जीवन और मरण की रहस्यमयी पहेली

August 1978

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मृत्यु की परम्परागत मान्यतायें अब क्रमशः अपर्याप्त और अविश्वस्त मानी जाने लगी हैं। मोटे तौर पर नाड़ी न चलना और हृदय का धड़कना बन्द हो ने से मृत्यु मान ली जाती है। पुतलियों की स्थिरता, साँस का न चलना इस बात का प्रमाण मान लिया जाता है कि मृत्यु हो गई। आमतौर से मरण की घोषणा इसी आधार पर कर दी जाती है और लाश को ठिकाने लगाने उपक्रम बनाया जाने लगता है। पर अब समझा जाता है कि यह आंशिक मृत्यु है पूर्ण मरण नहीं। परम्परागत परीक्षण को लक्षणागत क्लीनिकल मृत्यु कह सकते हैं। यह प्रथम और मोटा स्तर है। यों आमतौर से लोग मरते भी इसी स्थिति में हैं, पर अब यह माना जा रहा है कि इस स्थिति में भी जीवन बना रहता है और उसके वापिस लौट सकने की संभावना बनी रहती है।

मरण का दूसरा स्तर है बायोलॉजिकल जैवमृत्यु इसमें रक्ताभिषरण, श्वास−प्रश्वास, आकुंचन −प्रकुंचन जैसी हलचलें समाप्त नहीं मन्द हो जाती हैं। उतनी मन्द जिसका पता साधारण नाड़ी परीक्षा से चल ही न सके। विषाक्तता और दुर्बलता की मात्रा बढ़ जाने से अवयवों की गतिविधियाँ तो शिथिल हो जाती हैं किन्तु जीवकोशों के अन्तराल में जीवन बना रहता है। फलतः सड़न और अकड़न नहीं बढ़ने पाती। हाथ, पैर, गरदन आदि को घुमाने पर वे अकड़े हुए नहीं लगते, मुलायमी दिखाई देती है, साथ ही शरीर में तापमान भी बना होता है। इससे प्रतीत होता है कि कोशाओं को प्राणवायु न मिल पाने से उन्हें मूर्च्छा तो आ गई है, पर अभी भी उनमें सजीवता विद्यमान है।

तीसरा स्तर ही वास्तविक मरण है जिसे कोशीय सेल्युलर मृत्यु कह सकते हैं। उसमें सड़न उत्पन्न हो जाती है। काया फूलने, गलने और बदबू देने लगती हैं। न गर्मी का कोई चिह्न रहता है और न चेहरे के किसी भाग पर जीवन का अस्तित्व सिद्ध करने वाली आभा का कोई लक्षण दिख पड़ता है। मुर्दनी छा गई जैसे शब्द उसी निराशाजनक स्थिति को देखकर कहे जाते हैं।

क्लिनिकल मृत्यु के लक्षण कितनी ही बाद दीख पड़ते हैं किन्तु उसके पश्चात् जीवन के लौट आने की कितनी ही घटनाएँ घटित होती रहती हैं। कृत्रिम रीति से साँस चलाने और हृदय धड़काने की तरकीबें अब निकल आई हैं। इनके द्वारा जैव मृत्यु होने से पूर्व की और क्लिनिकल मृत्यु की मध्य स्थिति में देर तक जीवन बनाये रहा जा सकता है। पानी में डूबने, बिजली के झटके, जहर या नशा आदि की स्थिति में मरे हुए व्यक्तियों के सम्बन्ध में जीवन को लौटाने में अधिक सफलता देखी गई है। उन्हें पुनर्जीवन न मिल सके तो भी काया को बहुत देर तक सड़न से बचाये रहना और जीवन के चिन्ह बनाये रहना सम्भव हो सकता है।

