भोजन की तरह उपवास भी आवश्यक है।

October 1976

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मनुष्य को सभ्य बनाने में प्रकृति का बड़ा हाथ रहा है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य ने अपने खानपान की ओर ध्यान देना आरम्भ किया। प्राचीन काल में भोजन के लिए फल, कच्चा माँस, दूध, हरी पत्तियाँ आदि प्रयोग में आती थीं, लेकिन आज के समाज में मानव की आवश्यकताएँ चटपटा भोजन मिर्च मसालेदार पदार्थ, शराब, चाय, तली हुई वस्तुएं एवं अचार से पूर्ण होती हैं। मानव की कोमल आँतें चाहे इस प्रकार के भोजन को पचाने में सक्षम न हों लेकिन चटोरी जीभ के स्वाद के वशीभूत होकर इस प्रकार का खर्चीला एवं कष्टदायक भोजन बनाने के लिए मजबूर होता है।

जिस तरह कल कारखाने में कार्य वाली मशीन को कुछ घण्टे आराम की आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार भोजन के अत्याचार से दुःखी हुए पेट को भी आराम की आवश्यकता पड़ती है। इस विषय में जानवर अधिक समझदार दिखलाई देता है क्योंकि देखा जाता है कि जब जानवर अपना उपवास करता है तो कितना ही प्रयत्न किया जावे वह भोजन नहीं करता।

उपवास से आन्तरिक शुद्धि एवं आँतों की सफाई होती है यही कारण है कि महात्मा गाँधी कई बार अपनी आन्तरिक सफाई के लिए उपवास किया करते थे। मनुष्य को भी बीमारी एवं आन्तरिक सफाई के लिए उपवास रामबाण औषधि है। हर धार्मिक ग्रन्थ में उपवास के लिए लिखा गया है। जैन सम्प्रदाय में उपवास के लिए परयूशण, हिन्दुओं में अमावस्या, एकादशी, पूर्णिमा व्रत आदि और मुसलमानों में रोजा इसके उदाहरण हैं। साधारणतया यह देखने में आता है कि उपवास के दिन अच्छी-अच्छी मिठाइयाँ एवं गरिष्ठ भोजन ठूँस-ठूँस कर खाया जाता है इस प्रकार के उपवास से लाभ की अपेक्षा हानि अधिक होने की सम्भावना है अतः ऐसा उपवास ही न किया जाये तो अच्छा है। उपवास को विधिपूर्वक करने से ही स्वास्थ्य लाभ मिलता है। अधिक और न पचने वाले पदार्थ खाकर किया जाने वाला उपवास हमेशा हानिकारक होता है। पेट से अनावश्यक काम न लेने से मानव की बहुत सी शक्ति व्यर्थ नष्ट होने से बच जाती है। मस्तिष्क एवं पेट एक दूसरे के विरोधी लगते हैं, यदि पेट भरा रहे तो मस्तिष्क से कार्य नहीं लिया जा सकता और मस्तिष्क से कार्य लिया जाये तो पाचन क्रिया में बड़ी बाधा पड़ती है दोनों एक दूसरे के बाधक हैं। मस्तिष्क से काम उसी समय लिया जा सकता है जब पेट को अपना कार्य करने में आराम मिले।

उपवास की आवश्यकता-आज के जीवन में बढ़ते हुए वैद्य, डॉक्टर, हकीमों की संख्या इस बात का प्रमाण देते हैं कि हमारी जीवन प्रणाली में कोई भयंकर भूल है। बहुत सी बीमारियाँ आवश्यकता से अधिक भोजन का ही परिणाम हैं कुछ बीमारियाँ इसके विपरीत कुपोषण व कम भोजन मिलने से भी हो सकती हैं लेकिन वे कम व गरीब वर्ग में मिलेंगी। लोगों ने पेट को तो अच्छा खासा स्टोर रूम समझ रखा है जिसमें चाहे जितना ही भरते जाओ उसको रखने का कार्य है। भोजन करने का भी समय होता है लेकिन आजकल का मानव सुबह से शाम तक खाता ही रहता है। सुबह उठते ही चाय, फिर सुबह का नाश्ता, दिन में चाय, दोपहर को लंच, शाम की चाय, रात्रि का भोजन, इसके बाद सोते समय दूध। अब आप ही सोचिये कि इतना सारा भोजन पेट कैसे पचा सकेगा? लोग यह भी नहीं सोचते कि आँतों पर इतना अधिक कार्य पड़ने पर उन पर तनाव आ जाता है और उनकी कार्य शक्ति क्षीण होती चली जाती है। अतः पूर्ण रीति से पाचन कार्य नहीं होने पाता और अपचा भोजन आँतों के किसी कोने में जमा हो जाता है। आँतें इस मल का रस चूसती रहती हैं अतः धीरे-धीरे उपेक्षित मल कड़ा पड़ता जाता है और जब अधिक कड़ा पड़ जाता है तो उसकी रगड़ से कमजोर आँतों में घाव पड़ जाते हैं। इसके कारण आँव आदि शरीर के द्वारा बाहर निकालने का कार्य आंतें करती हैं। पेट में दर्द होता है और पेट दर्द से भयंकर बीमारियाँ होने लगती हैं।

