सिद्धपीठ चलें, शक्ति लेकर आयें।

August 1978

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जीन डिक्शन की तरह पिछले दिनों योरोप और अमेरिका में ऐसे कई स्त्री−पुरुष प्रकाश में आये जो मात्र किसी की वस्तु का स्पर्श करके उसके बारे में न केवल वर्तमान अपितु भूत और भविष्य की घटनायें तक जान लेते और बता देते थे। जर्मनी में 12 वर्ष पूर्व इस सम्बन्ध में कुछ वैज्ञानिकों ने विशेष रुचि ली और यह पाया कि ऐसी घटनायें असत्य नहीं होतीं।

डॉ0 राइन के अनुसार− ‘साइकोमैट्री सिद्धान्त’ से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि प्रत्येक वस्तु में मनुष्य शरीर में रहने वाले प्राण और मन की तरह का एक सूक्ष्म प्रभाव (ईथरिक इम्प्रेशन) होता है जो मन को प्रभावित करता है। स्पर्श से मनुष्य के मन के संस्कार उस वस्तु में चले जाते हैं। वह संस्कार पुनः उस व्यक्ति से सम्बन्ध जोड़ लेते हैं इसी आधार पर वह व्यक्ति जानकारी पा लेता है।

मौन्सियन बोविन ने एक यंत्र बनाया जो मनुष्य शरीर के रेडियेशन की माप करता है। उससे जो तथ्य सामने आते हैं उनमें एक तो यह कि उँगलियों व हथेलियों पर यह सबसे अधिक होता है। शेष शरीर का संबंध यहीं से होता है, इसलिए केवल मात्र उँगलियों से ही शरीर की विभिन्न स्थानों वाली विद्युत या जीवन−शक्ति का पता लगाया जा सकता है। अँगूठे का तो सीधे मस्तिष्क से सम्बन्ध होता है। यही नहीं उसमें जागृत ही नहीं सुषुप्ति अवस्था में भी मस्तिष्क की हलचलें प्रभाव डालती रहती हैं। भारतीय संस्कृति में चरण−स्पर्श की परम्परा ने महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। उसमें महापुरुषों, बड़ों, बुजुर्गों, पवित्र नदियों और मूर्तियों को प्रणाम करके उनसे प्राण−पवित्रता, ज्ञान−संस्कार और शक्ति ग्रहण करने का यह रहस्य ही सन्निहित है। एकलव्य ने तो अपनी श्रद्धा मिट्टी के द्रोणाचार्य के चरणों में आरोपित कर दी थी। परिणाम यह हुआ था द्रोणाचार्य को पता भी नहीं चल पाया और एक तरह से उनका सारा ज्ञान चोरी हो गया। “श्रद्धावान्लभते ज्ञान” के पीछे यही मनोवैज्ञानिक नियम काम करता है, जिसे अब वैज्ञानिक मान्यता भी मिल गई है। इन सब में प्रत्येक वस्तु में मन या ईथरिक इम्प्रेशन होने, सारे संसार में एक समान ऊर्जा तत्व (कामन इनर्जेटिक रियेलिटी) होने का सिद्धान्त काम करता है। इन दोनों के संयोग से ही ज्ञान, देश, काल व पदार्थ को प्रभावित करते और इनसे परे की भी जानकारी देते हैं।

प्रकृति विविधा है, पर उसमें एक ही मौलिक तथ्य काम करता है, उसी से उसे ऊर्जा मिलती है। विकास के साधन मिलते हैं, अभिव्यक्ति मिलती है। यदि सभी के कारण की दिशा में लौटें तो एक ही केन्द्र−बिन्दु मिलेगा। इसी तरह सारे विश्व में एक अति चेतन मन भरा है उससे सम्पर्क सम्बन्ध बनाकर लोग प्राकृतिक रहस्यों को जान सकते हैं। कई बार प्राकृतिक रूप से क्षणिक बोध किसी को भी हो सकता है। यहाँ तक कि कुत्ते, बिल्लियों तथा मकड़ी तक को भी भविष्य और अतीन्द्रिय बोध होते पाया गया है। पर किसी सार्थक उपयोग और लोक कल्याण की दृष्टि से मिलने वाली शक्ति सामर्थ्य किन्हीं प्रज्ञावान् व्यक्तियों को ही मिल सकती है।

योगदर्शन के अध्याय 3 सूत्र 53 में महर्षि पातंजलि ने बताया है−

जाति लक्षण देशैरन्यतान वच्छेदात्तू ल्योस्तयः प्रतिपत्तिः

अर्थात्−जाति, लक्षण और देश भेद से जिन दो वस्तुओं का भेद नहीं ज्ञात होता एवं लोगों वस्तु तुल्य मालूम होती हैं, उनके भेद का ज्ञान विवेक ज्ञान से ही होता है। विवेक ज्ञान को स्पष्ट करते हुए आगे यह बताया है कि लोक को तो जाति, लक्षण देश द्वारा पदार्थों का भेद ज्ञान होता है परन्तु योगियों को बिना जाति लक्षण व देश के विवेकज ज्ञान के ही भेद का निश्चय होता है।

