रजत जयन्ती वर्ष के कुछ महान कार्यक्रम

August 1978

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युग-निर्माण योजना का वर्तमान रजत जयन्ती वर्ष हर्षोत्सवों के, खुशी बधाइयों के, धन्यवाद अभिनन्दनों के रूप में नहीं मनाया जायगा। वरन् उसमें कुछ ऐसे ठोस कदम उठाये जायेंगे जिनके आधार पर नवयुग के अवतरण की गति में तीव्रता आ कसके। योद्धाओं को रणभूमि में फाग खेलने और शिल्पियों को सृजन चुनौती को स्वीकार करने के लिए अपना कौशल दिखाने में ही आनन्द आता हैं। जागृत आत्माओं का हर्षोत्सव तो सृजन कार्यों में भाव भरे अनुदान प्रस्तुत करने के रूप में ही बन सकता है। रजत जयन्ती ऐसे ही उद्बोधन और आमन्त्रण साथ लेकर अपना आलोक बिखेरती चली आ रही है।

इस वर्ष जो विशेष रचनात्मक कार्य हम सबको मिल जुलकर करने हैं उनकी पंच सूत्री योजना का संकेत पिछले अंक में दिया जा चुका है।

1- संख्या में थोड़े किन्तु प्रभाव की दृष्टि से अत्यन्त ज्योतिर्वान युग-निर्माण सम्मेलनों का आयोजन। यह 25 कुण्डी गायत्री यज्ञों के रूप में क्षेत्रीय परिधि बनाकर किये जायेंगे। योजना इस प्रकार की है कि संख्या की दृष्टि से कम रहते हुए भी इनका दूरगामी और चिरस्थायी प्रभाव सम्भव हो सकेगा।

2- ‘युग-शक्ति गायत्री’ मासिक पत्रिका को दस भाषाओं में प्रकाशित करने का दुस्साहस जैसा कदम उठाया जा रहा है। नव-निर्माण जिस सामर्थ्य के बलबूते सम्भव हो सकेगा उसे आत्म-शक्ति ही कहा जा सकता है। अध्यात्म ज्ञान-विज्ञान का बीज तत्व गायत्री विद्या में केन्द्रित इसका तत्वज्ञान, साधना विधान और युग परिवर्तन के लिए प्रयोग विनियोग का त्रिविधि शिक्षण इस नवीन पत्रिका द्वारा भली प्रकार सम्भव हो सकेगा। युग-निर्माण योजना मासिकों का नाम युग-शक्ति गायत्री बदल दिया गया है और अन्यान्य भाषाओं में इसी नाम से नई पत्रिकाएँ प्रकाशित की जा रही हैं। भाषाई सीमा बन्धन की खाई को पीटते हुए इस प्रयास के आधार पर युग-चेता को देश-व्यापी, विश्व-व्यापी बनाया जा सकेगा। इन पत्रिकाओं में कीर्तिमान स्थापित किया जा रहा है। (1) पंजाबी (2) बंगाली (3) आसामी (4) अंग्रेजी (5) कन्नड़ (6) तेलगू में नई पत्रिकाएँ प्रकाशित होने जा रही हैं (7) हिन्दी (8) गुजराती (9) मराठी (10) उड़िया में इन पत्रिकाओं का प्रकाशन पहले से ही चला आ रहा है उनमें तो नाम भर बदला गया है।

3- तीसरा चरण है भारत की महान् सांस्कृतिक परम्परा ‘प्रव्रज्या’ का पुनर्जीवन। तीर्थयात्रा के नाम से धर्म प्रचार की पदयात्रा प्राचीन काल में अतीव लोकप्रिय रही है और उसे धर्मानुष्ठानों में अग्रणी माना गया है। जन-मानस में धर्म चेतना बनाये रखने के लिए प्राणवान परिव्राजक अपनी टोली मण्डलियों के साथ परिभ्रमण के लिए निकलते थे और बादलों की तरह बरसते शुष्क जन मानस में भाव भरी धर्म चेतना को सुरम्य हरियाली की तरह उगाते थे।

