सूक्ष्म-दृष्टि, मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि

October 1976

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मोटी दृष्टि से देखने पर यह संसार बेडौल मिट्टी पत्थर का ढेर मैदान भर प्रतीत होता है। वे सिलसिले उगती, सूखती वनस्पतियाँ, निरुद्देश्य विचरण करने वाले चित्र विचित्र प्रकृति के जीवधारी। यही है यह अपना संसार। इसमें झंझटों और विक्षोभों का ठिकाना नहीं, अभावों और संकटों का यह घटाटोप पग-पग पर सामने खड़ा दीखता है। मोटी दृष्टि से यहाँ जो दीखता है उसमें निरर्थकता और विसंगति ही समझ में आती है। नीरसता और कुरूपता का वातावरण ही बिखरा हुआ दृष्टिगोचर होता है।

किन्तु यदि हमें सूक्ष्म दृष्टि-उपलब्ध हो तो फिर एक से एक अद्भुत एवं आकर्षक रहस्य एक के बाद एक उभरते चले आते हैं और उनका मूल्यांकन करते- करते इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि कण-कण में उपयोगिता, विलक्षणता, समर्थता एवं सुन्दरता के अजस्र भण्डार भरे और बिखरे पड़े हैं मिट्टी का रासायनिक विश्लेषण करते चलने पर उसमें एक से एक अधिक महत्वपूर्ण तत्व एवं यौगिक उपलब्ध होते हैं। निर्जीव मिट्टी में जीवाणुओं की एक अलग ही दुनिया बसी पड़ी है। रेत का हर कण अपने को असंख्य प्रकार की हलचलों का केन्द्र बनाकर गतिशील रह रहा है। तुच्छतम परमाणु के भीतर उसका एक निजी सौर-मण्डल अपनी परिपूर्णता एवं विलक्षणता का परिचय दे रहा है। अणु विस्फोट जैसे अवसरों पर हम अणु ऊर्जा की-इतनी छोटी झाँकी कर पाते हैं जो उसकी समग्र क्षमता का एक लाखवें अंश से भी कम मात्रा में प्रकट हो सका होता है।

जड़-पदार्थों की शृंखला पारस्परिक सहकार और अन्योन्याश्रय के धागे में कितनी मजबूती के साथ बँधी है इसे तत्वदर्शी भली प्रकार देख और समझ पाते हैं। उन्हें लगता है अपने आस-पास जो कुछ मौजूद है इसे तिलस्म अथवा जादू नगर से कम विचित्र नहीं समझा जा सकता। आत्मिक दृष्टि जिन्हें प्राप्त है, वे इस निर्जीव नीरस के भीतर यथार्थता, चेतनता और सुन्दरता की झाँकी करते हैं। उन्हें सृष्टि के कण-कण में सत्यं शिवं सुन्दरम् का आभास होता है। विशाल विश्व को जो विराट ब्रह्म के रूप में देखते हैं, वे भ्रमित नहीं हैं। दृष्टिकोण परिष्कृत हो तो अपना यही संसार सत्-चित् आनन्द से परिपूर्ण परमेश्वर का परम पवित्र प्रतीक विग्रह दृष्टिगोचर होता है। तब यही सरसता और सुन्दरता के अतिरिक्त और कुछ शेष ही नहीं रहता। भक्त की भावुकता में काल्पनिक आनन्द है, पर तत्वदर्शी के लिए तो इस प्रत्यक्ष उपस्थिति में अकल्पनीय महत्ता का अनुभव होता है। मातृ-भूमि के लिए-विश्व वसुधा के मन में जैसी तृप्ति एवं श्रद्धा की तरंगें उठती रहती हैं, मातृ-भूमि पर बलिदान होने वाले शहीदों और विश्व-मानव के लिए आत्मोत्सर्ग करने वालों की भावुकता को यदि कोई परख सके तो उसे प्रतीत होगा कि दिव्य सम्वेदनाओं की दुनिया कितनी भाव भरी है और उस पर सबसे प्रिय समझा जाने वाला आपा भी प्रसन्नतापूर्वक निछावर किया जा सकता है।

