आत्म प्रगति के आधारभूत साधन योग और तप

August 1978

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अध्यात्म विज्ञान की−ब्रह्म विद्या की दो धाराएं हैं। एक साधना, दूसरी उपासना। साधना का तात्पर्य है अपना चिन्तन उत्कृष्टता के और कर्तृत्व आदर्शवादिता के ढाँचे में ढालना। अनगढ़ जीवन को सुगढ़ बनाना। बैल, घोड़ा, रीछ, बानर, सर्प, सिंह जैसे पशुओं को सधा लेने से वे कितने उपयोगी सिद्ध होते हैं और पालने वालों का कितना हित साधन करते हैं यह स्पष्ट देखा जाता है। कुम्हार साधारण मिट्टी से कितने सुन्दर खिलौने बना देता है। मूर्तिकार पत्थर से देव प्रतिमा गढ़ता है। चित्रकार अपनी कला से सामान्य कागज को हृदयस्पर्शी चित्र का रूप देता है। माली का कौशल सामान्य वनस्पतियों को सुरम्य उद्यान में बदल देता है। शरीर की साधना करके पहलवान−मस्तिष्क की साधना करके विद्वान−श्रम साधना करके धनवान बनते रोज ही देखा जाता है। स्वर्णकार के हाथों में जाकर धातुखण्ड आभूषण के रूप में और सामान्य लोहा औजारों के रूप में परिणत होता है। मनुष्य की हाड़−मांस से बनी काया जीवन साधना के सहारे महामानव, मनीषी ऋषि, देवता एवं परमात्मा के रूप में विकसित हुई देखी जा सकती है। ‘साधन से सिद्ध’ की उक्ति इतिहास के पृष्ठों पर और वर्तमान के पर्यवेक्षण में हम पग−पग पर सार्थक होते देखते हैं।

स्वाध्याय, संयम, सेवा के अतिरिक्त जीवनोत्कर्ष का अति महत्वपूर्ण आधार साधना ही है। अस्त−व्यस्तता को, व्यवस्था में, अनुशासन में बदलने से अपने भीतर से ही ऐसा नया उभार, नया वर्चस् उत्पन्न होता है इसी को अप्रत्याशित दैवी अनुग्रह जैसा चमत्कार समझा जाने लगता है। आत्म चिन्तन द्वारा दोष दुर्गुणों को ढूँढ़ निकालना, आत्मसुधार द्वारा विकृतियों की जड़ें उखाड़ना, आत्म−निर्माण द्वारा सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव का अंग बनाना, आत्मविकास द्वारा आत्मीयता का क्षेत्र सुविस्तृत करते जाना, यही हैं वे चतुर्विधि प्रयोग जिनके सहारे जीवन जाना−यही हैं वे चतुर्विधि प्रयोग जिनके सहारे जीवन साधना सम्पन्न होती है इन्हीं आधारों को अपनाने से आत्मोत्कर्ष के लिए की गई योगाभ्यासी तपश्चर्याओं में उत्साहवर्धक सफलता मिलती है।

उपासना आत्मचेतना की प्रस्तुत क्षमताओं को उभारने का वैज्ञानिक प्रयोग है। रसायन शास्त्री विषैले पारे को अमृतोपम मकरध्वज बना देते हैं। वैज्ञानिक सामान्य रेत से प्रचण्ड अणुशक्ति का उद्भव करते हैं। सामान्य पानी और डिसिल्ड वाटर की उद्भव करते हैं। सामान्य पानी और डिसिल्ड वाटर की क्वालिटी में बड़ा अन्तर होता है। कच्चे लोहे को परिष्कृत करके बहुमूल्य फौलाद बनाया जाता है। इसी प्रकार साधना से व्यक्तित्व का असाधारण विकास होता है। फलतः उसमें अनेकानेक सफलताएं खींच बुलाने की सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है। वृक्षों का चुम्बकत्व आकाश में उड़ते हुए बादलों को खींच लेता है और उन्हें जल बरसाने के लिए विवश करता है। फूल जब खिलता तो भौंरे, मधुमक्खी, तितली, सभी उसका मनुहार करने आते हैं। प्रतिस्पर्धा में जीतने वालों को पुरस्कार मिलता है। अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने वाले छात्रवृत्ति प्राप्त करते हैं। वर्षा चाहे कितनी ही क्यों न होती रहे पल्ले उतना ही पड़ेगा जितना कि अपने बर्तन का घेरा हो। स्वाति वर्षा के जल से कुछ विशिष्ट सीपों में ही मोती उत्पन्न होते हैं, सब में नहीं। आत्म शोधन की धुलाई जितनी अच्छी तरह से हो सकेगी उतनी ही भगवद्भक्ति की साधना उपचारों की रंगाई का प्रभाव दिखाई देगा।

