कोई काम न तो सरल है और न कठिन

October 1976

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संसार में हर काम कठिन है और हर काम सरल। सरल वे हैं जिन्हें खेल की तरह, दिलचस्पी के साथ और अपनी क्षमता के विकास का अभ्यास समझ कर किया जाता है। कठिन वे हैं जिन्हें आशंका, उदासी और भार बेगार की तरह किसी प्रकार पूरा किया जाता है।

जब यह लगता है कि यह काम किसी ने सिर पर थोपा है-उसे करने के लिए मजबूर किया है और उसे पूरा करके में अपनी व्यक्तिगत दिलचस्पी नहीं है तो उस पर मन एकाग्र नहीं होता। मन कहीं- शरीर कहीं की विश्रृंखलित स्थिति में अपनी क्षमता का तीन चौथाई भाग ऐसे ही बिखरा पड़ा रहता है और नष्ट होता है। एक चौथाई मनःशक्ति लगने पर हाथ में लिया हुआ काम अनेकों त्रुटियों से भरा, अपूर्ण और अस्त-व्यस्त रहेगा। शरीर में उसे करने की क्षमता होते हुए भी उचित परिश्रम करते न बन पड़ेगा । खाद और पानी न मिलने पर पौधे सूखते-मुरझाते हैं। समुचित श्रम और रुचिर मनोबल का खाद, पानी पाये बिना किसी कार्य को सुन्दरता और सफलता के साथ सम्पन्न नहीं किया जा सकता। आधे अधूरे मन से और भार-भूत समझ कर किये गये अलसाए शरीर के काम उस स्तर के हो ही नहीं सकते जिन्हें देख कर अपने मन की कली खिले और दूसरे लोग जिसे देखकर अनुकरण का उत्साह ग्रहण करें।

छोटे से छोटा और सरल से सरल काम भी भारी पड़ेगा यदि उसमें व्यक्तिगत दिलचस्पी न होगी। जेलखानों में बन्द रहने वाले कैदियों को सामान्य किसान, लुहार या श्रमिक की अपेक्षा कम और क्रमबद्ध काम ही करना पड़ता है, पर वे शारीरिक शक्ति रहते हुए भी उतने से ही बेतरह थक जाते हैं और-अपने दुर्भाग्य को कोसते हैं। साथ ही जेल अधिकारी भी उस काने-कुबड़े काम को देखकर असन्तुष्ट रहते हैं उन्हें लगता है कि इनसे न करा कर यही कार्य किन्हीं दूसरों से पैसा देकर कराया गया होता तो आर्थिक लाभ भी रहता और काम भी अच्छा होता। मुफ्त में किया गया कैदियों का काम बाजारू मोल की तुलना में सस्ता नहीं महंगा पड़ता है।

इसके विपरीत जहाँ दिलचस्पी का का समावेश है उसकी शोभा और विशेषता देखते ही बनती है। प्रेयसी अपने भावी पति को उपहार में देने के लिए जो स्वेटर बुनती है उसका एक-एक फन्दा किस खूबसूरती और मजबूती के साथ लगा है यह देखते ही बनता है। माता अपने हाथ से अपने बच्चों के लिए जो भोजन बनाती है उसका स्वाद और गुण सहज ही सराहा जा सकता है। किसान दुबला और रुग्ण होने पर भी कितने अधिक घण्टे तक, कितना अधिक काम, कितनी अच्छी तरह पूरा करता है, उसका लेखा-जोखा लेने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने परिवार की सुव्यवस्था के साधन जुटाने वाले कृषि कर्म में उसे कितनी अधिक दिलचस्पी थी और उसकी रुचि ने कितनी विषम स्थिति रहने पर भी कितनी अच्छी तरह उस काम को करा लिया।

अमीरों के बच्चे अक्सर बुद्धू, कामचोर, असफल और अदक्ष रहते हैं। इसके विपरीत गरीबों के लड़कों में तेजी एवं प्रतिभा की बहुलता पाई जाती है। उसमें अमीरी-गरीबी को श्रेय दोष देना व्यर्थ है। कारण यह है कि अमीर का लड़का यह अनुभव नहीं करता कि काम को तत्परतापूर्वक करने और सफलता पाने की उसे भी कुछ आवश्यकता है। घर में जब सभी सुविधा साधन मौजूद हैं तो वह परिश्रम के झंझट में पड़ने की अपेक्षा मौज-मजा करने में ही समय क्यों न गुजारे? यह विचार मन में आते ही मस्तिष्क की दक्षता और शरीर की क्षमता विदा होने लगती है और वह लड़का बुद्धू एवं असफल रहने लगता है। इसके विपरीत गरीब का बालक सोचता है-उसे अपने पैरों पर ही खड़ा होना है, अपने ही बलबूते जिन्दगी काटनी है। आज का आलस्य कल दरिद्र बनकर सामने आ खड़ा होगा और पग-पग पर नीचा दिखावेगा। यह विचार उसे तिलमिला देता है और जैसी भी कुछ हलकी पूरी योग्यता थी-जैसी भी कुछ कानी-कुबड़ी परिस्थिति थी उसी को समेट, सँजोकर तत्परतापूर्वक प्रयत्नरत होता है और अन्ततः उतनी अधिक प्रगति कर लेता है कि समीक्षा करने वाले अचम्भे में रह जाते हैं।