मोटी दृष्टि से यहाँ जो कुछ मौजूद है वह अनगढ़ निर्जीवता के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा जा सकता। मानव प्राणी के लिए ईश्वर का एक ही दिव्य वरदान है-तत्व-दर्शन। गहराई तक उतरते जाने के लिए दृष्टि कौशल चाहिए-समुद्र की ऊपरी सतह पर तो कूड़ा- करकट ही तैरता-फिरता है, मोती पाने के लिए गहरी डुबकी लगाकर तली तक पहुँच सकने की प्रवीणता चाहिए। सागर का मूल्यांकन रत्नाकार के रूप में कर सकना गोताखोरों के भाग्य में ही बदा है। शेष लोगों के लिए तो अपेय खारी पानी की यह जल राशि ज्वार, भाटों के रूप में तटवर्तियों को निगल जाने की ही धमकी देती रहती है।

विद्यमान सम्पदा का मूल्यांकन और उसे उपलब्ध करने का साहस कर सकना सुसंस्कृत दृष्टिकोण के लिए ही सम्भव है। वे ही सहज उपलब्धियों का सदुपयोग कर सकने का प्रयास करते हैं और क्रमशः अधिकाधिक ऊँचाई पर चढ़ते-उठते जाते हैं। जीवन की सरसता का आनन्द ले सकना ऐसी ही लोगों के लिए सम्भव होता है।

स्थूल वैभव और सूक्ष्म सौन्दर्य की प्रचुरता हम किसी भी पदार्थ का गहरी दृष्टि से पर्यवेक्षण करने पर सहज ही कर सकते हैं। दूर जाने की जरूरत नहीं। सबसे समीपवर्ती पदार्थ अपने शरीर पर ही दृष्टि डालें और उसकी ऊपरी परत चमड़ी को निहारें तो स्थूल और सूक्ष्म के अन्तर को समझ सकना सम्भव हो सकता है। चमड़ी ऊपर से देखने में एक पूरे प्लास्टिक की थैली जैसी लगती है जिसके भीतर सड़ा-गला, कूड़ा -कबाड़ा मात्र भरा हुआ है। किन्तु उसी को यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि इसमें झिल्ली की पतली परत में कितने बड़े कल-कारखाने जैसी हलचलें हो रही हैं।

हमारी त्वचा के तीन हिस्से हैं-(1) ऊपरी चमड़ी (2) भीतरी चमड़ी (3) हड्डी के ऊपर के ऊतक। ऊतकों वाली परत में रक्त-वाहिनियाँ, तन्त्रिकाएं और वसा के कण होते हैं।

एक वर्ग इंच त्वचा में लगभग 72 फुट लम्बाई वाला तन्त्रिका जाल बिछा रहता है और इतने ही स्थान की रक्त-वाहिनी नलिकाएं 12 फुट से अधिक ही लम्बी होती हैं। ये रक्त-वाहनियां शीत-ताप नियन्त्रक होती हैं। ठंड में सिकुड़ जाती हैं, गर्मी में फैल जाती हैं। सर्दी में सिकुड़ने से कम ताप खर्च होती है और शरीर का ताप सामान्य बना रहता है। गर्मी में फैलने पर ताप के अधिक व्यय से यही सन्तुलन बना रहता है वाहिनियों, तन्त्रिकाओं और वसा के कणों के ही कारण चमड़ी हड्डियों से चिपकी रहती है। आयु, वृद्धि के साथ-साथ जब वसा-कण सूखने लगते हैं, तो चमड़ी झुर्रीदार होती जाती है। भीतर चमड़ी में तन्त्रिकाओं, रक्त -वाहिनियों के साथ ही पसीने की ग्रन्थियाँ, स्निग्धता की ग्रन्थियाँ और रोमकूप होते हैं। तन्त्रिकाएं त्वचा स्पर्श से उठी अनुभूति तरंगें, टेलीफोन के तार की तरह मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं और मस्तिष्कीय निर्देश-सन्देश विभिन्न अवयवों तक ले जाती हैं।

