जीव और ब्रह्म के बीच, पिण्ड और ब्रह्माण्ड के बीच कुछ सुनिश्चित सम्बन्ध सूत्र जुड़े हुए है। किन्तु वे शिथिल मूर्छित, अवरुद्ध, निष्क्रिय, उपेक्षित स्थिति में पड़े रहते हैं। यदि उन्हें सजग सक्रिय किया जा सके तो सम्बन्ध जुड़ जाने से आदान−प्रदान का द्वार खुलता है और फिर किसी प्रकार के अभाव संकट का सामना नहीं करना पड़ता। इन सम्बन्ध सूत्रों को सजग सक्रिय बना लेना ही साधना क्षेत्र का परम पुरुषार्थ माना गया है।
कठपुतली और बाजीगर की उँगलियों के मध्य कुछ धागे जुड़े रहते हैं और वे ही सारे खेल की भूमिका निभाते हैं। आकाश में उड़ने वाली पतंग और उसे उड़ाने वाले के साथ सम्बन्धित किये रहने की प्रक्रिया पतली डोरी द्वारा सम्पन्न होती है। माता और गर्भ के मध्य नाल−नलिका से सम्बन्ध बना रहता है और पोषण उसी से पहुँचता है। टेलीफोन के तार ही आवाज को इधर से उधर पहुँचाने का कार्य करते हैं। इसी प्रकार जीव और ब्रह्म के बीच, पिण्ड और ब्रह्माण्ड के बीच आदान−प्रदान के माध्यम कुछ सम्बन्ध सूत्र हैं। इन्हें चक्र संस्थान कहा गया है। षट्चक्र प्रसिद्ध है। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञाचक्र के नाम से इन्हें साधना विज्ञान के विद्यार्थी भली−भाँति जानते हैं। इन सबके ऊपर सहस्रार चक्र है। उस समेत यह चक्र संख्या सात हो जाती है। इन्हीं को सात लोक, सात ऋषि, सात द्वीप, सप्त सागर आदि की संज्ञा दी गई है। मेरुदण्ड स्थित छह चक्रों में सूक्ष्म जगत में संव्याप्त आत्मिक और भौतिक विभूतियों के साथ सम्बन्ध जोड़े रहने की क्षमता है। उस क्षमता की क्रियान्वित करने का अवसर सहस्रार के माध्यम से मिलता है। इस चक्र संस्थान को जागृत करने के तन्त्र विज्ञान और योग विज्ञान में कई प्रकार के विधि−विधान बताये गये हैं। साधन उनमें से अपनी रुचि, सुविधा एवं उस परम्परा के अनुसार किसी मार्ग को अपनाने और सफलता के लक्ष्य तक पहुँचाते हैं। सभी जानते हैं कि साधनाओं में चक्रवेधन की चक्र जागरण की साधना प्रमुख है।
षट्चक्रों का स्वरूप क्या है और उनमें सन्निहित सामर्थ्य का आधार क्या है। यह समझने के लिए कुछ भौतिक उदाहरणों की आवश्यकता पड़ेगी। बहते हुए नदी प्रवाह में कई बार भयंकर भँवरें पड़ते देखे गये हैं। इनकी सामर्थ्य इतनी प्रचण्ड होती है कि उधर से गुजरने वाली नावों और जहाज के अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो जाता है। जो उनकी चपेट में आता है डूब कर ही रहता है। दूसरा उदाहरण हवा के बहाव में पड़ने वाले चक्रवातों का है। वे भयंकर अन्धड़ के रूप में कई बार तूफानी गति से परिभ्रमण करते हैं और जो कुछ उनकी चपेट में आ जाता है उसे तोड़−मरोड़कर रख देते हैं। यह भंवरों और चक्रवातों की विघातक क्षमता हुई। उनमें उपयोगी उत्पादन की सामर्थ्य नगण्य है, किन्तु काय कलेवर में अवस्थित षट्चक्रों में दोनों ही प्रकार की क्षमता विद्यमान है। वे जीवन क्षेत्र में घुसी हुई अवांछनीयता को तोड़−मरोड़कर फेंक देने, उदरस्थ करने में भी समर्थ हैं और साथ ही ऊँचा उछाल देने की ऐसी क्षमता भी विद्यमान है जिससे उन्नति के सर्वोच्च शिखर तक पहुँच सकना सम्भव हो सके। चक्र साधना का पुरुषार्थ करने वाले ऐसे ही उभयपक्षीय लाभ उठाते हैं।