आज इस पुण्य परम्परा का ध्वंसावशेष मात्र शेष है। पर्यटन का नाम ही तीर्थयात्रा बन गया है। यात्री को प्रवास विनोद का, वाहनों और दुकानों को अर्थोपार्जन का, धर्म व्यवसायियों को आजीविका का लाभ तो मिलता है, पर उस महान् प्रक्रिया की पूर्ति किसी भी प्रकार नहीं होती, जिसे धर्म प्रचार की पदयात्रा का रूप देते हुए दूरदर्शी महामनीषियों ने प्रारम्भ किया था।

समय की आवश्यकता यह है कि उस महान् परम्परा को पुनर्जीवन दिया जाय। प्राणवान परिव्राजक तैयार किये जायें और जन जागरण के लिए प्रव्रज्या को जीवन्त अभियान का रूप दिया जाय।

रजत जयन्ती वर्ष के यह तीन संकल्प ही प्रधान हैं। यों गत वर्ष के ज्ञानरथ, जन्म-दिवस, प्रज्ञा मन्दिर, टोली संगठन और वर्ष में पाँच धर्मानुष्ठानों का ज्ञान यज्ञ के रूप में उपयोग यह पाँच कार्य भी ऐसे हैं जिनका आरम्भ तो पुनर्गठन वर्ष में किया गया था, पर परिपोषण आगे भी चलते रहना है। इन पाँचों कार्यक्रमों को अधिकाधिक प्रखर और व्यापक बनाना भी इस वर्ष का एक काम है। पिछले वृक्षारोपण को सींचना भी उतना ही महत्वपूर्ण कार्य है जितना नये पौधे लगाना।

जिन्हें नवयुग की चेतना उत्पन्न करने में अपने उत्तरदायित्वों का भान है वे सभी इन दिनों सेतुबन्ध बाँधने वाले रीछ, वानरों की सृजन सेना में अपनी भाव भरी भूमिका प्रस्तुत कर रहे हैं। रजत जयन्ती वर्ष उनके लिए चुनौती जैसा है जिसमें अधिक कुछ कर गुजरने के लिए आह्वान किया जा रहा है, आमन्त्रण दिया जा रहा है। जीवन जहाँ भी होगा वहाँ उपयुक्त अवसर पर उपयुक्त भूमिका निभाने में उपेक्षा बरत सकना सम्भव ही न हो सकेगा। इन दिनों समूचे परिवार में नव-जीवन का उभार प्रत्यक्ष परिलक्षित हो रहा है और समय की माँग को पूरा करने में प्रायः सभी अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार जुटे हुए हैं।

‘युग-शक्ति गायत्री’ की सदस्य संख्या इन्हीं दिनों बढ़ाने के लिए कहा गया है। जुलाई अंक छप गया है। कलेवर, मूल्य और लेख सामग्री की सृष्टि से पत्रिकाएँ अनुपम मानी गई हैं। जिनने उन्हें देखा, पढ़ा है वे उत्साह से भर गये हैं और सदस्य संख्या बढ़ाने के लिए अपने सम्पर्क क्षेत्र में टोली बनाकर परिभ्रमण कर रहे हैं। जिस तेजी से इन पत्रिकाओं के सदस्य बन और बढ़ रहे हैं उसे देखते हुए लगता है उनकी ग्राहक संख्या 2,50,000 (ढाई लाख) तक पहुँच जाना पूरी तरह सम्भव हैं। जहाँ इस सन्दर्भ में शिथिलता बरती गई है वहाँ झकझोरने और आग्रह करने का क्रम चलाया गया है। आशा की गई है कि इस प्रयास से युग चेतना का आलोक सुविस्तृत क्षेत्र में फैलता चला जायगा।

