महर्षि वैनतेय उस समय शिष्यों, स्नातकों से परामर्श कर रहे थे तभी वहाँ प्रवेश किया महाराज सुवर्णवाहु ने। नरेश ने सुना था महर्षि महान् अनासक्त कर्मयोगी हैं किन्तु विशाल आश्रम, उसकी अनोखी साज सज्जा, स्वर्ण मण्डित सभा सदन और स्वयं महर्षि की राजकीय वेश भूषा देखकर वे आश्चर्यचकित थे। यह निर्णय करना कठिन था कि ऐसे ऐश्वर्य के बीच रह कर भी कोई अनासक्त हो सकता है।
वे महर्षि के समीप पहुँचे, वैनतेय से उनकी प्रश्न मूलक मुद्रा छिपी न रह सकी। नृपति के वहाँ पहुँचते ही सभा विसर्जित कर महर्षि उठ खड़े हुए और महाराज सुवर्णवाहु को साथ लेकर वनस्थली के एक ओर चल पड़े।
दिन ढलता जा रहा था किन्तु ब्रह्मज्ञान की चर्चा करते हुए बढ़ रहे महर्षि वैनतेय के चरण पीछे लौटने का नाम भी नहीं ले रहे थे। राज्याधिप का ध्यान बार-बार अपनी स्वर्णवाहुकाओं की ओर, लौटने की ओर लगा हुआ था। जब महर्षि के पीछे लौटने का कोई इंगित न देखा तो उन्होंने कह ही दिया-गुरुवर! देर हो गई, मेरा वाहन, मेरी पादुकाएँ सब आश्रम में ही छूट चुके हैं क्या आप लौटेंगे नहीं?
महर्षि हँसे और बोले-राजन! कलात्मक जीवन आत्म विकास में बाधक नहीं, बाधा तो सुख सामग्री के प्रति आसक्ति ही है। आप उससे अभी तक मुक्त नहीं हो पाये जब कि मेरे लिए उनका कोई महत्व नहीं।
नरेश ने अनासक्ति का मर्म समझा और महर्षि को प्रणाम कर वापस लौट आये।
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अपनों से अपनी बात