सृष्टि के लाखों जीव-जन्तुओं में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसे बहुत लम्बे समय तक पराश्रित रहना पड़ता है। अनुभव और निष्कर्षों की दृष्टि से तो वह आजीवन परावलम्बी ही रहता है, पर खान-पान जैसे सामान्य जीवन व्यवहार के लिए भी उसे बहुत दिनों तक माता-पिता की सेवाओं की आवश्यकता रहती है। कुत्तों और बिल्लियों के बच्चे जन्म लेते ही माँ का दूध आप ढूँढ़ लेते हैं, मनुष्य के बच्चे की माँ स्वयं मुँह में स्तन न डाले तो बेचारा भूखों मर जाये। चलना-फिरना, टट्टी, पेशाब और भोजन की अपनी सुविधाएँ अन्य जीव जल्दी ही विकसित कर लेते हैं, पर मनुष्य के बच्चे को लम्बी अवधि तक इनके लिए भी पराश्रित रहना पड़ता है। मनुष्य इस तरह एक प्रशिक्षणशील प्राणी-ढाला जाने वाला प्राणी है। अभिभावक अपने इस दायित्व को भली प्रकार समझकर ही अच्छी तरह निभा सकते हैं।
यदि आने वाली पीढ़ी को पैदा करने का तो ध्यान रहे उसे नियम, व्यवस्था, अनुशासन, रीति-नीति और सामाजिक मर्यादाओं का प्रशिक्षण न मिले तो उसकी रचनात्मक प्रवृत्तियों का बहक जाना नितान्त स्वाभाविक है। मनुष्य जिस मिट्टी का बना है उसमें स्वभावतः अधोमुखी प्रवृत्ति अधिक ऊर्ध्वगामी चिन्तन और कर्तृत्व कम ही है। खुला छोड़ने का ही परिणाम है कि वर्तमान पीढ़ी असभ्य, उद्दण्ड और उच्छृंखल होती चली जा रही है। अनेक ऐसे उदाहरण हैं जब हम जंगली जानवरों को यहाँ तक कि खूँखार जन्तुओं को भी प्रशिक्षित कर उन्हें मनोरंजक सहिष्णु और उपयोगी बना लेते हैं तो मनुष्य तो गीली मिट्टी का बना है उसे तो किसी भी इच्छित दिशा में मोड़ा, सजाया-सँवारा जा सकता है।
पश्चिमी आस्ट्रेलिया में विल्मा नाम की एक महिला ने पशु उद्यान बनाया है इसमें 6 कंगारू भी हैं इन्हें जिस काम से भोजन पाने की व्यवस्था कर दी गई है ये उसी क्रम में गृह स्वामिनी का दरवाजा खटखटाते हैं और अपनी बारी का भोजन पाकर प्रसन्न हो जाते हैं।
जंगली बतख अपने मालिक से इतना प्यार करने लगती हैं कि उन्हें कोई और पुकारता रहे तो वह उधर कान भी न करेंगी, किन्तु यदि उनका मालिक पुकारे तो वह दौड़कर वहाँ पहुँच जाती हैं। इसी तरह घर के बच्चों में भी समय पर न केवल भोजन अपितु प्रत्येक काम समय पर डालने की प्रवृत्ति डाली जा सकती है। हमें शिकायत रहती है कि बच्चे माँ-बाप का कहना नहीं मानते, पड़ोसियों के बहकावे में आ जाते हैं, यदि उन पर अपना प्यार भरपूर रहे उनका कल्याण सच्चे मन से चाहें तो बच्चे आजीवन माता-पिता के होकर रह सकते हैं।