अन्य भाषाओं के क्षेत्र में, अपरिचित क्षेत्र में प्रवेश पाना सचमुच ही बहुत कठिन हैं। इसे नये सिरे से किया गया नवीन प्रयास कह सकते हैं। इस कार्य में कन्धा देने के लिए उनसे कहा गया है जिनके सम्पर्क में अन्य भाषाओं के शिक्षित लोग आते हैं। उन्हें पत्रिकाएँ पढ़ने देना, वापिस लेना, अभिमत पूछना, परामर्श देना यदि क्रमबद्ध रूप से चल पड़ा तो निश्चय ही इस सम्पर्क प्रयास से अन्याय भाषाओं की पत्रिकाओं के इतने सदस्य बन जायेंगे कि उनका प्रकाशन सुनिश्चित रूप से होते रहने की कठिनाई पार कर ली जाय। इसके लिए उन क्षेत्रों के परिजनों से विशेष अनुरोध किया गया है जहाँ अन्य प्रान्तीय कर्मचारियों की विशेषता है। टाटा नगर, राँची, भिलाई, राउरकेला, दुर्गापुर, बरौनी, भोपाल जैसे नगरों में बड़े कारखाने हैं और उनमें देश के सभी प्रान्तों के शिक्षित लोग काम करते पाये जाते हैं। इनसे सम्पर्क बनाने और उनकी भाषा में छपे नये साहित्य का परिचय कराने की योजना जहाँ भी वर्तमान परिजन बना सकेंगे वहाँ सहज ही आशाजनक सफलता मिलती चली जायेगी। इन भाषाओं के प्रेस कर्मचारी, क्लर्क आदि की भी मथुरा में आवश्यकता पड़ेगी। उन भाषाओं में अनुवाद कर सकने वाले सुशिक्षितों का भी सहयोग लेना होगा। इसके लिए अपने वर्तमान परिजनों ने ही ढूंढ़, खोज शुरू कर दी है। इस आधार पर किये गये शुभारम्भ का परिणाम कुछ ही समय में ऐसा होगा कि हिन्दी की तरह ही अन्य भाषाई क्षेत्रों में भी नव जागरण का प्रकाश सुविस्तृत होता चला जायेगा।

तीसरा कार्य परिव्राजकों की सृजन सेना का गठन है। लेखनी वाणी के माध्यम से चल रहे विचार क्रान्ति अभियान को अब तक जो सफलता मिली है उसका श्रेय भी जन-सम्पर्क के रूप में चलने वाले प्रयासों को ही दिया जा सकता है। भावी प्रगति का मध्य बिन्दु भी इसी को माना जायेगा। बौद्ध कालीन विचार क्रान्ति की व्यापकता और सफलता का श्रेय उस मिशन के लिए समर्पित परिव्राजकों को ही दिया जा सकता है। उन्हीं के प्रयास से भारत, एशिया और समस्त संसार को धर्म चक्र प्रवर्तन के महान अभियान से लाभ लेने का अवसर मिला था। ज्ञान-यज्ञ की लाल मशाल भी उसी प्रक्रिया का उत्तरार्ध सम्पन्न कर रही है, अस्तु माध्यमों के सन्दर्भ में भी उसी प्रक्रिया का अनुकरण करना होगा। सुयोग्य परिव्राजकों का सुगठित परिवार ही घर-घर में पहुँच कर जन-जन के मन-मन में युग चेतना का संचार कर सकेगा। जन-जागरण का अलख जगाना प्राणवान परिव्राजकों के लिए ही सम्भव हो सकता है।

अपने मिशन की सामयिक आवश्यकताओं में से कितनी ही ऐसी हैं जिनकी पूर्ति इन्हीं दिनों की जानी चाहिए। (1) वर्तमान शाखा संगठनों में हर साल दस-पन्द्रह दिन के शिक्षण सत्र चलने चाहिए, जिससे दूरवर्ती परिजनों को हरिद्वार पहुँच कर लाभ लेने का आंशिक लाभ अपने स्थान पर ही मिल सके (2) इस वर्ष सम्मेलन आयोजन संख्या की दृष्टि से तो थोड़े ही हैं, पर उनके साथ जुड़े हुए उत्तरदायित्व अनेक हैं और भारी भी। उन्हें ठीक तरह सम्पन्न करने के लिए सहयोग और परामर्श देते रहने के लिए उपयुक्त व्यक्ति वहाँ पहुँचने चाहिए, यह दोनों ही कार्य सामयिक आवश्यकता की दृष्टि से अतीव महत्वपूर्ण हैं इनकी पूर्ति अनुभवी परिव्राजकों से ही हो सकती है।

