मनःस्थिति बदले तो परिस्थितियाँ सुधरें

October 1976

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कालाईल कहते थे-लोग जीना तो चाहते हैं, पर जीवन को प्यार नहीं करते।’ सचमुच ही हम जिन्दगी का बोझ ढोते हैं और जैसे-जैसे उसे काटते हुए मौत के दिन पूरे करते हैं। यदि जिन्दगी का महत्व समझ सकना उसका मूल्याँकन कर सकना सम्भव रहा होता तो लगता कि इस सुरदुर्लभ अवसर का उससे अधिक सुन्दर उपयोग किया जाना चाहिए जैसा कि आप लोग किसी तरह रोते खीजते-ज्यों-त्यों करके उसे गुजार लेते हैं। पेट और प्रजनन की कला में तो कीट-पतंगे और पशु-पक्षी भी प्रवीण होते हैं, यदि इसी धुरी पर मानव जीवन का चक्र भी लुढ़कता रहा तो समझना चाहिए सृष्टा का, इस अद्भुत कलाकृति पर किया गया असाधारण श्रम ऐसे ही निरर्थक चला गया। क्या रोटी कमाने और पेट भरते रहने से अधिक महत्व का काम मनुष्य के लिए दूसरा नहीं है? क्या प्रजनन कर्म से अधिक सुखद कोई दूसरा कृत्य नहीं हो सकता? क्या इन दोनों के समेटने संजोने से कोई-अधिक उपयोगी कार्य हमारे लिए सम्भव नहीं हो सकता ?

यह कुछ ऐसे मौलिक और महत्वपूर्ण प्रश्न हैं जिनके समाधान को सर्वोपरि प्राथमिकता मिलनी चाहिए थी, पर दुर्भाग्य इसी बात तक है कि ढर्रे के दिन गुजारते रहने में ही समय निकल जाता है और जीवन-ज्योति के बुझने का दिन सामने आ खड़ा होता है। विवेकशीलता जहाँ भी जीवित हो वहाँ यह उमंग उठनी चाहिए कि जीवन-सम्पदा का सद्व्यय इस प्रकार करेंगे जिससे सृष्टा का श्रम सार्थक हो सके। उत्कर्ष की महत्वाकाँक्षा जहाँ भी उभरती हो वहाँ उसे यह दिशा मिलनी चाहिए कि विलासिता और अहंमन्यता के साधन जुटाते रहने से नहीं आदर्शवादी महानता का परिचय देने से ही आत्म सन्तोष, जन-सम्मान एवं ईश्वरीय अनुग्रह का त्रिविधि वरदान मिल सकता है।

जहाँ अन्तरात्मा मूर्छित पड़ी है वहाँ दैवी उद्बोधन अनसुने ही होते रहेंगे। अर्द्धप्रसुप्त अन्तःकरण दिव्य-जीवन अपनाने का साहस नहीं जुटा सकता। उसे पशुप्रवृत्तियाँ उभरने ही न देंगी। कुसंस्कारों से पिण्ड न छूटे तो मानवी गरिमा को सार्थक बनाने के लिए अपनाया जाने वाला शौर्य क्यों कर उभरे? कैसी विडम्बना है कि बुद्धिमान होने का दावा करने वाला मनुष्य जीवन के सदुपयोग की आधार भूत समस्या की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देता। लोक-व्यवहार और अर्थ उपार्जन जैसे सामान्य प्रयोजनों में वह जितनी तत्परता बरतता है उतना ही यदि आत्महित को ध्यान में रख कर भी सोचा गया होता तो निष्कर्ष कुछ दूसरे ही निकलते । तब हमारी रीति-नीति कुछ दूसरी ही होती। तब हमारी गतिविधियों का चक्र किसी दूसरी ही दिशा में प्रयाण कर रहा होता। विवेक ने यदि साथ दिया होता, तो निश्चय ही हम उससे भिन्न प्रकार का दृष्टिकोण अपनाते, जैसे कि आज अपनाये हुए हैं। आदर्शवादी जीवन जीने का-महानता के प्रगतिपथ पर चलने का हर किसी को अवसर मिल सकता है, यदि वासना-तृष्णा पर अंकुश रखा जाय और श्रेष्ठता अभिवर्धन की साध को जीवन्त-ज्योतिर्मय बनाया जाय। यह अतिसरल है व कठिन भी। सरल इन अर्थों में कि निर्वाह के साधन अति सरल हैं वे महानता के मार्ग पर चलते हुए भी सहज ही उपलब्ध होते रह सकते हैं और आदर्शवादिता के मार्ग पर विश्व के महामानवों की तरह चल सकते हैं। कठिन इसलिए कि पशु प्रवृत्तियों से पिण्ड छुड़ाना अति साहस का काम है। सम्पर्क क्षेत्र में तथा-कथित स्वजन-सम्बन्धी संकीर्ण स्वार्थपरता अपनाये रहने का ही दबाव डालते हैं क्योंकि उनकी क्षुद्रबुद्धि को हित इसी में दीखता है कि दूसरे अनेकों की तरह लोभ-मोह के पहियों पर लुढ़कती जिन्दगी जिया जाय। अपनी दुर्बलता और मित्र सम्बन्धियों की क्षुद्रता मिल कर ऐसा अभेद्य कवच तैयार करती है जिसे लाँघ सकना बिना दुस्साहस अपनाये व्यर्थ है कि पारमार्थिक जीवन में कष्ट अधिक है। सच तो यह है कि पाप-पंक में फंसे रहने पर पग-पग पर पल-पल पर जो आत्म प्रताड़ना तथा बाहरी व्यथा बाधाएं सहनी पड़ती हैं उसकी तुलना में दिव्य जीवन में आने वाली विपत्तियाँ नगण्य हैं। यदि कुछ हैं भी तो आदर्शों के लिए किये जाने वाले त्याग बलिदान के फलस्वरूप मिलने वाले आत्म सन्तोष, लोक-सम्मान एवं ईश्वरीय अनुग्रह की उपलब्धियों को देखते हुए अतीव नगण्य हैं। स्वार्थी जो कष्ट पाता है उसे ईश्वरीय दण्ड मानकर सभी प्रसन्न होते हैं किन्तु परमार्थी द्वारा झेले गये संकटों के प्रति समस्त विश्व की श्रद्धा उमड़ पड़ती है। यह सहानुभूति इतनी महान है कि झेलने वाला सोचता है कि ऐसी विपत्ति हर घड़ी बनी रहती तो कितना अच्छा होता। क्या सन्त, क्या असन्त प्रकृति क्रम से हर किसी को आये दिन सुख-दुःख के खट्टे-मीठे अनुभव प्राप्त करने पड़ते हैं। सुखों से प्रोत्साहन और दुःखों से प्रतिभा चमकाने वाला शौर्य साहस प्राप्त होता है। यह दोनों ही उपलब्धियाँ परस्पर विरोधी तो लगती हैं, पर हैं एक दूसरे की पूरक एवं मानवी प्रगति के लिए नितान्त आवश्यक। इन से राम, कृष्ण हनुमान, पाण्डव, बुद्ध जैसी दिव्य सत्ताएं अछूती न रहीं तो फिर सामान्य लोगों की तो बात ही क्या है। स्वार्थी ने कितना कमाया, कितना खोया, कितना सुख भोगा और कितना दुःख उठाया इसका लेखा-जोखा रखा जाय और उसकी तुलना में परमार्थी को भुगतने पड़े कष्टों की तालिका बनाई जाय तो प्रतीत होगा स्वार्थी ने साँसारिक दृष्टि से भी अत्यधिक क्षति उठाई और आत्मिक आनन्द भी खो बैठा, इसकी तुलना में परमार्थी पर आई विपत्तियाँ तो नितान्त स्वल्प ही गिनी जा सकती हैं।

