उपनिषद् के ऋषि का अनुभव है कि आत्मा जिसे वरण करता है उसके सामने अपने रहस्यों को खोलकर रख देता है। इस उक्ति का निष्कर्ष यह है कि रहस्यों का उद्घाटन चेतना की गहराइयों से होता है। मानवी संसार की सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जब जितने अनुदान आवश्यक होते हैं उसी अनुपात से कोई अविज्ञात अपने अनुदान इस धरती पर उतारता रहता है। यह अवतरण जिनके माध्यमों से होता है वे सहज ही श्रेयाधिकारी बन जाते हैं।
वैज्ञानिक आविष्कारों का श्रेय यों उन्हें मिलता है जिनके द्वारा वे प्रकाश में आने योग्य बन सके। किन्तु यहाँ यह विचारणीय है कि क्या उसी एक व्यक्ति ने उस प्रक्रिया को सम्पन्न कर लिया? आविष्कर्त्ता जिस रूप में अपने प्रयोगों को प्रस्तुत कर सके हैं उसे प्रारम्भिक ही कहा जा सकता है। सर्वप्रथम प्रदर्शन के लिए जो आविष्कार प्रस्तुत किये गये वे कौतूहलवर्धक तो अवश्य थे, आशा और उत्साह उत्पन्न करने वाले भी, पर ऐसे नहीं थे जो लोकप्रिय हो सकें और सरलतापूर्वक सर्वसाधारण की आवश्यकता पूरी कर सकें। रेल, मोटर, टेलीफोन, हवाई जहाज आदि के जो नमूने पंजीकृत कराये गये थे, उनकी स्थिति ऐसी नहीं थी कि उन्हें सार्वजनिक प्रयोग के लिए प्रस्तुत किया जा सके यह स्थिति तो धीरे−धीरे बनी है उस विकास में न्यूनाधिक उतना ही मनोयोग और श्रम पीछे वालों में न्यूनाधिक उतना ही मनोयोग और श्रम पीछे वालों को भी लगाना पड़ा है जितना कि आविष्कर्त्ताओं को लगाना पड़ा था।
संसार के महान् आन्दोलन आरम्भिक रूप में बहुत छोटे थे उनके आरम्भिक स्वरूप को देखते हुए कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि कभी वे इतने सुविस्तृत बनेंगे और संसार की इतनी बड़ी सेवा कर सकेंगे। किन्तु अविज्ञात ने जहाँ उन आन्दोलनों को जन्म देने वाली प्रेरणा की निर्झरणी का उद्गम उभारा, किसी परिष्कृत व्यक्ति के माध्यम से उसे विकसित किया, साथ ही इतनी व्यवस्था और भी बनाई कि उस उत्पादन को अग्रगामी बनाने के लिए सहयोगियों की शृंखला बनती बढ़ती चली जाय। ईसा, बुद्ध, गाँधी आदि के महान आन्दोलनों का आरम्भ और अन्त−बीजारोपण और विस्तार देखते हुए लगता है, यह श्रेय−साधन किसी अविज्ञात के संकेतों पर चले और फले-फूले हैं।
जिन आविष्कर्त्ताओं को श्रेय मिला उन्हें सौभाग्यशाली कहा जा सकता है। गहरे मनोयोग के सत्परिणाम क्या हो सकते हैं इसका उदाहरण देने के लिए भी उनके नामों का उत्साहवर्धक ढंग से उल्लेख किया जा सकता है। गहराई में उतरने की प्रेरणा भी उस चर्चा से कितनों को ही मिलती है। पर यह भुला न दिया जाना चाहिए कि उन आविष्कारों, आरम्भों के रहस्य प्रकृति ही अपना अन्तराल खोलकर प्रकट करती हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि इस प्रकार के रहस्योद्घाटन हर किसी के सामने नहीं होते। प्रकृति की भी पात्रता परखनी पड़ती हैं। अनुदान और अनुग्रह भी मुफ्त में नहीं लूट जाते, उन्हें पाने के लिए भी उपयुक्त मनोभूमि तो उस श्रेयाधिकारी को ही विनिर्मित करनी पड़ती है।
आविष्कारों की चर्चा इतिहास पुस्तकों में जिस प्रकार होती है वह बहुत पीछे की स्थिति है। आरंभ कहाँ से होता है यह देखना हो तो पता चलेगा कि उन्हें आवश्यक प्रकाश और संकेत अनायास ही मिला था। इनमें उनकी पूर्ण तैयारी नहीं के बराबर थी। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो यह भी कह सकते हैं कि उन पर इलहाम जैसा उतरा और कुछ बड़ा कर गुजरने के लिए आवश्यक मार्गदर्शन देकर चला गया। संकेतों को समझने और निर्दिष्ट पथ पर मनोयोगपूर्वक चल पड़ने के लिए तो उन आविष्कर्त्ताओं की प्रतिभा को सराहना ही पड़ेगा।