3- हिंदी की परिधि में सीमाबद्ध अपने मिशन को देशव्यापी बनाया जाना है। भाषाई खाइयों को पाटने के लिए अन्य भाषाओं में साहित्य प्रकाशन तो आरम्भ कर दिया गया है, पर उन क्षेत्रों के जन-समुदाय के सम्पर्क साधे बिना यह प्रयास न तो आगे बढ़ सकेगा और न आशा के अनुरूप सफल हो सकेगा। बौद्ध परिव्राजकों ने देशों और भाषाओं की सीमा पार करके एशिया ही नहीं अन्य भू-खण्डों में अपने खेमे गाड़े थे और वहाँ उस आलोक से स्थानीय जन-समाज को प्रभावित किया था। पश्चिमी देशों के ईसाई मिशनरी अभी भी संसार के कोने-कोने में पहुँचते और अपने धर्म का प्रकाश अपरिचित क्षेत्रों में फैलाते हैं। अपने पास उसी स्तर के प्राणवान परिव्राजक हों तो ही युग सन्देश का उद्बोधन विश्व-व्यापी बनाया जाना सम्भव हो सकता है।

4- प्रवासी भारतीयों की भाव भरी माँग रहती है कि उनकी सांस्कृतिक निष्ठा बनाये रहने के लिए भारत के धर्मनिष्ठ मार्ग-दर्शकों की महती आवश्यकता है। इसकी पूर्ति उनकी सांस्कृतिक मातृभूमि को करनी चाहिए। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि इस माँग को पूरा करने के लिए आज तक कोई ठोस प्रयास न हो सका। धर्म और योग पर लेक्चर झाड़ कर इन प्रवासियों की धर्म श्रद्धा का दोहन करने वाले लुटेरे तो निरन्तर पहुँचते रहते हैं। और जीभ की कलाबाजी दिखाकर-आश्रमों और संस्थाओं के नाम पर धन बटोर लाते है। मुद्दतों से ही सिलसिला चल रहा है। प्रवासी भारतीय इस स्थिति में खीजे, झल्लाये और निराश बने दीखते हैं। वे स्थायी निवास करने वाले निस्पृह लोकसेवियों और साथी मार्ग-दर्शकों की अपेक्षा करते हैं। लुटेरे सैलानियों बकवासियों के प्रति तो अब उनकी श्रद्धा प्रायः समाप्त जैसी हो चली है वे उनका चोगाचोचला देखते ही वस्तुस्थिति तो ताड़ जाते हैं और उपेक्षा भरा व्यवहार करते हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए मात्र प्राणवान परिव्राजक ही समर्थ हो सकते हैं।

यह चार काम तो ऐसे हैं जिन्हें युग-निर्माण मिशन की तात्कालिक आवश्यकता कह सकते हैं। ऐसे तो शाश्वत और सुविस्तृत कार्य, लोक-जागरण का ही है उसके लिए तीर्थयात्रा की टोली, मण्डली बनाकर प्रव्रज्या करने की विधा पूर्वकाल के सन्त ब्राह्मणों की तरह अपनाई ही जानी चाहिए। उसके लिए देश के 8 लाख गाँवों में बसी हुई 60 करोड़ जनता के साथ भाव भरे सम्बन्ध मिलाना और उन्हें उज्ज्वल भविष्य के अनुरूप ढालने के लिए मार्गदर्शन एवं सहयोग देना नितान्त आवश्यक है। यह सनातन धर्म परम्परा तो ऐसी है जिसका पुनर्जीवन-पुनर्गठन किया ही जाना चाहिए। इस पुण्यपरम्परा को प्राणवान बनाने में धर्म धारण के लिए समर्पित परिव्राजकों के अतिरिक्त और कोई कर ही नहीं सकता। इसी में साधु और ब्राह्मण परम्परा का सन्तुलित समन्वय भर है।

‘‘टूटे को बनाना और रूठे को मनाना’’ यह रचनात्मक दूरदर्शिता का तकाजा है। अतीत का गुणगान करते रहने या कोसते रहने से कुछ काम नहीं चलेगा, हमें बिगड़ी को बनाने ओर सोये को जगाने में बिना समय गँवाये जुट जाना पड़ेगा। इस सन्दर्भ में तीर्थयात्रा की प्रव्रज्या में नव-जीवन का संचार करना आवश्यक है। रजत जयन्ती वर्ष में प्रधानतया इसी कार्य को हाथ में लिया गया है और युग-निर्माण परिवार की सभी जागृत आत्माओं का आह्वान किया गया है कि उनमें से जिनकी भी स्थिति प्रव्रज्या अभियान में, जिस भी रूप में सम्मिलित होने की हो, वे उस संदर्भ में पत्र-व्यवहार कर लें और भावी कार्य-पद्धति की सुनिश्चित रूपरेखा बनालें। तदनुरूप मिल-जुलकर काम करना और निश्चित लक्ष्य की दिशा में क्रमबद्ध रूप से बढ़ सकना सम्भव हो सके।

