समय भविष्य की ओर ही नहीं चलता, भूतकाल की ओर भी लौटता है।

October 1976

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आवश्यक नहीं कि जो बात एक समय सही मानी जाती है वही दूसरे समय भी उसी प्रकार मानी जाती रहे, इसी प्रकार यह भी आवश्यक नहीं कि जिस बात को आज अप्रमाणिक माना जाता है उसे भविष्य में भी वसा ही समझा जाय। उदाहरण के लिए अपने समय के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलीलियो ने ब्रह्माण्डीय गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त मानने से इनकार किया था। वे पृथ्वी की आकर्षण शक्ति को तो मानते थे, पर यह स्वीकार नहीं करते थे कि एक ग्रहपिण्ड की आकर्षण शक्ति दूसरों को भी प्रभावित करती है और इसी आधार पर वे एक दूसरे के साथ बँधे हुए हैं। न्यूटन तक ने ग्रहों के आपस में बँधे रहने वाले गुरुत्वाकर्षण को बहुत पीछे और बड़ी कठिनाई के बाद स्वीकार किया था, पर आज वे विरोध ठण्डे पड़ गये और ग्रहों के बीच गुरुत्वाकर्षण की बँधन शृंखला की वास्तविकता स्वीकार करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं है।

इस समय विश्व की उत्पत्ति के बारे में वैज्ञानिकों की मुख्य-मुख्य परिकल्पनाएँ ये हैं।

एक परिकल्पना के अनुसार अरबों वर्ष पूर्व, सम्पूर्ण विश्व का द्रव्य एक पुँजीभूत महापिंड के रूप में था। नाभिकीय कणों का सघन सम्पुँजन किया जाए तो एक घन सेन्टीमीटर स्थान में करोड़ों टन द्रव्य समा सकता है। इसीलिए सम्पूर्ण विश्व द्रव्य का महापिण्ड में सम्पुँजन सम्भव है।

इस महापिंड का विस्फोट हुआ और विस्तार होने लगा। उसी से मन्दाकिनियाँ-नीहारिकाएँ-बनीं ग्रह नक्षत्र बने, यह विस्तार अभी जारी है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि दूरस्थ आकाश गंगाएँ हमसे लगातार दूर भाग रही हैं। उनमें पृथ्वी से दूर हटने की गति पृथ्वी से उनकी दूरी के अनुपात में है। इससे स्पष्ट है कि ब्रह्माण्ड का विस्तार हो रहा है।

मन्दाकिनियों के लगातार दूर भागने की बात की पुष्टि विख्यात वैज्ञानिक प्रो0 फ्रेड हायल के एक परीक्षण से हुई है। सुदूरस्थ आकाश गंगाओं से पृथ्वी तक आने में प्रकाश तरंगों का कम्पन बढ़ जाता है। दूर से आने वाले प्रकाश का झुकाव, वर्णपट प्राप्त करने पर, नीले रंग की ओर होता है और दूर जाने वाले प्रकाश स्रोत के प्रकाश का झुकाव लाल रंग की ओर होता है। आकाशगंगाओं से आने वाली प्रकाश तरंगों के प्रकाश का वर्णपट प्राप्त करने पर, उस वर्णपट का झुकाव लाल रंग की ओर पाया गया। इससे पता चला कि आकाशगंगाएँ दूर जा रही हैं। माउण्ड पोलोयर वेधशाला की दूरबीन से भी आकाश गंगाओं की दूर हटने की प्रक्रिया देखी गई।

एक सिद्धान्त यह है कि विश्व जैसा अभी है, वैसा ही आरम्भ से है। आकाशगंगाएँ दूर भाग रही हैं, तो पास भी आ रही होंगी, जो अभी हमें दिखती नहीं। वस्तुतः यह सिद्धान्त प्रो0 हायल का है, जिसे ‘समतुलित अवस्था सिद्धान्त’ कहते हैं। प्रो0 फ्रेड हायल ने ही सर्वप्रथम यह खोजा था कि आकाशगंगाएँ पृथ्वी से दूर हट रही हैं। इससे जहाँ कुछ वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि ब्रह्माण्ड का विस्तार हो रहा है लेकिन स्वयं प्रो0 हायल का निष्कर्ष यह था कि पुरानी मन्दाकिनियाँ, जो दूर भागती दिखती हैं, अस्तित्वहीन होती रहती हैं और नई मन्दाकिनियाँ जन्म लेती रहती हैं। इससे ब्रह्माण्ड की पिंड संख्या स्थिर रहती है और घनत्व अपरिवर्तित।