साधना के दो चरण हैं एक ‘योग‘ दूसरा ‘तप’। योग का अर्थ है अपने को लिप्सा और लालसा के भव−बन्धनों से मुक्त करके आदर्शवादिता के प्रति आत्मसमर्पण। ईश्वर को आत्मसमर्पण करना उसी प्रकार होता है जैसा कि नदी अपने आप को समुद्र में, ईंधन आग में और पतंग दीपक में अपनी सत्ता घुला देते हैं। अपनी भौतिक महत्वाकांक्षाओं को लालसा और लिप्साओं को पैरों तले रौंदकर ईश्वरीय संकेतों और आदर्शों का अनुसरण करने का साहस जुटाते हैं। योगी की यही मनःस्थिति होती है। आत्मसमर्पण का यही रूप है। ईश्वर के हाथों अपने जीवन की बागडोर सौंप कर सत्कर्मों, सद्-विचारों एवं सद्भावों को कार्यान्वित करने में जो संलग्न हैं वस्तुतः वही सच्चा भगवत् भक्त और सच्चा योगी है।

तप का अर्थ है तपाना। उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता अपनाने में जो कष्ट उठाने पड़ते हैं उन्हें साहस एवं प्रसन्नता के साथ आमन्त्रित एवं शिरोधार्य करना। ‘चरित्र निष्ठा’ की कसौटी और ‘समाज निष्ठा’ की अँगीठी पर हम अपने आपको तपाकर प्रामाणिकता सिद्ध करने वाले ‘तपस्वी’ ही ईश्वर के साथ अपने आपको जोड़ पाते हैं। जुड़ जाने का अर्थ है उसके आदेशों का अनुसरण करना, पतिव्रता को पति की इच्छानुकूल चलना पड़ता है। भक्त के लिए उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व के रूप में ईश्वरीय आदेशों के अनुरूप अपने दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप को ढालने का साहस जुटाना पड़ता है। इस साहसिकता को व्यवहार में उतारना ही तप साधन है।

ईश्वर के साथ अपने आपको जोड़ने में जीवन परिष्कार की साधना के अतिरिक्त अन्तःकरण में श्रद्धा तत्व विकसित करने के लिए उपासना का अवलम्ब न लेना पड़ता है। स्थूल शरीर की साधना कर्मयोग से सूक्ष्म शरीर की ज्ञान योग से सम्भव होती है। इसके लिए क्रिया कलाप और दृष्टिकोण में उत्कृष्टता का समावेश करना पड़ता है। जीवात्मा का तीसरा कलेवर ‘कारण’ शरीर है। उसका परिष्कार श्रद्धा के बीजारोपण एवं अभिवर्धन से ही हो सकता है। इसके लिए उपासना की प्रक्रिया अपनाई जाती है। ईश्वर और जीव को परस्पर जोड़ने का कार्य श्रद्धा के सहारे ही सम्भव होता है। आत्मिक पवित्रता एवं प्रखरता बढ़ाने के लिए उपासना को एक प्रकार से अनिवार्य आधार ही माना जाता रहा है। यह तीसरा आधार भक्ति योग है। ज्ञान कर्म और भक्ति का समन्वय होने से त्रिवेणी संगम बनता है। यही त्रिपदा गायत्री का स्वरूप एवं उद्देश्य है।