बात लगभग दो हजार वर्ष पुरानी है। एशियामाइनर के कुछ गड़रिये पहाड़ी पर भेड़ें चरा रहे थे। उनकी लाठियों के पेंदे में लोहे की कीलें जड़ी थीं। उधर से गुजरने पर गड़रियों ने देखा कि लाठी पत्थरों से चिपकती है और जोर लगाने पर ही छूटती है। पहले तो इसे भूत-प्रेत समझा गया फिर पीछे खोजबीन करने से चुम्बक का ज्ञान हुआ। चुम्बक का विज्ञान यहीं से आरम्भ हुआ। आज तो चुम्बक एक बहुत बड़ी शक्ति की भूमिका निभा रहा है।
ये गड़रिये चुम्बक का आविष्कार करने का उद्देश्य लेकर नहीं निकले थे और न उनमें इस प्रकार के तथ्यों को ढूँढ़ निकालने और विश्वव्यापी उपयोग के लायक किसी महत्वपूर्ण शक्ति को प्रस्तुत कर सकने का क्षमता ही थी।
न्यूटन ने देखा कि पेड़ से टूट कर सेब का फल जमीन पर गिरा। यह दृश्य देखते सभी रहते हैं, पर न्यूटन ने उस क्रिया पर विशेष ध्यान दिया और माथा−पच्ची की कि फल नीचे ही क्यों गिरा, ऊपर क्यों नहीं गया? सोचते-सोचते उसने पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का पता लगाया और पीछे सिद्ध किया कि ग्रह-नक्षत्रों को यह गुरुत्वाकर्षण ही परस्पर बाँधे हुए हैं। इस सिद्धान्त के उपलब्ध होने पर ग्रह विज्ञान की अनेक प्रक्रियाएँ समझ सकना सरल हो गया।
पेड़ से फल न्यूटन से पहले किसी के सामने न गिरा हो ऐसी बात नहीं है। असंख्यों ने यह क्रम इन्हीं आँखों से देखा होगा पर किसी अविज्ञात ने अकारण ही उसके कान में गुरुत्वाकर्षण की सम्भावना कह दी और उसने संकेत की पूँछ मजबूती से पकड़ कर श्रेय प्राप्त कराने वाली नदी पार कर ली।
अब से 300 वर्ष पुरानी बात है। हालैंड का चश्मे बेचने वाला ऐसे ही दो लैंसों को एक के ऊपर एक रखकर उलट−पुलट का कौतुक कर रहा था दोनों शीशों को संयुक्त करके आँख के आगे रखा तो विचित्र बात सी दिखाई पड़ी। उसको गिरजा बहुत निकट लगा और उस पर की गई नक्कासी बिल्कुल स्पष्ट दीखने लगी। दूरबीन का सिद्धान्त इसी घटना से हाथ लगा और अब अनेक प्रकार के छोटे-बड़े दूरबीन विज्ञान की शोधों में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।
चश्मे बेचना एक बात है और दूरबीन दूसरी। दोनों के बीच सिद्धान्त और व्यवहार का कोई सीधा तालमेल नहीं है। फिर भी संकेत देने के लिए इस संगति भर से काम चल गया। प्रकृति ने एक रहस्य उसके ऊपर उड़ेल ही दिया।
अभी पूरे सौ वर्ष भी नहीं हुए सन् 1895 की बात है। प्रो0 राब्टजन अपनी प्रयोगशाला में एक हवा रहित काँच की नली में होकर विद्युत−प्रवाह छोड़ने सम्बन्धी प्रयोग कर रहे थे। संयोगवश उसी कमरे में अन्यत्र फोटोग्राफी प्लेटें बन्द बक्से में रखी थीं। प्लेटें जब काम में लायी गई तो उन पर प्रयोग समय के दृश्य अंकित पाये गये। बन्द बक्से में घटना चित्र कैसे पहुँचे इस खोज से “एक्स−रे” का आविष्कार हो गया। सभी जानते हैं कि आज रोगों के निदान और सर्जरी में एक्स किरणों की सहायता से उतारे जाने वाले चित्रों का कितना अधिक योगदान है।
‘एक्स रे’ के आविष्कार का श्रेय जिस व्यक्ति को मिला उसे सौभाग्यशाली कहने में हर्ज नहीं, पर प्रयोगशाला में ऐसा सुयोग जान-बूझ कर नहीं बनाया था। उस संयोग के पीछे कोई अविज्ञात ही काम कर रहा होगा। अन्यथा ऐसे−ऐसे संयोग आये दिन न जाने कितने सर्वसाधारण के सामने आते रहते हैं। उनकी ओर ध्यान जाने का कोई कारण भी नहीं होता।
बात आविष्कारों की हो या आन्दोलनों की, श्रेय साधनों का शुभारम्भ ‘अविज्ञात’ की प्रेरणा से होता है। इस अविज्ञात को ब्रह्म कहा जाय या प्रकृति इस पर बहस करने की आवश्यकता नहीं। श्रेय लक्ष्य है। प्रगति अभीष्ट है। वह आत्मा के, परमात्मा के, उद्गम से आविर्भूत होता है। एक सहयोगी शृंखला का परिपोषण पाकर विकसित होता है। यश किसे मिले यह सामान्य साधारण और उथली बात है। उद्गमस्रोत किसी गहराई से उगता, उठता और सफल सुविकसित होता है। श्रेयाधिकारी अपनी पवित्रता भर विकसित करते और उसके बदले यशस्वी बनते हैं।
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