यज्ञ की महिमा धर्मशास्त्र की दृष्टि में

August 1978

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अहन्यहन्यनुष्ठानं यज्ञानां पार्थिवेत्तिम।

उपकार करं पुंसां क्रियमाणं फलार्थिनाम्॥

−पद्म पुराण

सुख पाने की इच्छा करने वालों को नित्य अग्निहोत्र करना चाहिए। इससे निश्चित रूप से कल्याण होता है।

‘जय होमोपहारेज्यांजलिनसंस्कार तपोनियम दयादा नदीक्षाम्युपगम देवता ब्राह्मण गुरुपरैभ वितव्यम्।’ −सुश्रुत, सूत्र 6। 2

अर्थात्− जप, हवन, तप, व्रत, नियम, नदी तट सेवन, देव, गुरु ब्राह्मण आदि के सहारे स्वास्थ्य रक्षा होती है।

अग्निहोत्रात्परंनान्यत्ववित्रमिहपठयते। सुकृतेनाग्निहोत्रेणांप्रशुद्धयंतिभुवि द्विजाः॥ पंथानोदेवलोकस्यब्राह्मणैदर्शितास्त्वमी। एकोऽग्नि सर्वदाधार्योगृहस्थेनद्विजन्मना॥ −पद्मपुराण

अग्निहोत्र से बढ़कर कोई पवित्र कर्म नहीं। अच्छी प्रकार से किये गये अग्निहोत्री के द्वारा द्विजों का अन्तःकरण पवित्र हो जाता है।

ब्राह्मणों ने विश्व को यज्ञ करने की प्रक्रिया बताकर सबों के लिए स्वर्ग को पाने का निश्चित पथ बता दिया है, अतः हे गृहस्थों! यज्ञ को प्रतिदिन करते रहना ही गृहस्थों का धर्म है।

सम्पतकरी तथा ज्ञेया सायमग्न्ययाहुतीर्द्विजाः। प्रायुष्यकरीति विज्ञेया प्रातः सूर्य्याहुतिस्तथा। −शिवपुराण

सन्ध्या काल में अग्नि में आहुति सम्पत्ति दिलाती है और सूर्योदय के समय की आहुति, आयु को बढ़ाने वाली होती है।

मनुश्चसगरोराजामरुत्तोनहुषात्मजः। एतेतेपूर्वजाः सर्वेयज्ञं कृत्वापदंगताः॥ −पद्म महापुराण

शेषजी कहते हैं हे राम! राजा मनु, सगर, नहुष के आत्मज मरुत, ये सब आपके पूर्वज यज्ञ करने से ही परमपद को प्राप्त हुए हैं।

आयुष्यश्चापि भक्तानां त्रयाणां विधि पूर्वकम्।

यजेत जुहुयाग्नौ जपेद्यद्याज्जितेन्द्रिय॥ −कूर्म पुराण

जो भक्त जितेन्द्रिय रहकर जप और यज्ञ करते हैँ, उनकी आयु बढ़ती हैं।

देव सविता प्रसुव यज्ञ प्रसुवयज्ञपति भगाय। दिव्योगन्धर्वः केतपूःकेतनः पुनातु वाचस्पतिर्वाच नः स्वदतु॥ −यजु0

मन, वाणी, बुद्धि की उन्नति तब होगी जब यज्ञ एवं यज्ञ पति की उपासना की जाय।

स्वाहा युक्तं च मन्त्रं च यो गृहणाति प्रशस्तकम्। सर्वसिद्धर्भवेत्तस्य ब्रह्म ग्रहण मात्रतः॥ −ब्रह्म वैवर्त पुराण

जो स्वाहा युक्त, अग्निहोत्र करते हैं उन्हें समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

अग्निहोत्रात् परोधर्मों द्विजानां नेह विद्यते। तस्मादाराधयोन्नित्यं मग्निहोत्रेण शाश्वतम्॥ कूर्म पुराण

इस लोक में अग्निहोत्र से बढ़कर और कोई धर्मकृत्य नहीं। उसकी आराधना नित्य ही करनी चाहिए।

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