टामस गोल्ड, हर्मन वाँडो, वेरोजोफ, वेल्मामिनफ आदि भी इसी सिद्धान्त को मानते हैं।

एक मत यह है कि प्रारम्भ में प्लाज्मा रूप में विश्व का समस्त द्रव्य एकत्र था। वह सन्तुलन की स्थिति थी। धीरे-धीरे असन्तुलन का आरम्भ हुआ। प्लाज्मा के कणों तथा प्रतिकणों के विस्फोट हुए। इससे फोटोन-कण निकले। फोटोन कणों यानी प्रकाश के कणों से परमाणु बने। समय बीतने पर परमाणु बादल बने, उन्हीं से क्रमशः विविध आकाशीय पिंड अस्तित्व में आए। इसका आधार कणों तथा प्रतिकणों की खोज है।

कणों तथा प्रतिकणों के ही आधार पर द्रव्य और प्रतिद्रव्य की धारणा परिकल्पित की गई है। गोल्डहानर ने एक परिकल्पना प्रस्तुत की है कि पुँजीभूत द्रव्य का महापिंड विखण्डित हो गया और विखण्डित होते ही दो विश्वों में बँट गया-एक द्रव्यमय विश्व, दूसरा प्रति द्रव्यमय विश्व।

गोल्डहानर व अन्य कुछ वैज्ञानिक एक सर्वथा भिन्न प्रति द्रव्यमय विश्व की परिकल्पना करते हैं। तो कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार इसी ज्ञेय विश्व में प्रतिद्रव्य वाली आकाशगंगाएँ अस्तित्व में हैं, किन्तु हमें उनका ज्ञान अभी सम्भव नहीं क्योंकि हम तो मात्र आकाशीय पिंडों से उत्सर्जित विकिरण द्वारा ही उन पिंडों के बारे में जान पाते है और द्रव्य तथा प्रतिद्रव्य का विकिरण एक जैसा ही होता है, इसलिए हम उसे अलग से पहचानने में असमर्थ हैं।

विज्ञानी फेयन माँ के अनुसार ब्रह्माण्डव्यापी ‘प्रति पदार्थ के अति सूक्ष्म घटक-पाजिट्रोन-काल से पीछे की ओर भी चलते हैं और उनका प्रवाह भविष्य की ओर न होकर भूतकाल की ओर लौटता है। ठीक इसी प्रकार अन्तरिक्षवेत्ता फ्रैडहायल का कथन है कि समय आमतौर पर जिस प्रकार वर्तमान से भविष्य की ओर चलता है उसी प्रकार सिद्धान्ततः वह भूतकाल की ओर गतिशील हो सकता है।

अन्तरिक्ष विज्ञान के शोधकर्ता इस तथ्य का समर्थन कर रहे हैं कि अपने सौरमण्डल में तो नहीं पर अनन्त आकाश में ऐसे कितने ही ग्रह हैं जो पदार्थ से नहीं प्रति पदार्थ से बने है। वहाँ भरे हुए परमाणुओं का ‘टेकयोन’ नाम दिया गया है। उनकी चाल प्रकाश में भी तीव्र तथा गति भविष्य की ओर न होकर भूतकाल की ओर चल रही है।

साधारणतया हम वर्तमान को भविष्य के साथ जोड़ते हैं। भविष्य की तैयारी के लिए वर्तमान को नियोजित करते हैं। कल्पनाएँ और योजनाएँ भविष्य निर्धारण के लिए जुटी रहती हैं। आकाँक्षाओं की पूर्ति आगे चल कर होने की ही बात सोची जाती है और उसी पर विश्वास किया जाता है अपनी परिस्थितियों में यही संभव भी है। जल की धारा जिस दिशा में बह रही हो-हवा जिस ओर उड़ रही हो उसी में प्रगति की उपलब्धियों की आशा करना सहज स्वाभाविक है। भूतकाल से तो इतना ही लाभ लिया जाता है कि उसके आधार पर संग्रह किये गये अनुभवों से लाभ उठाया जाय और भावी गतिविधियों के निर्धारण में उनका ध्यान जाय। मीठी कड़ुई स्मृतियां सँजोये रह कर उनके दृश्य चित्रों से अठखेलियाँ करते रहने के अतिरिक्त और कोई बड़ा प्रयोजन उनके द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता।