जमशेद जी टाटा के आग्रह पर स्वामी विवेकानन्द ने इसी दृष्टि से टाटानगर का स्थान उसके प्लान्ट के लिए उपयोगी बताया था जो आज भी चल रहा है। राजस्थान में एक पानी वाले महात्मा थे। स्वयं तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली के लिए जल सप्लाई हेतु उनकी सेवायें ली थीं। वे कहीं भी चलकर उस स्थान पर जल की उपलब्धि और मात्रा तक की जानकारी देते थे। यह सारी बातें इसी सिद्धान्त का समर्थन करती हैं कि मन की तरह की एक सूक्ष्म सत्ता प्रकृति में सर्वत्र कार्य करती है। इसमें ज्ञान और शक्तियाँ दोनों सन्निहित हैं उनसे सम्बन्ध स्थापित कर कोई भी ज्ञान, शान्ति और शक्ति प्राप्त कर सकता है। इस तथ्य की पुष्टि श्रीमती एनीबेसेण्ट ने भी की हैं।

“न्यू वर्ल्ड आफ माइण्ड” के पृष्ठ 84 पर डॉ0 राइन ने, “इम्प्रिजन्डस्प्लेन्डर” के अध्याय 8 में डॉ0 रेनर जानसन ने, “सुपर नार्मल फैकल्टीज इन मैन” में डॉ0 आस्टी तथा डॉ0 हेटिंगर ने, अपनी पुस्तक “अल्ट्रा परसेट्टिव फैकल्टी” में निम्न निष्कर्ष निकालते हुए “स्पर्श ज्ञान” का समर्थन करते हुए कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष इस प्रकार निकाले हैं−

1- वस्तु का स्पर्श करने वाले को उसके मन के सूक्ष्म संस्कार उस वस्तु में उतर आने के आधार पर पहचाना जा सकता है।

2- एक बार तादात्म्य स्थापित हो जाने पर वस्तु का रहना आवश्यक नहीं।

3- यदि वस्तु से व्यक्ति का सम्पर्क वर्षों पहले हुआ है और अब वह व्यक्ति नहीं भी हो तो भी उसके बारे में न केवल जाना जा सकता है अपितु उसके प्रकाश उसकी क्षमताओं को भी जाना और ग्रहण किया जा सकता है।

4- स्पर्श वाली वस्तु या स्थान में भौतिक व रासायनिक दृष्टि से किसी प्रकार का अन्तर नहीं आता। यदि उसके स्वरूप में कुछ परिवर्तन भी हो जाये तो भी वह संस्कार कहीं नहीं जाते।

5- व्यक्ति जितना प्राणवान या शक्तिसम्पन्न हो उसी अनुपात पर अनुभूति अधिक स्पष्ट होगी।

डॉ0 जॉनसन ने इस साहसिक ईथर सिद्धान्त की जो फल श्रुतियाँ निकाली हैं वे मन्दिरों, पवित्र जल, भस्म, देवालयों और सिद्ध पीठों की उपयोगिता का दर्शन कराते हैं। सिद्धान्त एक ही है कि ऐसे स्थानों में महापुरुषों के मन और उनके संस्कार उस भूमि के कण−कण में बस जाते हैं और उनका चिरकाल तक अस्तित्व बना रहता है। योगी आत्मा या महापुरुष इन वस्तुओं या स्थानों को अपने संकल्प बल से इतना ऊर्जा सम्पन्न बना देते हैं कि वहाँ आने वाले दुर्बल मनोबल के व्यक्ति भी अनुभूतियों की, साधना की सफलता और स्वल्प प्रयास में ही शक्ति पा जाते हैं। यह शक्ति आत्म विकास का तो प्राण ही है, पर उससे शारीरिक मानसिक और सांसारिक कठिनाइयों में भी उपयोग होता हैं। महापुरुषों और सिद्धपीठों की यात्रायें और सत्संग इसी आधा पर आयोजित होते हैं।

“ऐसे स्थानों पर “सम्मिलित मनःशक्ति” “एसोसियेटेड साहसिक ईथर” विनिर्मित हो जाता है। एक ही तरह पवित्रता के, करुणा उदारता और महानता के संस्कार उमड़ते रहने से उस स्थान पर उन संस्कारों का पुंज बन जाता है। जिससे वहाँ पहुँचने वाले दुष्ट और दुराचारी कमजोर मनःस्थिति या भूत-प्रेत आदि बाधाओं से ग्रस्त लोग भी जाकर प्रसन्नता अनुभव करते और शक्ति लेकर लौटते हैं। गायत्री तपोभूमि मथुरा और ब्रह्मवर्चस् को इसी तरह प्रयत्नपूर्वक संस्कारित किया गया है। यह संस्कार सैकड़ों वर्षों तक भी हिलाये नहीं हिल सकते। अपितु ऐसे स्थान पर समर्थ सत्ता की स्फुरणाओं, स्पर्शजन्य पवित्रता का, भावनाओं का चिरकाल तक लाभ लिया और अपनी उपासना को द्रुत किया जा सकता है।


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