर प्रायः चर्चा होती ही रहती थीं। दवाओं पर खर्च भी बहुत हुआ था। पर उससे नतीजा कुछ नहीं निकला।

अन्ततः उसने अपना इलाज अपने हाथ में लिया। आहार−विहार को सुसंयत करने के अतिरिक्त उसने एक अच्छी आदत सीखी− वह थी मुसकराते रहने और अवसर मिलते ही जी खोल कर हँसने की कला। इस उपचार ने उसका काया-कल्प ही कर दिया। वह बीमारियों से अपने आप छूटा और औसत मनुष्यों की तुलना में अधिक अच्छी तन्दुरुस्ती का जीवनयापन करने लगा। लोग उसके इस आश्चर्यजनक परिवर्तन की बात पूछते तो वह एक ही उत्तर देता−मैंने मरना बन्द कर दिया, फलतः जिन्दगी वापिस लौट आई। वह विषाद को मौत और मुसकान को जिन्दगी की संज्ञा दिया करता था।

आदमी काम से नहीं थकता ‘ऊब’ से मरता है। काम में रस लेने तो वह भार न रह कर विनोद बन जाता है और उसे छोड़ने को मन नहीं करता जब कि भार समझ कर करने वाले तनिक से श्रम और समय में बेतरह थकान अनुभव करते और छूटने के लिए आतुर रहते देखे गये हैं।

अलेग्जेन्ड्रिया−वर्जीनिया के एण्टनी नामक अध्यापक ने आर0 कालेज में पूरे 48 वर्ष तक काम किया। इस बीच उनने एक दिन के लिए भी स्कूल जाना बन्द नहीं किया। रविवार तथा अन्य छुट्टी के दिनों में भी वे स्कूल जाते थे तथा सफाई व्यवस्था आदि के कामों को अपने हाथों निपटाते थे। बीमारी तथा आकस्मिक कार्यों के लिए भी कभी उन्हें एक भी छुट्टी नहीं लेनी पड़ी।

किसी विषय में गहरी दिलचस्पी और अभिरुचि का होना सामान्य क्षमता को असामान्य बनाने के दृष्टि से बहुत ही कारगर सिद्ध होता है। साधनहीन और पिछड़ी स्थिति के लोग भी अपने विषय में गहरी दिलचस्पी उत्पन्न करके उस प्रयास में पारंगत होते देखे गये हैं।

स्काटलैण्ड का प्रख्यात कवि मैकइन्तायर सन् 1724 में जन्मा और 1812 में मरा। इन 88 वर्ष के लम्बे जीवन में उसने हजारों कविताएँ गढ़ी और वे इस देश के साहित्यिक इतिहास में अनुपम मानी जाती हैं। यह कवि निरक्षर था। उसने न तो पढ़ना आता था और न लिखना। इसके लिए उसने प्रयत्न भी नहीं किया। वह कहता था स्मरण शक्ति यदि ठीक काम दे तो पढ़ना और लिखना, सीखने में क्यों समय नष्ट किया जाय?

हमारे जीवन शिथिल और अनियन्त्रित होते चले जा रहे है। भरी जवानी में ही बुढ़ापे की संध्या आ घेरती है। समय से पहले इस प्रकार बुढ़ापे का आगमन चिन्ता जनक है जिसमें बच्चे और युवक भी जवानी का आनन्द न ले पायें। आँधी−तूफान की गति से अपने समाज पर बुढ़ापे का असर बढ़ता जा रहा है। यह शारीरिक नहीं मानसिक दुर्गति है। जो अपने को जवान मानता रहेगा उसकी जवानी बुढ़ापे में भी बनी रहेगी।

अनीति से समझौता का लेना और उसके प्रतिरोध के लिए साहस न कर सकना यह बताता है कि आन्तरिक शौर्य गँवा दिया गया। किसी भी कीमत पर स्वार्थ सिद्ध करने की जहाँ उतावली हो, वहाँ इस बात की परवाह कौन करेगा कि इस प्रकार की उपलब्धियों में अनीति का आश्रय तो नहीं लिया गया है।

कुटिलता मनुष्य का गुण नहीं है। उसे शैतान का षड्यन्त्र कहा गया है, जहाँ कुचक्र रचे जाते हैं, षड्यन्त्रों का आश्रय लिया जाता है। दुरभिसंधियाँ रची जाती हों, वहाँ मानवी गरिमा का दिवाला ही पिट गया समझा जाना चाहिए। ऐसे मनुष्य क्या कमाते, क्या पाते और क्या खाते हैं? प्रश्न इस बात का नहीं है। देखना यह है कि जिन घिनौने तरीकों से इन उपलब्धियों को पाया गया क्या वे मानवी गौरव के अनुकूल थीं? यदि नहीं तो उन सुविधाओं को अत्यधिक महंगे मूल्य पर खरीदा गया समझा जाना चाहिए।

बालकों जैसा सरल सौम्य यह निश्छल जीवन एक दैवी वरदान है जिसके इर्द−गिर्द सम्भावनाएँ निरन्तर मंडराती रहती हैं। न महत्वाकांक्षाओं की आग में जले और न आशंकाओं से मन को भयभीत बनाये रहने की भूल करें। जो सामने है उसका सदुपयोग करना और आनन्द लेना ही सच्चा कर्म कौशल है। इसे अपनाकर हर परिस्थिति का व्यक्ति सुखी और सरस जीवन जी सकता है।

आइन्स्टाइन जब मरने को हुए तो किसी ने उनसे पूछा− ‘‘आपको मरने से डर तो नहीं लगता? उनने शांत भाव से उत्तर दिया− सर्वत्र संव्याप्त चेतना के साथ मैंने इतनी आत्मीयता जोड़ ली है कि मुझे अपनों से अलग होने जैसा आभास ही नहीं हो सकता। साथ ही उनने यह भी कहा था−”परिवर्तन प्रकृति की अनवरत खिलवाड़ है इस सामूहिक क्रीड़ा−विनोद से हल अलग कैसे रह सकते हैं। परिवर्तन की स्वाभाविकता में डरावनापन नहीं, सहज प्रवाह है, जो सरस भी है और सुगम भी।”

जीवन को हलका-फुलका रखने के लिए आवश्यक यह है कि व्यक्तित्व का मूल्य समझा जाय और उसे प्रखर परिष्कृत बनाने के लिए चिन्तन और चरित्र का स्तर गिरने न दिया जाय।

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