1 सितम्बर से 30 सितम्बर तक एक महीने का प्रव्रज्या प्रशिक्षण सत्र शान्ति-कुंज में चलेगा। जिन्हें इस अभियान में सम्मिलित होने की अपनी योग्यता एवं परिस्थिति दिखाई पड़ती हो वे उस प्रशिक्षण में सम्मिलित होने का आवेदन पत्र भेजें और आने से पूर्व स्वीकृति प्राप्त करलें। जो मात्र कौतूहलवश ही आना चाहते हैं जिनकी मनःस्थिति या परिस्थिति अनुकूल नहीं है, वे अभी न आवें। इस सन्दर्भ की सामान्य जानकारी के सत्र भी जब कभी चलेंगे तब उन्हें आना चाहिए। अभी तो उन्हीं को बुलाया गया है जो रजत जयंती वर्ष में उत्साहवर्धक समय दान कर सकते हैं। कई आवश्यक प्रयोजनों के लिए जिन्हें अगले ही दिनों बाहर भेजना पड़ेगा। सितम्बर सत्र में तो प्रायः उन्हीं को प्राथमिकता दी जाती है। गत वर्ष वार्षिकोत्सवों में कितने ही समय दानियों ने अपना समय दिया था। इस वर्ष के अधिकांश कार्यक्रम दिवाली से लेकर होली की मध्यावधि में चार महीने तक चलेंगे। जो इस बार फिर गत वर्ष की तरह समय दे सकने की स्थिति में हों उन्हें भी प्रव्रज्या अभियान के अन्तर्गत पुनः आमन्त्रित किया जा रहा है। उन्हें भी सितम्बर सत्र में सम्मिलित होकर नई परिस्थितियों के अनुरूप-नई कार्य पद्धति को क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण प्राप्त कर लेना चाहिए।

जो बाहर जाने की स्थिति में नहीं है। अपने घरों पर रहकर समीपवर्ती क्षेत्रों में जन-सम्पर्क बनाने के लिए समय दान देते रहे हैं, देते रहेंगे। उनके लिए झोला पुस्तकालय, चल पुस्तकालय, दीवारों पर वाक्य लेखन, जोड़ीदार के साथ सम्पर्क साधन और शिथिलता को सक्रियता में परिणत करने के प्रयास, नई पत्रिकाओं के नये सदस्य बनाना, विचारगोष्ठियों, जन्मदिवस जैसे कार्यक्रमों में भाग लेकर धर्म प्रचार की पदयात्रा का कोई रूप अपनाकर तीर्थयात्रा उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ न कुछ करते रहना सम्भव हो सकता है।

सितम्बर सत्र में सम्मिलित होने वाले शिक्षार्थियों के लिए भोजन व्यय जमा करना अनिवार्य नहीं है। जो दे सकेंगे वे ही स्वेच्छा से जमा करेंगे। प्रव्रज्या पर निकलने के समय का भोजन, वस्त्र, मार्ग व्यय आदि का भार मिशन ही वहन करेगा। जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी है वे अपना खर्च भी कर सकेंगे, पर सामान्यतः यही सोचकर चला जा रहा है कि परिव्राजकों का निर्वाह व्यय वहन करने का उत्तरदायित्व मिशन को ही वहन करना है।

रजत जयन्ती वर्ष के कार्यक्रम यों सभी एक से एक बढ़कर महत्वपूर्ण हैं और उन सभी की युग अवतरण के भूमिका में असाधारण उपयोगिता है, पर परिव्राजकों के समर्थ धर्म शृंखला खड़ी कर देना और उसे कार्य क्षेत्र उतार देना तो इतना बड़ा काम है जिसकी तुलना किसी अन्य रचनात्मक कार्य से हो नहीं सकती।

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