एक समय ऐसा भी था जब मानवी दृष्टिकोण में महानता दूरदर्शिता और उदारता के उच्चस्तरीय तत्व समुचित मात्रा में समाविष्ट थे। तब घर-घर में महामानव उत्पन्न होते थे और अपना देश नर-रत्नों को खदान बना हुआ था। तब इस सम्पदा से यह देश भी स्वर्ग से प्रतिस्पर्धा करता था और इस दिव्य सम्पत्ति का समस्त विश्व में निर्यात करके विश्व कल्याण का उत्तरदायित्व वहन करता था। उन दिनों भौतिक परिस्थितियाँ तो आज की तुलना में कहीं अधिक पिछड़ी हुई थीं, विकसित तो विवेकशीलता थी। मानव जीवन का महत्व और सदुपयोग क्या हो सकता है, इस तत्व ज्ञान को हर कोई समझता था और तदनुरूप किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार जिया जाना चाहिए इसका उच्चस्तरीय निर्णय-निर्धारण करता था। उन दिनों मनःस्थिति का स्तर ही वह परिस्थिति थी जो निश्चित रूप से अब की अपेक्षा कहीं अधिक जटिल थी।

पूर्वकाल की अपेक्षा शिक्षा, सुविधा, सम्पत्ति की दृष्टि से आज हम कहीं आगे हैं। ऐसी दशा में हमारे दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप में उत्कृष्टता की मात्रा भी बढ़नी चाहिए थी, पर हुआ इसका ठीक उलटा है। हमारी संकीर्णता बढ़ी है और गरिमा गिरी है। अब मनुष्य की आकांक्षाएं विलासिता, अहमन्यता और संकीर्ण स्वार्थपरता के लिए अनेकानेक स्वरूपों के साथ जकड़ कर रह गई है। इससे आगे की बात सोच सकना आज के मनुष्य के लिए अति कठिन हो रहा है। लोगों की यह मान्यता बनती जा रही है कि आदर्शवादिता कहने सुनने की-लिखने पढ़ने की-गये युग की वस्तु है। उसे व्यावहारिक जीवन में उतारने की आवश्यकता नहीं है। उत्कृष्टता अभिवर्धन के लिए उच्चस्तरीय विचार-प्रक्रिया का-ब्रह्म विद्या का-अवगाहन आवश्यक था।

अपने युग की कठिनाइयाँ व्यथाएं, वेदनाएं समस्याएं विपत्तियाँ मात्र एक ही कारण उत्पन्न हुई हैं कि मानवी दृष्टिकोण से आदर्शवादी उत्कृष्टता का अंश क्रमश: घटता ही चला जाता है। व्यक्तिवादी संकीर्ण स्वार्थ-परता परिपुष्ट होती चली जाती है और आकाँक्षाओं का केन्द्र-बिन्दु लोभ-मोह के-वासना तृष्णा के इर्द-गिर्द घूमने लगा है। परिस्थिति बदलनी हो तो मनःस्थिति बदलनी होगी चिन्तन का प्रतिफल कर्म है और कर्म के वृक्ष पर परिणाम के फल-फूल लगा करते हैं। मनःस्थिति सुधरने के अतिरिक्त परिस्थिति बदलने का और कोई आधार हो ही नहीं सकता। नरक और स्वर्ग हम स्वयं ही तो सृजन करते हैं। भाग्य का निर्माता मनुष्य स्वयं ही तो है। चिन्तन को बदला जा सके तो प्रवृत्तियाँ उलटेंगी फलतः अंधकार को निरस्त करने वाला नवयुग का स्वर्णिम प्रभात उदय होते हुए हर किसी को दृष्टिगोचर होगा।

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