उपासना को नित्य कर्म में सम्मिलित रखने की शास्त्र मर्यादा है। ऋषियों ने इसे आवश्यक धर्म कर्तव्य माना है। वातावरण में घुमड़ती रहने वाली विकृतियों के अवांछनीय प्रभाव का परिशोधन करने के लिए उपासना द्वारा स्वच्छता व्यवस्था रखी जाती है और अन्तरात्मा का प्रवाह, परमशक्ति की समीपता तक पहुँचने की दिशा में बहता रहता है। ईश्वर के साथ गहरी घनिष्ठता उत्पन्न करने और उस सम्पर्क से सब प्रकार सुसम्पन्न बनने का अवसर मिलता है। समर्थ तत्वों में सर्वोपरि ईश्वर है। उपासना के आधार पर उसके साथ घनिष्ठता उत्पन्न कर लेना परम पुरुषार्थ है। इससे अधिक महत्वपूर्ण एवं लाभदायक दूसरा और कोई प्रयास हो ही नहीं सकता। जीवन को हर दृष्टि से समृद्ध, सशक्त एवं समुन्नत बनाने में ईश्वरीय अनुग्रह की जितनी उपयोगिता है उसकी तुलना और किसी सिद्धि एवं उपलब्धि के साथ हो नहीं सकती।

उपासना को बीज कहा जाय तो साधना को भूमि मानना पड़ेगा। उपासना के क्रिया कृत्यों में संकेत रूप में जीवन साधना का ही मार्गदर्शन है। उपासना को व्यायाम कहा जाय तो साधना को आहार-विहार की उपमा दी जायगी। उपासना उसी की फलित होती है जो उसे साधना के खाद पानी से सींचता है। उपासना को मनुष्य की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता है। इस आधार पर उस अनन्त जीवन−कर्म फल, उत्कृष्टता की सर्वोपरि सत्ता मर्यादा और अनुशासन की सृष्टि व्यवस्था समग्र पवित्रता जैसे महत्वपूर्ण तथ्यों पर आस्था बनी रहती है आत्मा को परमात्मा बनने के लिए उपासना से प्रेरणा मिलती है। ऐसे ही अनेक सत्परिणाम उपासना प्रक्रिया के साथ जुड़े हुए हैं और उसे आवश्यक धर्म कृत्य माना गया है।

इतने पर भी यह तथ्य सुनिश्चित है कि उपासना की प्रेरणा से अथवा स्वतन्त्र रूप से आध्यात्मिक प्रगति के पथिक को आत्म−शोधन एवं आत्म निर्माण की प्रचण्ड संकल्प शक्ति के साथ प्रखर चेष्टा करनी पड़ती है। अभ्यास न होने के कारण उस परिवर्तन में जो कठिनाई अनुभव होती है उसे प्रसन्नता और साहसिकता के साथ स्वीकार करना पड़ता है। इस प्रयत्नशीलता को शास्त्रकारों ने तपश्चर्या नाम दिया है। इसमें शरीर और मन की दिशा धाराओं को उत्कृष्टताओं के साथ जोड़ना पड़ता है। आत्म परिष्कार एवं आत्म विकास के लिए योग साधना की तरह, चिन्तन में उत्कृष्टता के समन्वय की तरह ही कर्म क्षेत्र में आदर्शवादिता को भी अविच्छिन्न बनना पड़ता है। योग और तप दोनों की ही आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य आवश्यकता है।

तपश्चर्या का मार्ग साहसी शूरवीरों का है। पराक्रमी और पुरुषार्थी ही अपने−अपने क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त करते रहे हैं। अपनी विकृति एवं मूर्छना के रूप में दृष्टिगोचर होने वाले सैकड़ों कुसंस्कार ही दुष्ट कौरव हैं। उन्हीं से अपने मित्र एवं भक्त अर्जुन को लड़ा देने का आग्रह भगवान् कृष्ण कर रहे थे। इसके लिए आवश्यक उद्बोधन और साहस देकर उन्होंने अर्जुन को महाभारत में प्रवृत्त किया था और स्वयं उसका रथ चलाया था। साधना समर के रूप में यही महाभारत हर साधक को लड़ने के लिए अर्जुन जैसी भूमिका निभानी पड़ती है। वासना, तृष्णा, अहंता के शत्रुओं को परास्त कर लेने पर उस दिव्य साम्राज्य का स्वामित्व हाथ में आता है। उसकी तुलना में संसार क्षेत्र के चक्रवर्ती राज्य और कुबेर की धनराशि को भी तुच्छ कहा जा सकता है।