किन्तु तथ्य इससे भिन्न भी है। समय की गति पीछे की दिशा में लौट सकने की बात आज तो ठीक से समझ में भी नहीं आती और उस पर विश्वास करने को भी जी नहीं करता इतने पर भी तथ्य तो अपने स्थान पर बने ही रहेंगे। अन्य प्राणी वर्तमान तक ही सीमित रहते हैं उनकी भविष्य कल्पना आज का आहार पाने के अम्बन्ध में कुछ अनुमान भर लगा सकती है। वे हमारी तरह भविष्य कल्पना नहीं कर सकते। ठीक इसी प्रकार हम भी भूतकाल की कुछ अधिक प्रभावोत्पादक घटनाओं की की स्मृति तक ही सीमित रहते हैं। यदि भविष्य कल्पना में भूतकाल के अनुभव अपना समुचित योगदान दे सकें तो भविष्य निर्धारण सही भी होगा और सरल भी। किन्तु भूत के अनुभवों का लाभ तो हम यत्किंचित् ही उठा पाते हैं।

मोटर और रेलगाड़ी प्रायः आगे की ओर ही चलती है, पर उन्हें पीछे की दिशा में लौटाते हुए भी कोई विशेष कठिनाई नहीं होती। इसी प्रकार समय का आगे की तरह पीछे लौट सकना भी सम्भव हो सकता है। आमतौर से नदी में प्रवाह की दिशा में ही तैरा और बहा जाता है किन्तु कुशल तैराक के लिए यह भी सम्भव है कि वह उलटी दिशा में धारा को चीरता हुआ तैर सके, विज्ञान ने तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि भूत भी सर्वथा नहीं हो जाता। वह मस्तिष्क स्मृतिपटलों की तरह धुँधला भर होता है, अपना अस्तित्व बनाये ही रहता है। इसी प्रकार भूत गुजर भले ही गया है, पर उसका अस्तित्व इस ब्रह्माण्ड में अपनी सत्ता अक्षुण्ण रखे हुए है। राम और हनुमान के शरीर अब नहीं रहे, पर उनका व्यक्तित्व और कर्तृत्व अभी भी इस संसार में मौजूद है। यदि कोई मार्ग खोजा जा सके तो हम उलटी दिशा में तैरने वाले तैराक की तरह उन महामानवों के सम्पर्क का उसी प्रकार लाभ उठा सकते हैं जैसा कि उनके सहचर उठाया करते थे।

देव भक्ति का मूल सर्वविदित है, पर यदि हम भूत भक्ति में निष्णात हो सकें। भूत विद्या सिद्ध कर सकें तो उसका लाभ भी कम नहीं है। कहते हैं तुलसीदास को किसी भूत ने ही हनुमान और राम से उनका मिलना सम्भव बनाया है। वही भूत हमें कृष्ण के मुख से गीता सुनने का आनन्द दिला सकता है। तत्वदर्शी ऋषियों के आश्रमों में निवास करने से लेकर पृथ्वी की जन्म कथा देखने तक हमारे लिए वह सब सम्भव हो सकेगा। जो भविष्य की सुखद कल्पनाओं से भी अधिक सुखद, उत्साहवर्धक एवं उपयोगी है।

वैज्ञानिकों ने भूत की सत्ता और उपस्थिति को स्वीकार किया है अब उतना ही शेष है कि उसे वशवर्ती कैसे किया जाय। साधना ने हमें भविष्य के निर्धारण कर्त्ता का श्रेय दिया है विज्ञान के बढ़ते चरण हमें भूत के अनुग्रह से मिल सकने वाली सिद्धियों और उपलब्धियों से भी लाभान्वित कर सकेंगे ऐसी सम्भावना की नींव पड़ चुकी, अब उसके मूर्तिमान होने पर ही विश्वास किया जा सकता है।


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