हृदय को लकवा मार जाने से कई बार क्लिनिक मृत्यु हो जाने जैसे लक्षण बन जाते हैं। हृदय के बड़े आपरेशनों में भी प्रायः दो घंटे लगते हैं और उतने समय तक उसकी धड़कन रुक-सी जाती हैं। ऑपरेशन पूरा होते समय ऐसे रोगी मरणासन्न दिखाई पड़ते हैं तब उन्हें गर्म पानी के सहारे फिर से गरमाया जाता है तब फिर अवयवों में सामान्य हलचलें आरम्भ होती हैं।

शरीर का शीतलीकरण हाइपोथमियां पद्धति से जब तापमान समाप्त कर दिया जाता है तब भी मृत्यु जैसी स्थिति ही दीखती है। बाद में आवश्यकतानुसार गर्मी पहुँचाने से जीवन के लक्षण वापस लौट आते हैं। ‘हृदय फेफड़ा मशीन की सहायता से दिन की धड़कन बहुत समय तक कृत्रिम रूप से जारी रखी जा सकती है।

क्लिनिकल मृत्यु के उपरान्त कितने ही मुर्दे अपने आप जी पड़े। ऐसी घटनाएं अविज्ञात रूप से तो न जाने कितनी होती रहती होंगी पर जो शोधकर्त्ताओं ने रिकार्ड की हैं वे भी कम नहीं हैं। मौत के घर जाकर वापिस लौट आने वाली घटनाओं में से अनेक काल्पनिक भी हो सकती हैं पर जो यथार्थ हैं उनकी संख्या भी कम नहीं है।

मैक्सिको की एक घटना है। मृतक को दफनाने की तैयारियाँ चलती रहीं, पर उसका वफादार कुत्ता लाश के पास जमकर ही बैठा रहा और जिसने भी उसे उठाने का प्रयत्न किया उसी को उसने रोका और काटा। बाँध देने के बाद भी वह किसी प्रकार रस्सी तुड़ाकर जो भागा और ताबूत ले जा रहे लोगों पर चढ़ बैठा। ताबूत गिरा और उसके टूटने पर मृतक को जीवित पाया गया।

कैलीफोर्निया की एक घटना है। कालेज की एक छात्रा छात्रावास में मर गई। उसे दफनाने की तैयारी करने वालों को छात्रावास का चौकीदार जोर देकर रोकता रहा। उसके चेहरे पर जीवन के चिन्ह थे। इसी झंझट में लाश तीन दिन रुकी रही और मृत लड़की फिर से साँस लेने लगी और दुबारा जिन्दा हो गई।

भारत के गोवा क्षेत्र में एक पादरी मरा। दफनाने से पूर्व भक्तों ने मिलकर उसका प्रिय भजन गाया। देखा गया कि मृतक के होंठ भी हिल रहे हैं और मुँह से गुनगुनाने जैसी हलचल हो रही है। ध्यान से देखा गया तो पता चला कि उसमें जीवन लौट आया है।

कुस्तुन्तुनिया में एक फटी हुई कच्ची कब्र के सम्बन्ध में मुर्दे के जी पड़ने की आशंका की गई। कब्र खोदी गई तो पता चला कि मृतक ने उठने और कब्र तोड़ने के लिए पूरा जोर लगाकर कोशिश की है और समीपवर्ती वस्तुओं को उलट−पुलट करने की उसने पूरी कोशिश की है। उस प्रयास में उसे कई जगह चोटें भी आयी हैं और खून भी बहा है। खोदने पर निकला तो वह मरा हुआ ही पर यह अनुभव किया गया है कि पूर्ण मृत्यु होने से पहले ही उसे दफना दिया गया है।

चिता पर करवटें बदलने वाले−काठी पर कस पर श्मशान पहुँचने से पहले ही हिलने डुलने वाले मृतकों के फिर से जीवित हो उठने की घटनाएँ भी कितनी ही सुनने को मिलती हैं। पारसी समाज में मृतक को गरम पानी से स्नान कराने और फिर उसे गर्मी देने का रिवाज है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि यदि कहीं जीवन का चिन्ह शेष रह गया हो तो प्रकट हो सके। शंवाई के एक अस्पताल में किसी मृतक का पोस्टमार्टम करने के लिए छुरा चलाते ही उसके उठ बैठने और चिल्लाने लगने की घटना रिकार्ड की गई है।