लगभग 2 लाख स्वेद ग्रन्थियाँ शरीर के हानिकारक पदार्थों को पसीने के रूप में निकालती रहती हैं। पसीना निरन्तर रिसता रहता है। भले वह दीखता बूँदों के रूप में बाहर आने पर ही है। पसीने के रूप में सतत रिसती गन्दगी की परत चमड़ी पर जमने लगती है। स्नान द्वारा उसकी सफाई जरूरी है। सफाई न होने पर स्वेद बहाने वाले छेद बन्द हो जाते हैं और यही दाद, खाज, जुएँ आदि विकारों का कारण बनता है।

चमड़ी के नीचे है माँस-पेशियाँ। माँस-पेशियाँ सुदृढ़ व सन्तुलित रहीं तो स्वास्थ्य और सौन्दर्य झलकता है। फैली, सूखी बेडौल हुईं तो शरीर कुरूप हो जाता है। अनावश्यक आराम अथवा अत्यधिक श्रम, दोनों ही माँस पेशियों को अशक्त और बेडौल बनाते हैं। शरीर के सभी अवयवों को समुचित श्रम का अवसर मिलने से वे सुडौल रहती हैं। श्रम-सन्तुलन ही व्यायाम है। माँस-पेशियों की बनावट और भार के आधार पर ही व्यक्ति पतला या मोटा दिखता है।

माँसपेशी बारीक तन्तुओं से मिलकर बनती हैं। ये बारीक तंतु अपने से एक लाख गुना भार उठाने में समर्थ होते हैं। माँसपेशियों में तीन चौथाई पानी और एक चौथाई प्रोटीन होता है ।

माँसपेशियाँ सीधे मस्तिष्क द्वारा नियंत्रित होती हैं। कुछ माँसपेशियों की गतिविधियाँ हमें अनायास ही चल रही दिखती हैं, स्वयं संचालित-सी। जैसे फेफड़ों का सिकुड़ना, फैलना, हृदय का धड़कना, रक्त का दौड़ना, पलकों का झपकना, भोजन का पचना और मल का बाहर निकलना आदि। ये क्रियाएँ अनायास नहीं होतीं, हमारे अचेतन मन के अधीन होती हैं। शेष माँसपेशियाँ सचेत मन के द्वारा नियन्त्रित -निर्देशित दिखती हैं।

माँसपेशियों को प्रशिक्षित अनुशासित किया जा सकता है। नृत्य, सर्कस आदि में यह प्रशिक्षण व अभ्यास ही काम आता है। उछलना, कूदना, मुड़ना आदि हरकत माँसपेशियों की लोच के कारण ही सम्भव होती है। इन्हीं लोचदार माँसपेशियों के कारण चोट लगने पर भी हमारी हड्डियाँ प्रायः बच जाती हैं। वरना वे चाहें जब टूट जाएँ। पुरुषों की पेशियाँ स्त्रियों से अधिक कड़ी व दृढ़ होती हैं। शरीर में हाथों की पेशियाँ अधिक सशक्त होती हैं।

यह तो चमड़ी और उसके साथ चिपके हुए पेशी संस्थान की बात हुई, इससे नीचे के अवयव कितनी विचित्र हलचलों में अहर्निश लगे रहते हैं। गुर्दे और जिगर के दो अवयवों पर शरीर शास्त्रानुमोदित आरम्भिक ज्ञान स्तर की दृष्टि डालकर भी इसकी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। अवयवों में सबसे छोटे पुर्जे हैं- दो गुर्दे। वे रीढ़ की हड्डी से सटे, भूरे-कत्थई आकार के-मुट्ठी के बराबर देखने में लगते हैं मानो सेम के बड़े बीज हों। वजन डेढ़ सौ ग्राम-मुख्य काम मूत्र-निर्माण। अर्थात् रक्त का अनावश्यक एवं गन्दगी भरा जल छाँट-छाँटकर अलग करना और बाहर निकालना। बाँई ओर का गुर्दा थोड़ा ऊपर होता है और दाँई ओर का नीचे, ताकि सामान्य क्रिया-कलाप में कोई कठिनाई न हो । प्रत्येक गुर्दा 4 इंच के करीब लम्बा, 2॥ इंच चौड़ा और दो इंच मोटा होता है। रक्त में घुले रहने वाले नमक, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम आदि की मात्रा बढ़े न क्योंकि इनके बढ़ने का शरीर पर गलत असर पड़ेगा, इसके लिए गुर्दे सदा सतर्क रहते हैं। ये रक्त में क्षारीय और अम्लीय अंश को भी सन्तुलित रखते हैं।