छोटे-बड़े कामों में उनके स्तर के अनुरूप तत्परतापूर्वक आवश्यक प्रयत्न एवं साहस जुटाने वाले ही सफलता प्राप्त करते हैं। आत्मिक जगत की विभूतियों को उपलब्ध करने का भी यही उपाय है। सस्ती पगडण्डी ढूँढ़ना व्यर्थ है। उचित मूल्य चुकाने पर ही आवश्यक वस्तुएं खरीदी जाती हैं। कम श्रम और कम त्याग करने पर मन बहलाने मात्र की नकली वस्तुएं ही हाथ लग सकती हैं। आत्मोत्कर्ष एवं ईश्वरीय अनुग्रह जैसी महान् विभूतियों के लिए तपश्चर्या युक्त योग साधना आवश्यक है। यह कठिन नहीं सरल है। इस मार्ग पर कोई भी बाल−वृद्ध, नर−नारी अपनी−अपनी स्थिति के अनुरूप छोटे या बड़े कदम बढ़ाते हुए बढ़ सकता है। इसमें असफलता का या विपरीत परिणाम का कोई खतरा नहीं है। हाँ, जो जितना श्रम एवं साहस जुटा सकेगा उसे उसी अनुपात की उपलब्धियाँ मिल सकेंगी, इतना तो स्पष्ट है।

भागीरथ ने धरती पर गंगा लाने की, स्वयं श्रेय पाने की और संसार का कल्याण करने की सफलता तप साधना से ही प्राप्त की थी। हिमिराज की मानुषी कन्या पार्वती ने महाशिव की अर्धांगिनी बन सकने की सफलता तप के सहारे ही उपलब्ध की। ध्रुव ने तप का आश्रय लेकर ही परम पद पाया। विश्वामित्र तप बल की सामर्थ्य से ही दूसरे प्रकार की सृष्टि बनाने का साहस कर रहे थे। तपस्वी दधीचि की अस्थियों के बने वज्र द्वारा ही दुर्दान्त दैत्य वृत्तासुर मारा जा सका। ब्रह्माजी ने तप की शक्ति से ही यह सृष्टि बनाई। परशुराम ने अनीति का भार भूतल पर से उतारने की प्रचण्डता तप बल के सहारे ही प्राप्त की। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त से, समर्थ रामदास ने शिवाजी से, परमहंस ने विवेकानन्द से, सन्दीपन ने कृष्ण से, विश्वामित्र ने राम से अनेक महत्वपूर्ण कार्य अपनी तपःशक्ति के अनुदान देकर ही सम्पन्न कराये थे। मनु और शतरूपा ने तप करके भगवान को गोदी में खिलाने और मानवी आचार संहिता बनाने का श्रेय प्राप्त किया था। गौतम बुद्ध ने सामान्य मनुष्य से भगवान बना देते और युगक्रांति का संचालन करने की क्षमता तप साधना से ही प्राप्त की थी। महान् ऋषियों का प्रधान बल उनकी तप सम्पदा ही रही है। भगवान् राम अपने चारों भाइयों समेत अयोध्या छोड़कर हिमालय पर तप करने चले आये थे। पांडवों का अन्तिम जीवन भी इसी प्रयोजन में लगा था। प्राचीन काल की परिपाटी ही यह थी। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ में आधा जीवन ही लगता था। जीवन के उत्तरार्द्ध को वानप्रस्थ और संन्यास की तप साधना में ही लगाया जाता था। हिन्दू धर्म वर्णाश्रम धर्म कहलाता है। इस परम्परा में व्यक्ति और समाज को सर्वतोमुखी सुव्यवस्था एवं प्रगति सन्निहित रही है।

चिन्तन की उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए विविध प्रयासों को योग कहते हैं और कर्म को आदर्श बनाने का नाम ही तप है। इसके लिए तप तितीक्षा अथवा भजन पूजन के क्रिया-कलाप जो भी अपनायें जाएं उनका मूल संकेत आत्म परिष्कार ही रहता है। इस दिशा में जितनी प्रगति होती है उसी अनुपात से ईश्वरीय अनुग्रह स्वार्थ मुक्ति एवं सिद्धि चमत्कार जैसी अनेकानेक भौतिक एवं आत्मिक उपलब्धियाँ मिलती चली जाती हैं।


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