छिपकली, रीछ, साँप, मेंढक, केंचुए आदि कितने ही प्राणी सर्दियों के दिनों में बहुत समय तक समाधिस्थ हो जाते हैं। उन दिनों उनके शरीर की जाँच पड़ताल करने पर अर्ध मृतक जैसी स्थिति पाई जाती है। योगियों के समाधिस्थ हो जाने पर भी उनके शरीर में जीवन के लक्षण नाम मात्र के ही दिखाई पड़ते हैं।

इन विवरणों से पता चलता है कि तथाकथित मौत के उपरान्त भी मनुष्य तब तक जीवित रहता है जब तक कि उसका मस्तिष्क पूरी तरह शांत या समाप्त न हो जाय। सामान्य मृत्यु के उपरान्त भी यदि मस्तिष्क में हलचल बनी रहे तो कृत्रिम उपायों द्वारा उसे पुनर्जीवित हो उठने की सम्भावना बनी रहती है। इससे प्रतीत होता है कि शरीर के समस्त अवयवों में मस्तिष्क ही प्रधान है। जीवन और मृत्यु से सीधा सम्बन्ध उसी का है।

रूसी नोबेल पुरस्कार विजेता लेबलेण्डो भयंकर मोटर दुर्घटना से घायल हुए थे। वे कई महीने मूर्छित रहे। इस बीच चार बार उनकी धड़कन बन्द हुई। प्रयत्न करके फिर जिलाया गया। अन्ततः उस रस्साकशी में विज्ञान जीता और मौत हारी। लेबलेण्डौ बचा लिये गये और वे छः वर्ष तक जीवित रहकर सामान्य मौत से मरे।

इन दिनों मौत की प्रामाणिकता मस्तिष्क की पूर्ण मृत्यु के साथ जोड़ दी गई हैं। चिकित्सा और न्याय के दोनों ही क्षेत्रों में पूर्ण मृत्यु की परिभाषा यही स्वीकार की गई है कि मनुष्य की मस्तिष्कीय हलचलों में जब निस्तब्धता छा जाय तो समझना चाहिए कि पूर्ण मृत्यु हो गई। हृदय की धड़कन बंद हों किन्तु मस्तिष्क से विद्युत तरंगें उठ रही हों तो काया के पूर्ण निःचेष्ट हो जाने पर भी मृत्यु की स्थिति स्वीकार न की जायगी।

मृत्यु सम्बन्धी तथ्यों का पता लगाने के लिए इन दिनों विज्ञान की एक विशेष शाखा काम कर रही है जिसे ‘थेनाटालाजी’ कहते हैं। इसकी जाँच पड़ताल से पता चलता है कि अधिकांश व्यक्ति मरने से कुछ समय पूर्व संज्ञा शून्य हो जाते हैं। मस्तिष्क की चेतना चली जाती है और मूर्च्छा जैसी परिस्थिति बन जाती है। होश रहता भी है तो बहुत उथला। मृत्यु के क्षण जैसे−जैसे निकट आते जाते हैं वैसे−वैसे यह मूर्च्छा और भी अधिक घनी होती जाती है। अन्ततः जब प्राण निकलता है तो यह पता भी नहीं चलता कि यह विलगाव किस प्रकार हो गया।

मरते समय के अनुभव भिन्न−भिन्न मनुष्यों ने भिन्न−भिन्न प्रकार से व्यक्त किये हैं। विज्ञानी टामस एडीसन ने मरते समय कहा, जो सामने दीखता है वह इससे भी अधिक सुन्दर है।

जर्मनी के डॉक्टर लोअर विट्जल एक मरणासन्न मरीज का हाथ पकड़े हुए थे। दम तोड़ते हुए उसने कहा, मुझे पीछे मत खींचो आगे जाने दो। आगे चलने में मुझे उत्साह है।

