गीता का प्रतिपाद्य-अनासक्त कर्मयोग

October 1976

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गीता अध्यात्म विद्या का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। सात सौ श्लोकों को अठारह अध्यायों में गूंथकर यह छोटा-सा ग्रन्थ भारतीय दर्शन का अनुपम प्रतिनिधित्व करता है। यह समस्त भारतीय ज्ञान, भारतीय दर्शन, वेद शास्त्र, उपनिषद् आदि जो कुछ भारतीय हैं और जिस पर हमें गर्व है और जिसे हम भारतीयता कहते हैं, को सही और सार रूप में प्रस्तुत करने वाली एक ही पुस्तक है।

महाभारत काल में, जब कि लोग भूल चुके थे वास्तविक ज्ञान को, जीवन के सही मार्ग और दर्शन को और उलझे हुए थे कर्मकाण्ड में ताकि कामनाओं की पूर्ति हो सके, स्वर्ग की प्राप्ति हो सके और आराम का जीवन, विलासिता का जीवन जिया जा सके, एक दिव्य प्रकाश के रूप में गीता का अवतरण हुआ, जिसने अर्जुन को मोह से छुड़ा कर कार्यरत किया और भूली हुई, भटकी हुई मानव जाति को सन्मार्ग का दर्शन कराया।

गीता में बताया गया है कि मानव जीवन का लक्ष्य कर्मकाण्ड में वर्णित सकाम कर्मों द्वारा कामनाओं की पूर्ति करना नहीं है। यह लक्ष्य कर्मों और उसके परिणामस्वरूप जन्म-मृत्यु के बन्धन में डालने वाला होने के साथ-साथ बहुत हेय है और इसकी उस लक्ष्य से कोई तुलना नहीं है जो निष्काम कर्म या अकर्म द्वारा प्राप्त होता है। उस लक्ष्य का नाम योग है। हाँ-योग। योग का अर्थ होता है मिलन, बूँद का सागर से मिलन, किरण का सूर्य से मिलन, मनुष्य की आत्मा का उस परमतत्व से मिलन जिसको ब्रह्म कहते हैं, जो इस सृष्टि का आदि और अन्त है।

वह दृश्य देखते ही बनता है, जब नदी सागर में विलीन होकर अपना अस्तित्व खो देती है। आत्मा और परमात्मा का मिलन भी ऐसा ही परम आनन्ददायक है जिस की तुलना किसी अन्य साँसारिक सुख से हो ही नहीं सकती, जिसको पाकर संसार के सारे सुख फीके पड़ जाते हैं, जिस को पाकर सदा के लिए दुःखों से निवृत्ति हो जाती है।

उस योग का सीधा और सरल उपाय गीता में बताया गया है-‘‘निष्काम कर्म’’ अर्थात् कर्म द्वारा साँसारिक उपलब्धियों की इच्छा न करके, कामना रहित, आशा रहित, राग रहित, अहंकार रहित और भय रहित होकर अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना और फल परमात्मा को समर्पित कर देना। कर्म करने के लिए मनुष्य विवश है। कर्म-बन्धन से छूटने के लिए अपनी चिन्तन प्रणाली में परिवर्तन करने में वह स्वतन्त्र है। यही मनुष्य का कर्त्तव्य है।

अपने कर्त्तव्य पालन में सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी, लाभ-हानि, जीत-हार, यश-अपयश, जीवन-मरण, भूत-भविष्य की चिन्ता न करके-कर्त्तव्य कर्म में रत रहना निष्काम कर्मयोगी का ढंग है। यह द्वन्द्व तो संसार में बारी-बारी से आते हैं और जाते हैं। इनका प्रभाव क्षणिक और अस्थाई है तथा केवल नाशवान शरीर पर प्रभाव तक सीमित है। स्थाई तो केवल आत्मा है, जो अछेद्य है, अदाहन, अक्लेद्य और अशोष्य है। उस आत्मा का उत्थान और पतन ही वास्तविक उत्थान और पतन है। आत्मा का कल्याण योग में निहित है। उसी ओर मनुष्य स्वाभाविक गति से बढ़ रहा है यदि कामना, आशा, आसक्ति और अहंकार उसमें बाधा न डालें। अतः धर्म और अधर्म, अच्छाई और बुराई, ऊँच और नीच का विचार छोड़कर अपने स्वभाव के अनुसार निष्काम कर्म करना चाहिए।

गीता में यह भी बताया गया है कि स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य चार प्रकार के होते हैं-ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र। इनके स्वभाव की व्याख्या भी की गई है। इन में छोटे-बड़े, ऊँच-नीच का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि सभी लोग अपने-अपने स्वभाव के अनुसार कार्यरत रहें तो समाज की व्यवस्था स्वाभाविक और सुचारु रूप से चलते रहने में कोई सन्देह नहीं है।