एक घण्टे में दोनों गुर्दे इतना रक्त छानते हैं कि वजन लेने पर उसका भार शरीर से दुगुना निकले। इस तरह गुर्दे छलनी का काम करते हैं। छाने हुए रक्त का उपयोगी अंश गुर्दों की नलिकाएं रोक लेती हैं। इन नलिकाओं की संख्या 10 लाख से अधिक होती है, यदि इन्हें लम्बाई में एक कतार में फैलाया जाय तो ये 110 किलोमीटर लम्बी निकलेंगी। नलिकाएं रक्त से छाने हुए विटामिन, शर्करा, हारमोन्स और अमीनो अम्ल तो रक्त को वापस दे देती हैं और नमक तथा अन्य विजातीय द्रव्यों को गुर्दे शरीर के बाहर कर देते हैं। अनावश्यक नमक यदि शरीर में ही रुक जाय, तो सूजन शुरू हो जाए। प्रतिदिन दो लीटर मूत्र बनाकर गुर्दे नमक, फास्फेट, सल्फेट, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम-लोहा, क्रिएटाइनिन, यूरिया, अमोनिया, यूरिक एसिड, हिप्यूरिक एसिड, नाइट्रोजन आदि की अनावश्यक मात्रा शरीर के बाहर धकेलते रहते हैं। मूत्र सामान्यतः हल्का पीला होता है। दोनों गुर्दों में परस्पर सहयोग का क्या कहना? एक खराब हो जाए तो दूसरा उसका भार स्वयं संभालकर पूरी तरह दायित्व का निर्वाह करता है।

इसी तरह का एक अन्य छोटा पुर्जा है-जिगर। स्त्रियों का जिगर पुरुषों से थोड़ा हल्का होता है। पुरुषों का जिगर सामान्यतः सवा से डेढ़ किलोग्राम रहता है। जिगर दाहिनी पसलियों के नीचे तनुपट से सटा रहता है और शरीर का एक चौथाई रक्त इसमें ही भरा होने से भूरे, लाल रंग का दिखता है तथा टटोलने में कठोर लगता है। इस जिगर की कोशिकाएँ विलक्षण हैं। एकबार नष्ट होने पर वे दुबारा बन जाती है। इसी से जिगर का तीन चौथाई हिस्सा नष्ट भी हो जाय तो शेष एक चौथाई से काम चल सकता है। कुपोषण के कारण जिगर का पर्याप्त विकास नहीं हो पाता और पाचन सम्बन्धी अनेक रोग हो जाते हैं। सन्तुलित आहार द्वारा इन्हें पर्याप्त प्रोटीन मिला तो ये स्वस्थ रहते हैं। प्रोटीन की कमी से कमजोर हो जाते हैं।

गुर्दे ओर जिगर की सामान्य हलचलें भी यों कम आश्चर्यजनक नहीं हैं, पर जब उनके सहयोग से चलने वाले शरीर सन्तुलन की बात सोचते हैं तो प्रतीत होता है उनका जीवन धारण में कितना अधिक महत्व है। समझने को तो हृदय और मस्तिष्क को जीवन का आधार कहा जाता है। किन्तु उसकी सत्यता को चुनौती दिये बिना यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त दो पुर्जों में तनिक भी खराबी आ जाय तो दुर्बलता, रुग्णता तथा मरण की परिस्थिति आ धमकने में तनिक भी देर न लगेंगी। दोनों समूचे शरीर के आधार-भूत रक्त-संस्थान को स्वच्छ, स्वस्थ और सशक्त रखने की आधार-भूत भूमिका निवाहते हैं। पर सामान्यतया उनका क्रिया-कलाप कोई अधिक महत्वपूर्ण नहीं होता।