ब्रह्माण्ड की ही एक छोटी अनुकृति पिण्ड है। जो ब्रह्माण्ड में है वही पिण्ड में। ब्रह्माण्ड में भी ऐसी शक्ति धाराएँ दौड़ती हुई पाई गई हैं जो अन्तर्ग्रही आदान−प्रदान की व्यवस्था बनाती हैं। समस्त ग्रह नक्षत्र उन शक्ति प्रवाहों के मजबूत रस्सों से परस्पर बँधे हुए हैं और एक दूसरे का सहयोग करके आवश्यक को पहुँचाने और अनावश्यक को हटाने का काम चलाते हैं। यह शक्ति धाराएँ स्थिर नहीं धावमान हैं। उन्हें जल भंवर एवं वायु चक्र वात के समतुल्य समझा जा सकता है। इन अन्तरिक्षीय विद्युत प्रवाहों का परिचय जब कभी मिलता है तब आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।
एक ऐसे ही विद्युतीय चक्रवात की प्रवाह धारा का परिचय पृथ्वी के निकटवर्ती क्षेत्र में से गुजरता हुआ पाया गया है। वह अपनी धरती से बहुत दूर है फिर भी उसका प्रभाव पृथ्वी के एक क्षेत्र को अपने विकरण से प्रभावित करता है। यदि वह निकट होता तब तो पृथ्वी को ही उदरस्थ कर जाता, ईश्वर को धन्यवाद है कि वह धारा आकाश में बहुत दूरी पर बहती है और अपने चुम्बकत्व से थोड़े से ही क्षेत्र को प्रभावित करती है। इस प्रवाह को देखते हुए उन्हें अन्तरिक्ष के सुस्थिर चक्रवात कह सकते हैं। मानवी काया में पाये जाने वाले षट्चक्रों को भी इन्हीं विद्युत चुम्बकीय शक्ति प्रवाहों के समतुल्य माना जा सकता है।
अटलांटिक महासमुद्र में बरमूडा द्वीप समूह के पास एक ऐसा तिकोना क्षेत्र है जिसे जादुई कहा जाता है। उसकी परिधि में प्रवेश करने वालों की खैर नहीं, भले ही वे जलयान से वहाँ पहुँचें या वायुयान से उड़ान भरें। (1) फ्लोरिडा से बरमूडा तक (2) बरमूडा से प्वेर्तोंरिको तक और (3) प्वेर्तोंरिको से सान्तोडोमिंगो क्यूबा के पास होकर क्लोरिडो तक पहुँचने वाली रेखा तक इन तीन भुजाओं से यह त्रिकोण बनता है। इस क्षेत्र की विभीषिकाएँ ऐसी हैं जो मनुष्यों को अपने क्षेत्र से बाहर रखना चाहती हैं और जो उस लक्ष्मण रेखा को तोड़कर भीतर प्रवेश करना चाहते हैं उन्हें निगल जाती हैं। पहले इस प्रकार के घटनाक्रमों की किंवदंती या दैवी कहकर डाल दिया जाता था, पर इन दिनों जो प्रत्यक्ष प्रमाण सामने हैं उन्हें देखते हुए उन पर विचार करना और कारणों को खोज निकालना आवश्यक समझा जाने लगा है। अब तक 100 से अधिक वायुयानों और जलयानों के इस क्षेत्र में गायब हो जाने के विवरण नोट किये गये हैं जिनकी प्रामाणिक जानकारी नहीं मिल सकी ऐसी सच्ची झूठी लोक चर्चाओं में तो वह संख्या और भी कई गुनी हो जाती हैं।
कई अन्य शोधकर्त्ताओं ने इस रहस्यमय क्षेत्र के सम्बन्ध में विभिन्न अनुमान लगाये और निष्कर्ष निकाले हैं। हैराल्ड वाइकिंग इसे अन्तरिक्ष के किसी लोकवासियों के साथ पृथ्वी से सम्बन्ध रखने वाला क्षेत्र है। इस मार्ग में होकर वे लोग आसमान से धरती पर आते हैं और खोज, खबर तथा अभीष्ट पदार्थ लेकर वापिस लौट जाते हैं। अर्जेन्टाइना के विज्ञानी रोमनी ऊंक ने भी इसी से मिलता−जुलता अनुमान लगाया है और कहा है यह क्षेत्र अन्तरिक्षीय आदान−प्रदान का अपने ढंग का विचित्र केन्द्र है। यों आदान−प्रदान तो ध्रुव केन्द्रों से ही प्रधानतया होते हैं, पर ऐसे छुटपुट केन्द्र अन्यत्र भी हो सकते हैं जो अनायास ही बन गये हों अथवा प्रयत्नपूर्वक बनाये गये हों।