वैज्ञानिक डॉ0 कैलाग, डॉ0 हेगे, डॉ0 निवाड़ा विश्वविद्यालय अमेरिका के गार्डनर दंपत्ति ने चिंपैंजिओं को मानवीय प्रकृति में ढालने के लम्बे अर्से तक प्रयोग किये। इस प्रशिक्षण से उनमें मनुष्यों की तरह रहने, खाने, कपड़े पहनने की आश्चर्यजनक प्रवृत्ति का विकास हुआ। बोलने में पूरी सफलता तो शायद इसलिए न मिल पाई कि उनकी शारीरिक संरचना मनुष्य से भिन्न कोटि की होती है, पर सतत् अभ्यास से यह चिंपैंजी मामा, पापा, अप, कम, गिव मी ड्रिंक, प्लीज, खोला (ओपेन) फूड (खाना) वाटर (पानी) आदि 30 शब्द तक यह थोड़े ही प्रयास से सीख गये।
1613 में मास्को (रूस) की श्रीमती कोत्ज, 1668 में अमेरिका के क्लार्क नामक एक व्यक्ति ने ओरेंग जाति के बन्दरों और चिंपैंजिओं को पेंटिंग सिखाई। कुछ ही समय के प्रशिक्षण से वह कुर्सी में बैठकर विधिवत् पेंटिंग का अभ्यास करने लगे। क्लार्क ने सन् 1671 ओक्लहोम की पेंटिंग प्रतियोगिता में तो अपने बन्दर जिम को विधिवत भाग दिला था, जिसमें अच्छी पेंटिंग के लिए 5 हजार डालर का पुरस्कार भी मिला।
वाणी विहीन, साधन विहीन जीव-जन्तुओं में भी जब सूक्ष्म ग्रहणशीलता का अभाव नहीं तो मनुष्य के बच्चों में प्रतिभा की कमी की कल्पना करना न्यायोचित नहीं। यदि अपने दायित्वों का निर्वाह माता-पिता परिवार वाले पूरी निष्ठा, पूरे मन से करें तो हर घर में इंजीनियर, वैज्ञानिक, कलाकार, साहित्यकार जो भी कुछ हम चाहते हैं वह सब हो सकते हैं। खुला छोड़ देने से तो बालू क्या सीमेंट की दीवारें भी ढह जाती हैं, पर यदि प्रयत्नपूर्वक उठाया जाये तो मिट्टी से भी मजबूत दीवार खड़ी की जा सकती है।
प्रशिक्षण मिलने पर कुत्ते मनुष्य की अनेक प्रकार की सेवाएँ करते हैं। बाणभट्ट ने लिखा है कि तत्कालीन भारतीय शासक युद्धों में कुत्तों का प्रयोग करते थे। ईसा से पूर्व 101 सन् में ट्यूटन्स ने कुत्तों की सहायता से ही रोमन सेना पर आक्रमण किया और विजय पाई। द्वितीय महायुद्ध में जर्मनी ने इस कार्य के लिए 2 लाख कुत्ते प्रशिक्षित किये। नैपोलियन की अपनी विजय में कुत्तों का बड़ा योगदान रहा है। 1604 में रूस, जापान के युद्ध में भी कुत्तों ने महत्वपूर्ण भूमिका निबाही। मलय देश के शासकों ने पिछले दिनों अफ्रीका के माऊ-माऊ के विरुद्ध तथा भारत पाक युद्ध के समय भारतीय सेना के कुत्तों ने भारी योगदान दिया। यह कुत्ते जासूसी के लिए अत्यन्त निष्णात पाये गये। अपनी गन्ध से अपराधी तथा दुश्मन का पता लगा लेना इनके लिए बहुत सरल होता है।