कुछ विद्वानों के अनुसार इसमें कई योगों का, कई मार्गों का प्रतिपादन है जिनमें मुख्य हैं-कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। परन्तु ऐसा भी नहीं है। युद्ध क्षेत्र में जब अर्जुन की बुद्धि अपने लिए मार्ग ढूँढ़ने में असफल रही तो दूसरे अध्याय में उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन की प्रार्थना की। दूसरे ही अध्याय में अर्जुन को मार्ग बताया गया। अर्जुन ने उसे ठीक से नहीं समझ पाया और तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में ही प्रार्थना की कि मुझे भ्रम में मत डालिए। निश्चित रूप से मुझे एक ही मार्ग दिखाइये। ऐसी स्थिति में कई मार्ग बताना तर्क संगत नहीं है। गीता में आदि से अन्त तक एक ही मार्ग का प्रतिपादन है और वह है ‘‘निष्काम कर्मयोग’’ का। इसी निष्काम कर्मयोग के मार्ग पर दो तरह के लोग चलते हैं एक वे जो वर्णाश्रम के सिद्धान्तों के अनुसार जीवन बिताते हैं जैसे राजा जनक और दूसरे वे जो वर्णाश्रम के सिद्धान्तों को नहीं मानते जैसे स्वामी विवेकानन्द और शंकराचार्य। महात्मा गाँधी भी चालीस वर्ष की अवस्था तक प्रथम वर्ग में रहे परन्तु बाद में सत्य की शोध के लिए दूसरे वर्ग में आ गये।

वास्तव में प्रत्येक मनुष्य के, व्यक्तित्व के तीन पहलू होते हैं-कर्मात्मक, ज्ञानात्मक और भावात्मक। इसलिए एक ही व्यक्ति कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का अनुसरण करता है। इन तीनों को अलग-अलग व्यक्तियों में विभाजित नहीं किया जा सकता। अर्जुन एक ही व्यक्ति थे। दूसरे अध्याय में उन्हें बताया गया कि निष्काम कर्मयोगी स्थितप्रज्ञ होता है और स्थितप्रज्ञ की पहचान उन्हें कराई गई। बारहवें अध्याय में उन्हें बताया गया कि निष्काम कर्मयोगी में आत्म-समर्पण की भावना होती है और भक्ति के लक्षण उन्हें बताये गए। तेरहवें अध्याय में उन्हें बताया गया कि निष्काम कर्मयोगी को प्रकृति-पुरुष का ज्ञान होता है और ज्ञान के लक्षण उन्हें बताये गए। चौदहवें अध्याय में उन्हें यह बताया गया कि निष्काम कर्मयोगी गुणातीत होता है और गुणातीत पुरुष के लक्षण उन्हें बताये गए। सोलहवें अध्याय में उन्हें बताया गया कि निष्काम कर्मयोगी दैवी सम्पदा सम्पन्न होता है और आसुरी सम्पदा ग्रहण नहीं करता, इसीलिए दैवी और आसुरी सम्पदा के गुण बताये गए। यद्यपि अलग-अलग अध्यायों में वर्णित होने के कारण अलग-अलग मार्गों और व्यक्तियों के लक्षण मालूम होते हैं, वास्तव में वे सब एक ही योगी के लक्षण हैं। निष्काम कर्मयोगी के लक्षण और अर्जुन को निष्काम कर्मयोगी बनने का उपदेश पूरी गीता में किया गया है।

इस प्रकार गीता के सभी अध्याय एक ही निष्काम कर्मयोग की माला में मोतियों की तरह पिरोये हुए हैं और गीता का प्रतिपाद्य विषय योग है जैसा कि प्रत्येक अध्याय के अन्त में लिखा है। उस योग अर्थात् आत्मा का परमात्मा से मिलन का उपाय निष्काम कर्म है। बार-बार योगी बनने और युद्ध करने के लिए ही गीता में कहा गया है। सकाम कर्म और आसुरी निषिद्ध कर्म की भर्त्सना की गई है।

वास्तव में गीता में एक ही योग है, एक ही मार्ग है, एक ही ज्ञान है, एक ही भक्ति है और विश्व को देखने का एक ही दृष्टिकोण है। निष्काम कर्मयोगी का वही मार्ग, वही ज्ञान, वही भक्ति और वही दृष्टिकोण होता है। उसी मार्ग का अनुसरण करने के लिए मानव मात्र का आवाहन किया गया है। वह मार्ग सबके लिए खुला है। कोई पापी या दुराचारी ही क्यों न हो इस मार्ग का अनुसरण करके पवित्रात्मा हो जाता है।

गीता एक ऐसे समाज की कल्पना करती है जिसमें प्रत्येक मानव को स्वतन्त्रता और समानता का अधिकार है। मनुष्य और मनुष्य के बीच धर्म, जाति, वर्ण, लिंग और धन की दीवारें नहीं हैं। प्रत्येक मानव अपने स्वभाव के अनुसार अनासक्त और निष्काम होकर मानव जाति की सेवा में लगा रहना अपना कर्त्तव्य समझता है तथा अकर्मण्यता, आलस्य और असुरता को त्याज्य मानता है। उसकी अपनी कामनाएँ और आवश्यकताएँ नहीं हैं। समाज की प्रगति और सम्पन्नता ही उसकी प्रगति और सम्पन्नता है। इस प्रकार के समाज का निर्माण करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है। इन्हीं तथ्यों पर प्रकाश डालना और उन्हें अपनाने के लिए जनसाधारण को प्रोत्साहित करना यही ही गीता का उद्देश्य है। इसी को गीता का प्रतिपाद्य अनासक्त कर्मयोग कह सकते हैं।

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