अमेरिका ने नासा शोध संस्थान द्वारा अन्तरिक्ष का एक एक्सरे फोटोग्राफ तैयार किया गया है जिससे पता चला है कि ब्रह्माण्ड में कई विचित्र विद्युत प्रवाह सनसनाती हुई तेजी के साथ एक ओर से दूसरी ओर दौड़ रहे हैं। इनकी गति में प्रकाशगति से भी अधिक तेजी है साथ ही चुम्बकीय ऊर्जा की उच्चस्तरीय प्रखरता भी उनमें भरी हुई है। यह कहाँ से आती है और किस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए दौड़े जा रहे हैं। यह तो पता नहीं चला हैं, पर इतना अवश्य देखा गया है कि वे ग्रह-नक्षत्रों के बीच किन्हीं महत्वपूर्ण आदान−प्रदानों का भार वहन करते हैं। वे अपने कन्धों पर कुछ लादकर ले जाते हैं और अन्य ग्रहों तक उनकी आवश्यक सामग्री पहुँचाते हैं। एक से दूसरे को, दूसरे से तीसरे को, उसी प्रकार अन्ततः अन्तरिक्ष में यह प्रेरणा और ग्रहण का सिलसिला चलता रहता है और ग्रह-नक्षत्र पारस्परिक सहयोग से अपने−अपने उपार्जनों को मिल बाँटकर खाते रहते हैं। फालतू का वितरण और आवश्यक का ग्रहण सहकारिता का खुला उद्देश्य है। उसी की पूर्ति का तारतम्य बिठाने के लिए यह विद्युत चुम्बकीय प्रवाह धाराएँ अन्तरिक्ष में दौड़ लगाती रहती हैं।
इन प्रवाहों की असंख्य धाराएँ अन्तरिक्ष में मकड़ी के जाले की तरह फैली हुई देखी जाती हैं। वे समुद्र तल की जल धाराओं की तरह उलटी-सीधी सब ओर गतिशील रहती है। उनका कोई निर्धारित दिशा क्रम नहीं हैं। किस ग्रह की आवश्यकता किससे पूरी होती है उस पूर्ति के लिए निकटतम मार्ग क्या हो सकता है? प्रवाहों के, बिना टकराये किस प्रकार कहाँ पहुँचना सम्भव हो सकता है। सम्भवतः ऐसे ही विकट समाधानों का सामना करते हुए उनका हल निकालते हुए यह अन्तरिक्षीय विद्युत प्रवाह अपना मार्ग निर्धारित हुए यह अन्तरिक्षीय विद्युत प्रवाह अपना मार्ग निर्धारित करते हैं। उनकी दिशा धारा का निर्धारण इसी आधार पर होता हैं। टैक्सास युनिवर्सिटी के अन्तरिक्ष विज्ञानी ज्ञान व्हीलर ने इन धावमान प्रवाहों को क्वासर्स ऊर्जा स्रोत कहा है, उनका कथन है कि संव्याप्त रेडियो तरंगें इसी स्रोत से प्रादुर्भूत होने वाली लहरें हैं। वे उन्हें ग्रहों को परस्पर बाँधने वाले शक्तिशाली रस्से भी ठहराते।
अन्तरिक्ष भौतिकी के प्रो0 हर्बर्ट गर्सकी ने इन प्रचण्ड प्रवाहों का नाम अन्धेरा गर्त ब्लैक होल कहा है। जिसमें गिरने के बाद फिर कोई वस्तु वापिस नहीं लौट सकती वरन् अविज्ञान के प्रवाह में पड़कर अनिश्चित की ओर बहती चली जाती है। वे इन अन्ध गर्तों को ब्रह्माण्ड के ऐसे खम्भों की उपमा देते हैं जिनके कन्धों पर यह विशालकाय ब्रह्माण्ड छत−छप्पर की तरह खड़ा हुआ है।
चक्र संस्थान को ऐसे ही प्रचण्ड शक्ति प्रवाहों के उद्गम केन्द्र माना जा सकता हैं। सुप्त स्थिति तो मृतकवत् होती है। चक्र प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहें तो उनका होना न होना समान है, किन्तु यदि उन्हें जागृत एवं सक्रिय किया जा सके और उन शक्ति धाराओं का महत्वपूर्ण उपयोग किया जा सके तो जीव को भी अपने उद्गम केन्द्र ब्रह्म के समान ही समर्थ बनने का अवसर मिल सकता है। तपस्वी, तत्वज्ञानी उन्हीं शक्ति स्रोतों को प्रचण्ड बनाने और उनके द्वारा आत्म−कल्याण और विश्व कल्याण का प्रयत्न करते रहते हैं। चक्र साधना का यही प्रयोजन हैं।