कुत्तों की तरह घोड़े व खच्चर भी सेना के बहुत महत्वपूर्ण अंग है। प्रशिक्षित घोड़ों तथा खच्चरों के कारनामों में बड़े आश्चर्यजनक होते हैं। अपने स्वामी को सकुशल बचा ले जाने में। दुश्मन पर प्रहार तथा छिपकर घात लगाने में वे अत्यन्त कुशल होते हैं। पहाड़ी युद्ध तो लड़ा ही खच्चरों के बल पर जाता है। हवाई आक्रमण के समय खच्चर मोर्टार तोपों सहित इस तरह दुबक कर छिप जाते हैं कि दूरबीन लगे जहाज भी इन्हें पहचान नहीं पाते। जर्मनी का चतुर हैन्स घोड़ा तो जोड़, बाकी, गुणा, भाग तक लगा लेता है। यह कार्य खुर से खट-खट की साँकेतिक भाषा में करता है, वैज्ञानिकों ने भी इसकी जाँच की और उसकी अद्भुत बौद्धिक क्षमता व दक्षता पर आश्चर्य प्रकट किया है। मनुष्य का कौशल और उसकी दक्षता तो बहुत ही उच्च श्रेणी की हो सकती है यहाँ कार्तिकेय जैसे सेनापति, नागार्जुन जैसे रसायनज्ञ, आर्यभट्ट जैसे गणितज्ञ और बाराहमिहिर जैसे ज्योतिषाचार्य घर-घर पैदा हो सकते हैं, पर यह सब तभी संभव है जब प्रशिक्षण पूर्ण मनोयोग भावना, तत्परता और कोई लक्ष्य बनाकर दिया जाये।
हैम्बर्ग चिड़िया घर के एक चिंपैंजी में ऐसी आकांक्षाएँ पायी गई कि उसमें मनुष्य की- सी जिज्ञासाएँ हैं। वह मनुष्यों के क्रिया-कलाप विशेष कर साइकिल चलाने की क्रिया को बड़ी तन्मयता से देखता। चिड़ियाघर के अधिकारियों ने उसके लिए उसे छोटे पहियों वाली एक साइकिल मँगा दी। उसे बैठाना और पैडल मारना सिखाया गया। थोड़ी देर के अभ्यास से ही चिंपैंजी पैडल मारने लगा और अब वह अपनी गैलरी में बखूबी साइकिल चलाकर दर्शकों को मनोरंजन करता है। उसकी बुद्धि कौशल का इससे भी उन्नत उदाहरण तब देखने में आया जब उसकी गैलरी में केलों का एक गुच्छा लटका दिया गया। चिंपैंजी कुछ देर तक उछल-उछलकर उसे पकड़ने का प्रयत्न करता रहा, पर जब गुच्छा हाथ न लगा तो कोठरी में पड़े एक लकड़ी के बक्से को उठाकर गुच्छे के नीचे रखा और उसके ऊपर खड़ा होकर गुच्छे को पकड़ने का प्रयास किया। इस पर भी गुच्छे तक हाथ नहीं पहुँचा, कुछ देर सोचने के बाद उसने क्रमशः दूसरा और तीसरा बक्सा रखा और अन्ततः गुच्छा पाने में सफलता प्राप्त कर ली।
मनुष्यों के सामने कई ऐसे लक्ष्य हैं जिन्हें समझने में ही असामान्य सूक्ष्म बुद्धि चाहिए। बुद्धि ही नहीं प्रौढ़ और परिपक्व चिन्तन चाहिए। वह हिम्मत और मनोबल भी चाहिए जो उसे इस कठिन साधना से विचलित होने और आकर्षणों से बचाने में सहायक हो, मनुष्य जीवन के रहस्यों, आत्मा पर पड़े हुए पर्दे, सृष्टि रचना का आधार और उसकी नियम व्यवस्था जानना सभी कुछ सम्भव है, पर इस दिशा में मिलने वाला संरक्षण और मार्गदर्शन उतना ही प्रौढ़, सूक्ष्म, सम्वेदनशील और कल्याण की भावना से ओत-प्रोत होना चाहिए। इन जीवों में ऐसी अकल्पित क्षमताएँ हो सकती हैं तो मनुष्य की विवेचन शक्ति का तो कहना ही क्या? पर उसका विकास स्वतः कभी-कभी ही हो सकता है अधिकांश में प्रशिक्षण आवश्यक होता है। वातावरण आवश्यक होता है, जिसकी व्यवस्था बड़ों को ही करनी पड़ती है।
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