दर्शन चुनेह ने कहा था−अब हाथ चल पाते तो लिखता कि मृत्यु कितनी सरल और कितनी सुखद है।

टामस एल्बा ने कहा था−पहले मौत से बहुत डर लगता था, पर अब देखता हूँ कि डर का कहीं कोई नाम भी नहीं है।

दस वर्षीय बालिका डेजीड्राइडन की मृत्यु दस वर्ष का आयु में टाइफ़ाइड से पेट बिगड़ जाने के कारण हुई। बीमारी के कारण वह दिन−दिन कमजोर होती चली गई और अन्ततः मृत्यु के निकट जा पहुँची। मरने से दो तीन दिन पूर्व उसे परलोक के दृश्य प्रत्यक्ष दीखने लगे थे। उसने जो बताया उसके आधार पर ‘जीवन के उस पार’ नाम से अनुभव प्रकाशित हुए हैं। डेजी के कथनानुसार अपनी इसी दुनिया की तरह एक दूसरी दुनिया भी है। जिसमें मृतात्माएँ और देवात्माएँ उसी प्रकार निवास निर्वाह करती हैं जैसे कि अपने इस लोक के निवासी। वे आत्माएँ अशरीरी होने के कारण उन आधि-व्याधियों और सीमा बन्धनों से बँधी रहती हैं जो शरीर धारियों के लिए समस्याएं बनी रहती हैं। उस लोक में पहुँचने के उपरान्त प्राणी अधिक विवेकवान और भावनाशील बन जाता है। वे लोभ और मोह ग्रस्तों की तरह खिन्न उद्विग्न नहीं रहते वरन् सदा प्रसन्न सन्तुष्ट बने रहते हैं। खिन्न तो थोड़ी-सी दुष्ट आत्माएँ ही रहती हैं जो संसार में रहने वाले अनाचारियों की तरह ही प्रेत–पिशाचों जैसी हरकतें करती हुई रोती रुलाती रहती हैं।

डेजी ने परलोक को मनोयोगपूर्वक देखा जो इस दुनिया को छोड़ने और नई दुनिया में प्रवेश करने की उत्सुकता ही प्रदर्शित करती रही और दम तोड़ते समय इतना ही कहा−‘‘मेरी प्यारी और सुन्दर दुनिया, अलविदा! पर मुझे नई यात्रा पर जाने की खुशी में इस सब का छोड़ने का रंज नहीं हैं।”

मृतक समझे गये रोगियों को पुनर्जीवित करने के लिए किये गये प्रयासों का विशिष्ट अध्ययन मनोविज्ञानी स्टेनिस्लाव ग्रोफ और जानहेलिफाक्स ग्रोफ ने किया है। उसने अपने शोध प्रकाशन में ऐसे कई रोगियों का वर्णन किया है जो मरकर जी उठे और मरण क्षणों के मध्यवर्ती अनुभव बता सकने में समर्थ हुए। कैन्सर से मरे डीन नामक एक रोगी ने पुनर्जीवित होने पर बताया कि पहले वह गहरे अन्धकार में डूबा, इसके बाद उसे प्रकाश दीखा और उस पर फिल्म के पर्दे की तरह किये गये भले-बुरे कामों की तस्वीरें फिल्म की तरह दिखाई पड़ीं। उसे लगा कि यह किसी न्यायाधीश का काम है। जो दण्ड पुरस्कार देने से पहले यह दृश्य साक्षियाँ प्रस्तुत कर रहा है।