इन सब बीमारियों से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है वह है ‘उपवास’। सप्ताह में एकबार तो निश्चित रूप से उपवास करना ही चाहिए। लम्बी बीमारियों में लम्बा उपवास करने की आवश्यकता है। इससे पेट का उपेक्षित मल धीरे-धीरे निकल जाता है। अधिक भोजन का भार न पड़ने के कारण आँतें अपना कार्य पूरी सजगता से करती हैं। हमारे देश में अन्न की भी कमी है जो विदेशों से निर्यात किया जाता है। अतः सप्ताह में एकबार उपवास करने से अन्न के खर्चे में भी बचत हो सकेगी, यही कारण था कि भूतपूर्व प्रधान मन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री ने सोमवार का व्रत रखने पर जोर दिया था।

उपवास करने की विधि-उपवास का अर्थ है पेट को आराम दिया जाय और भोजन का पूर्णतः त्याग किया जाय। उपवास करते समय ध्यान रखना चाहिए कि बदपरहेजी न हो और उपवास करने के पहले दिन संध्या समय भोजन न करके केवल फलों को लेना चाहिए, उबली हुई तरकारियाँ व हरी सब्जी जैसे गाजर, मूली, टमाटर आदि भी ली जा सकती हैं। उपवास के दिन प्रातः काफी मात्रा में जल पीकर टहलना चाहिए। अगर आवश्यकता हो तो एनीमा भी लिया जा सकता है। दिन भर पानी पीना चाहिए, यदि कमजोरी मालूम पड़े तो नींबू और शहद का पानी लिया जा सकता है। उपवास के दिन कठिन परिश्रम नहीं करना चाहिए, जहाँ तक सम्भव हो आराम करना चाहिए। उपवास के दूसरे दिन हल्का एवं सुपाच्य भोजन करना चाहिए जैसे फल, सादा भोजन, दूध, दलिया, खिचड़ी इत्यादि ली जा सकती है।

बीमारी में उपवास का अधिक महत्व बढ़ जाता है क्योंकि सब रोगों की जड़ पेट ही है और जब तक उसे साफ न रखा जाये तब तक शरीर की किसी भी बीमारी को दूर नहीं किया जा सकता। अतः पेट की सफाई व मन की शान्ति के लिए लम्बा उपवास आवश्यक है। जैसे शरीर को नई स्फूर्ति सोने व विश्राम से मिलती है, उसी प्रकार आँतों को स्फूर्ति उपवास से मिलती है।

उपवास से लाभ-हमारा शरीर दो कार्य करता है-(1) पाचन (2) निष्कासन इसी तरह भोजन भी हमारे पेट में तीन कार्य करता है-(1) शारीरिक मेहनत के समय जो कोष (सैल) टूट जाते हैं उनकी मरम्मत करना (2) जीवन सत्ता बनाये रखने के लिए आवश्यक जीवनदायिनी शक्ति उत्पन्न करना (3) खाद्य-पदार्थों के जलने से शरीर को गर्मी प्रदान करना, भोजन से रस बनते हैं और रसों से रक्त बनता है। रक्त से हमें शक्ति और पुष्टि मिलती है। सभी भोजन रस और रक्त के रूप में परिवर्तित नहीं होता, उसमें से बहुत सा निष्क्रिय अंश बच जाता है। साधारण अवस्था में दोनों क्रियाएँ पाचन व निष्कासन नियमित रूप से बिना बाधा के होती रहती हैं, किन्तु उपवास के समय में भोजन न करने के कारण शरीर के पाचन का कार्य बन्द हो जाता है केवल निष्कासन का कार्य करता है। अतः शरीर अपनी पूर्ण शक्ति के साथ उस कार्य में जुट जाता है और जब पेट का विकार निष्कासन की क्रिया से निकल जाता है तो शीघ्र ही शरीर निरोग हो जाता है।

किसी भी रोग अथवा व्याधि के समय हमारी सारी शक्ति रोग से जूझने में लगी रहती है। ऐसे समय हमें स्वभावतः भोजन से अरुचि हो जाती है मानो हमारी जठराग्नि यह सूचना दे रही है कि रसोई घर की मरम्मत की आवश्यकता है, मैं अपना कार्य भण्डार में रखी हुई चीजों से चलाकर वह मरम्मत कर डालूँगी। दूसरे शब्दों में हमारी शारीरिक क्रिया में जहाँ किसी प्रकार का व्यतिक्रम होता है हमारी भूख बन्द हो जाती है और इस प्रकार वह उपवास के महत्व की घोषणा करती है। अस्तु कड़ी भूख लगने की प्रतीक्षा में तो नित्य ही उपवास करना चाहिए। इसके अतिरिक्त सप्ताह में एक दिन या आधे दिन उपवास करने की भी आदत डालनी चाहिए इससे स्वास्थ्य सुधार में निश्चित रूप से सहायता मिलेगी।

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