श्रावस्ती परम्परावादियों का गढ़ है आर्य श्रेष्ठ! आनन्द ने परामर्श दिया−”वहाँ जाने की अपेक्षा यदि राजगृह की परिव्रज्या की जाये तो यह उत्तम रहेगा। अभी संघ का संक्रान्ति काल है जब तक जड़े सुदृढ़ नहीं हो जातीं, संघ−शक्ति समर्थ नहीं हो जाती तब तक संघर्ष की नीति उचित नहीं हैं।”
तात! तुम्हारा कथन ठीक है, तथागत ने समाधान किया−किन्तु युग प्रवर्त्तक के लिए परिस्थितियों से समझौता करने की नीति भी अनुचित है। सिद्धान्त के प्रति अटूट निष्ठा व्यक्त किये बिना प्रामाणिकता सिद्ध नहीं की जा सकती। अस्तु विवाद की चिन्तां किये बिना श्रावस्ती में ही आयोजन रखा जाना ठीक है।
तथागत श्रावस्ती पधार रहे हैं, यह संवाद सर्वत्र फैलते देर न लगी। प्रतिक्रियावादी तत्वों ने यह सुना तो उन्होंने अपना नया मोर्चा खड़ा कर दिया। अश्वलायन के नेतृत्व में कट्टरपंथी ब्राह्मणों ने बुद्ध से शास्त्रार्थ की रूपरेखा बनाई और नियत समय पर वे तथागत के समक्ष आ धमके और उनकी भर्त्सना करते हुए पूछा−‘‘भन्ते! आप चारों वर्णों के उद्धार की बात किस आधार पर करते हैं? क्या ब्राह्मणों के अतिरिक्त धर्म दीक्षा का अधिकार और भी किसी को है।”
तथागत मुस्कराये−उन्होंने स्नेहपूर्वक प्रश्न किया−तात! क्या आप बता सकते हैं कि ब्राह्मणों की सर्वोपरिता का आधार क्या हैं?
अश्वलायन ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया−उनका ज्ञान,तप, साधना, ब्रह्मवर्चस् और निर्लोभ निरहंकारिता।
आप सच कह रहे हैं आचार्य प्रवर! भगवान् बुद्ध ने अब और अधिक गम्भीरता धारण करते हुए प्रश्न किया−”क्या आप इस बात की पुष्टि करेंगे कि ब्राह्मण चोरी नहीं करते, झूठ नहीं बोलते, व्यभिचार और दूसरी सामाजिक बुराइयाँ वे नहीं करते?”
मेरा यह तात्पर्य नहीं है भन्ते! यह अवगुण तो ब्राह्मण में भी होते हैं, किन्तु उनमें धार्मिक संस्कारों की बहुलता रहती है इसलिए वे श्रेष्ठ हैं− अश्वलायन ने अपने प्रतिपादन में दृढ़ रहने की चेष्टा की।
किन्तु तभी तथागत ने तूणीर से दूसरा बाण निकाला और यों सन्धान किया− तब फिर आपका कथन यह होना चाहिए कि उक्त अपराध करने पर ब्राह्मण नरक नहीं जायेंगे अर्थात् पतित नहीं होंगे जबकि दुष्कर्म करने के कारण अन्य वर्ग पतित समझे जाते हैं।
गौतम बुद्ध ने हँसते हुए कहा−‘‘ब्राह्मण श्रेष्ठ अश्वलायन! जिस तरह दुष्कर्म का दण्ड भुगतने के लिए हर प्राणी प्रकृति का दास है, उसी तरह सत्कार्य के पारितोषिक का भी अधिकार हर प्राणी को है फिर वह चाहे किसी भी वर्ण का हो। न तो उपनयन धारण करने से कोई संत और सज्जन हो सकता है न अग्निहोत्र से−यदि मन स्वच्छ है, अन्तःकरण पवित्र है तो ही व्यक्ति संत, सज्जन, त्यागी, तपस्वी और उदार हो सकता हैं। यह उत्तराधिकार नहीं साधना है अश्वलायन। इसलिए आत्मोन्नति का अधिकार हर प्राणी को है। इसीलिए हम मानव मात्र को आत्मोत्कर्ष, आत्म−शुद्धि की प्रेरणा और अवसर प्रदान करते हैं। सोचो यदि थोड़े से संत ब्राह्मण धरती को स्वर्ग बना सकते हैं तो हर व्यक्ति के अन्तःकरण में मुखरित ब्राह्मण सृष्टि को सुन्दर बना सकता है। यही तो ब्राह्मण के लिए अभीष्ट है अतएव यदि ब्राह्मण इन पुण्य प्रयत्नों में बाधा डालते हैं तो यह उनकी प्रतिगामिता नहीं हुई क्या?
अब अश्वलायन के पास कोई उत्तर न था, उन्होंने तथागत के आदर्श को न केवल मान्यता प्रदान की अपितु स्वयं धर्म चक्र प्रवर्तन के महान कार्य के सहायक बन गये।
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