बाल सदा तिरछे निकलते हैं। पर कड़ाके की ठण्ड में या डर के मारे अथवा रोमाँच होने पर बाल खड़े हो जाते हैं। बालों की जड़ों में छेदों द्वारा चिकनाई पहुँचती है। रोमकूपों से जितनी स्निग्धता निकलेगी, बाल उतने ही कोमल और चिकने होंगे। पेट या दाँत खराब होने पर यह स्निग्धता नहीं निकल पाती और बाल उम्र से पहले सफेद होने लगते है। वृद्धावस्था में रोमकूप शुष्क होने लगते हैं, तब बालों की श्यामलता सफेदी में बदलने लगती है।

बालों का मूल्यांकन यों शोभा, शृंगार के निमित्त ही किया जाता है और उनकी साज-संभार में इसी तथ्य को प्रश्रय दिया जाता है कि चेहरे की सुन्दरता पर उनका क्या प्रभाव पड़ता है ? स्थूल दृष्टि से नीचे उतर कर उनके साथ जुड़े हुए वसा एवं प्रोटीन प्रक्रिया की परिस्थिति को समझा जा सके तो वे मीटरों की तरह मशीन की भीतरी स्थिति का परिचय देते पाये जायेंगे। इतनी ही नहीं उनके सहारे मस्तिष्कीय स्तर तथा भावनाओं के उभार का भी पता चल सकता है। पंच केश रखाने तथा उनका मुण्डन करा डालने की आध्यात्मिक परम्पराओं के पीछे मनःसंस्थान को अमुक दिशा में मोड़ने-मरोड़ने के लिए सारगर्भित प्रयत्न किया जाता है।

बात चमड़ी, माँसपेशी, गुर्दे, जिगर या बालों की विवेचना करने की नहीं, वरन् यह बताने की है कि मोटी दृष्टि से इनका कोई महत्व प्रतीत नहीं होता, पर उनकी कार्य-क्षमता और उपयोगिता कितनी अधिक है यह समझना तब सम्भव होता है जब उनके विकृत हो जाने पर उत्पन्न होने वाले विग्रहों की विभीषिका सामने आती है।

अवयवों की विवेचना तो बड़ी बात है उनकी सबसे छोटी इकाई –‘जीवाणु’ का यदि पर्यवेक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि जिस प्रकार जड़ ब्रह्माण्ड का प्रतिनिधित्व छोटा-सा परमाणु करता है ठीक उसी प्रकार चेतन जगत की समस्त हलचलें जीवाणु के भीतर मौजूद हैं। परमात्मा की प्रतीक प्रतिमा जीवात्मा है। समूचा मनुष्य अपने वंशजों की असंख्य परम्पराओं को समेटे हुए छोटे से शुक्राणु में बैठा रहता है। शुक्राणु भी बड़ी बात हुई उसके भीतर पाये जाने वाले अति सूक्ष्म गुण सूत्रों की स्थिति और भी अधिक चकित करने वाली है। उसमें व्यक्तित्व की असंख्य धाराओं का-स्तरों का ऐसा संगम है कि लगता है स्थूल जीव वृक्ष के मूल में इस बीज सत्ता का ही प्रभाव और कर्तृत्व परिलक्षित हो रहा है।

ब्रह्माण्ड कितना आश्चर्यजनक है उसकी विशालता को देखते-देखते बुद्धि चकित हो जाती है। “आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनम्” की उक्ति में गीताकार ने विराट् को अति आश्चर्य माना है। काय-कलेवर की बात छोड़ दें तो ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति ही पिण्डाणु-जीवाणु भी है। विश्व कितना घटिया और कितना बढ़िया है-कितना सरस और कितना नीरस है इसकी अनुभूति स्थूल और सूक्ष्म दृष्टि के अन्तर पर अवलम्बित है।

मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि सूक्ष्म दृष्टि है। उसी विकास के साथ-साथ मनुष्य की सत्ता क्षुद्र और महान बनती रहती है।


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