हर व्यक्ति में दक्षता के बीज समुचित मात्रा में विद्यमान रहते हैं। प्रश्न इतना भर है कि उनके विकास का प्रयत्न किया गया या नहीं। मस्तिष्कीय दुर्बलता से ग्रसित कालिदास का विद्वान होना, सदा बीमार रहने वाले सेन्डो का विश्व विख्यात पहलवान बनना और दस्यु बाल्मीक का उच्चकोटि का ऋषि बनना यह बताता है कि अनभ्यस्त दिशा में प्रगति कर सकने की क्षमताएँ भी मनुष्य में विद्यमान रहती हैं। यदि मनुष्य उनके विकास की आवश्यकता सच्चे मन से गहरी सम्वेदना के साथ अनुभव करे तो भीतर से इतना उत्साह उठेगा कि प्रसुप्त क्षमताओं के सजग सक्रिय होने में देर न लगेगी। बहुधा किसी बड़ी ठोकर के लगने के बाद आदमी अधिक सक्रिय और सफल होता है। इसका कारण अत्यन्त स्पष्ट है कि विपत्ति ने उसकी आन्तरिक सुषुप्ति को झकझोरकर रख दिया और उसे सक्रियता की गरिमा स्वीकार करनी पड़ी।

आवश्यक नहीं कि हर व्यक्ति को गरीबी या मुसीबत के थपेड़े ही सक्रिय बनावें। प्रश्न दिलचस्पी का है। वह बिना दरिद्र और बिना विपत्ति के भी लग सकती है। यदि कार्य की दक्षता को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया जाय और उस आधार पर अपनी प्रतिभा, गरिमा को विकसित करने का लक्ष्य रखा जाय तो यह विश्वास जमेगा कि हाथ में लिया हुआ हर काम अपने वर्चस्व का प्रमाण बनकर बाहर आये। अधूरे और बेतुके काम को यदि अपनी निन्दा, निकृष्टता का उद्घोष समझा जा सके तो फिर मन यही कहेगा कि जो कुछ किया जा रहा है वह शानदार होना चाहिए ।

ऐसी ही मनःस्थिति में मनुष्य की दक्षता का विकास होता है। जो योग्यता पहले नहीं थी वह धीरे-धीरे बढ़ती चली जाती है। एकाग्रता और दिलचस्पी से बढ़कर जादुई शक्ति और कुछ नहीं , उन्हें जहाँ भी नियोजित किया जाता है वहाँ योग्यता की कमी नहीं रहती। कुछ पहले दिनों जिन कार्यों में अपनी अनभिज्ञता और अयोग्यता थी भी उन्हीं कार्यों में थोड़ी ही समय के उपरान्त प्रखर प्रवीणता दिखाई पड़ती है, इसका कारण कोई दैवी चमत्कार नहीं वरन् यह है कि उस दिशा में पूरा मनोयोग लगाया गया और पूरी तत्परता के साथ प्रयत्न किया गया।

जन्म-जात प्रतिभा में न्यूनाधिकता हो सकती है। कुछ लोग आरम्भ से ही चतुर होते हैं और अपेक्षाकृत कम समय और कम परिश्रम से सफलता पा लेते हैं । किन्तु यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि दूसरों में वे योग्यताएँ हैं ही नहीं। हर मनुष्य में हर स्तर की क्षमता बीज रूप में विद्यमान है। प्रयत्नपूर्वक उन्हें जगाया और बढ़ाया जा सकता है। अधिक समय लगे और अधिक श्रम करना पड़े यह बात दूसरी है, पर मन्दमति कहे जाने वाले भी अध्यवसाय का सहारा लेकर उतने ही ऊँचे उठ सकते हैं, उतने ही सफल हो सकते हैं जितने कि जन्म -जात प्रतिभा वाले होते देखे जाते हैं।

काम कौन-सा कठिन है कौन-सा सरल इसकी व्याख्या विवेचना करनी हो तो यही कहना चाहिए कि जिस कार्य में जितनी कम दिलचस्पी और तत्परता होगी वह उतना ही कठिन होगा और जिसमें मनोयोग, अभिरुचि एवं श्रमशीलता का जितना पुट लगेगा वह उतना ही सरल होगा। मनुष्य आकाश-गगन से लेकर समुद्र तल की गहराई में उतरने तक के जोखिम भरे काम हँसते-खेलते पूरे करते हैं और नगण्य से घरेलू काम आधे-अधूरे, सड़े-मरे, जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े रहते हैं। जरा-जरा से कामों में असफल होना और दुस्तर समझे जाने वाले कामों का सुसम्पन्न होना यह सिद्ध करता है कि अमुक काम को सरल या अमुक काम को कठिन कहना व्यर्थ है। रुचि, आकाँक्षा और श्रमशीलता का त्रिविधि संयोग जिस भी दिशा में-जिस भी प्रयास में नियोजित होगा उसका सरल रहना और सफल होना सुनिश्चित है। असफल तो वे ही कार्य रहते हैं जिन्हें बेकार, बेगार समझकर हाथ में लिया गया और रोते-झींकते पूरा किया गया।

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