डॉक्टर रेमण्ड मूडी का शोध विषय ही पुनर्जीवित हुए व्यक्तियों के मरण मध्यान्तर में हुए अनुभवों का संकलन ही था। इस सन्दर्भ में उन्होंने वर्षों तक दूर-दूर जाकर जानकारियाँ प्राप्त की हैं। अपनी खोजों का विवरण उन्होंने ‘लाइफ आफ्टर लाइफ’ ग्रन्थ में 150 घटनाओं का उल्लेख किया है। इनमें से कुछ के अनुभव ऐसे थे कि मरते समय उनके मस्तिष्क में सनसनाहट-सी लगी और मक्खियों के भिनभिनाने जैसे गुंजन सुनाई दिये। इनके बाद सब कुछ ठंडा हो गया और सुध-बुध समाप्त हो गई। एक व्यक्ति ने बताया उसे लगा जैसे किसी घोर अन्धेरे से भरे हुए गहरे खड्ड में गिरा दिया गया हो और नीचे की दिशा में तेजी से डूबता चला जा रहा है। अन्धेरे में धँसने के अनुभव और भी कितनों ने ही सुनाये और इसके बाद क्या हुआ इसकी जानकारी न दे सके।

डॉ0 मूडी द्वारा प्रस्तुत विवरणों में हृदय रोग से अस्पताल में मरी एक महिला का उल्लेख है जिसे मरते समय ऐसा लगा मानो वह रुई के रेशों की तरह हलकी बनकर अस्पताल की छत तक उड़ी जा रही है। उसे डॉक्टर नर्स तथा दूसरे मरीज यथा स्थान दिखाई दे रहे हैं। एक दूसरी महिला ने बताया उसकी आत्मा शरीर से बाहर निकली और देखा कि मृतक सम्बन्धियों में से कितने ही उसका स्वागत करने और साथ ले जाने के लिए खड़े हैं। उन बिछुड़ों की समीपता उसे बहुत अच्छी लगी और मृत्यु का दुःख नहीं हुआ।

इन अनुसन्धानों में ऐसे मृतकों की संख्या अधिक थी, जिन्होंने प्रकाश ज्योति के दर्शन किये। यह ज्योति मात्र रोशनी नहीं थी वरन् उसमें स्नेह और सहयोग का अनुदान झरते हुए अनुभव होता था।

सर आलिवर लाज विलियम क्रुक्स जैसे विज्ञानी क्रमशः अध्यात्मवाद की ओर झुकते चले गए थे और वे यह मानने लगे थे कि मात्र पदार्थ विज्ञान ही नहीं चेतना के सिद्धान्त भी सत्य की शोध में ही सम्मिलित होते हैं। चेतना पदार्थों के समन्वय की प्रतिक्रिया नहीं वरन् एक स्वतन्त्र सत्ता है जो काया की पदार्थ सम्पदा बिखर जाने के उपरान्त भी अपना अस्तित्व बनाये रहती है। इस अनुसन्धान उपक्रम में उन्होंने कितनी ही दिवंगत आत्माओं को सहयोग देने के लिए आमन्त्रित किया था। कई ने उसे स्वीकार भी किया था और सहयोग भी दिया था।

तत्व दर्शन की दृष्टि से मौत और जीवन परस्पर गुंथे हुए हैं और दोनों एक-दूसरे के लिए पूरक एवं अपरिहार्य हैं। जीवन का आरम्भ भी किसी मरण के फलस्वरूप सम्भव होता है और उसका अन्त भी मौत के रूप में होना भी सुनिश्चित हैं। रात्रि और दिन की तरह−ताने और बाने की तरह जीवन और मरण भी एक दूसरे के सहयोगी पक्ष हैं। दोनों के मिलने से ही एक गति चक्र बनता है। शास्त्रों ने मृत्यु को पुराना वस्त्र बदलने और जीवन को नया कपड़ा पहनने जैसा बताया है। जीवन−यात्रा अनन्त है उसके मध्यावधि विराम विश्राम को मरण कहा जा सकता है। इस दार्शनिक दृष्टि को अपनाया जा सके तो मृत्यु किसी के लिए भी डरावनी नहीं रह जाती। वह सरल और सुखद न हो तो भी वह ऐसी स्थिति नहीं है जिसके लिए भय मानने या उद्विग्न होने की आवश्यकता पड़े।


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