अपने आपके साथ सद्व्यवहार

October 1976

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किसी विचारक ने कहा है-‘मनुष्य यदि सबसे ज्यादा निष्ठुर और सबसे अधिक क्रूरतापूर्वक व्यवहार किसी के साथ करता है तो स्वयं अपने से ही’। विचारपूर्वक इस कथन को तथ्य की कसौटी पर कसा जाय तो यह उद्धरण सत्य ही सिद्ध होगा। अपने प्रति दुर्व्यवहार के ऐसे अनेकों उदाहरण देखने में आते हैं जिन पर शान्तिपूर्वक देखा जाय तो लगता है कि हम अपनी सर्वाधिक प्रिय वस्तु-जीवन को ही समाप्त कर डालने के लिए उतारू हो गये हैं।

अपने प्रति दुर्व्यवहार के सम्बन्ध में हम आहार और शक्ति ग्रहण की प्रवृत्ति को ही लें। भोजन इसलिए किया जाता है कि प्रतिदिन के कार्यों में खर्च होने वाली शक्ति का पुनरुत्पादन क्रम चलता रहे। अच्छे से अच्छा पौष्टिक आहार इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए बनाया जाता है और उसे स्वादिष्ट बनाया जाय-ताकि भोजन करना एक अरुचिपूर्ण कार्य न रहे, उसे ग्रहण करने में भी रस मिलता रहे। यहाँ तक तो बात समझ में आ जाती है, परन्तु व्यक्ति स्वादों का इतना दिवाना हो जाता है कि भोजन करते समय उसे अपनी पाचन शक्ति, शरीर की आवश्यकता और पौष्टिकता का ध्यान ही नहीं रहता। यहाँ तक कि भोजन केवल स्वाद के लिए ही करने लगता है। फिर वे पदार्थ इतने अधिक मीठे हों कि मधुमेह की शिकायत पैदा हो जाय या इतने अधिक नमकीन कि रक्त कोष ही गलने फटने लगे।

सामान्यतः अस्सी प्रतिशत रोग इसलिए उत्पन्न होते हैं कि आहार ग्रहण करते समय तत्सम्बन्धी आवश्यक बातों का ध्यान नहीं रखा जाता। स्वाद लिप्सा के वशीभूत होकर आवश्यकता से अधिक कर लिया गया भोजन पेट और पाचन तन्त्रों पर इतना अनावश्यक अतिरिक्त भार उत्पन्न कर देता है कि वह शक्ति जो शरीर के संचार और पोषण में लगनी चाहिए, उस भोजन को पचाने में खपती है। फिर भी क्षमता के बाहर होने के कारण और दूसरे गरिष्ठतावश भी वह भोजन ठीक से पचता नहीं। परिणामस्वरूप शरीर में विकार ही उत्पन्न करता है। औरों के प्रति अपनी सद्भावना व्यक्त करते हुए, स्वास्थ्य रक्षा का सत्परामर्श देते हुए यह कहा जाता है कि सन्तुलित भोजन किया करें। परन्तु यह सत्परामर्श स्वयं के लिए कितना होता है-यह स्वयं ही जानने का विषय है। आहार की अति और स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए लार टपकाते हुए आहार विहार में बरती गई गड़बड़ी अपने आप पर अनाचार, अत्याचार, दुर्व्यवहार नहीं तो क्या है?

ऐसी न जाने कितनी मूढ़ताएँ हैं जो स्वयं के साथ की जाती हैं। मूढ़ता कहना तो सब उचित होगा जबकि उन बातों का ज्ञान न हो। लेकिन उन सावधानियों को जानते हुए भी, उन असतर्कताओं को समझते हुए भी हम उन्हें होते रहने देते हैं तो उसे स्वयं के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया ही कहा जाना चाहिए। यदि यह कहा जाय कि अधिकाँश व्यक्ति रोगी, दुःखी और शोक संविग्न इसलिए नहीं रहते कि उन्हें सन्तुलित रहना नहीं आता वरन् इस लिए रहते हैं कि जानते बूझते भी वे असन्तुलित, अनियमित, अनियन्त्रित और असंयमी जीवनयापन करते हैं, तो अनुचित न होगा। जान बूझकर बरती गई अस्त व्यस्तता, जान बूझकर किये गये अत्याचार और दुर्व्यवहार की श्रेणी में आती है।

दुर्व्यवहार तो दुर्व्यवहार है और वह किसके प्रति किया गया यह प्रमुख नहीं है, प्रमुख है किया गया? अब वह औरों के लिए किया गया हो या अपने प्रति। परिणामों की दृष्टि से यह बाद की बात है। उसके दुष्परिणाम तो भोगने ही पड़ेंगे और जब कोई व्यक्ति अपने साथ दुर्व्यवहार करता है तो जगन्नियन्ता की दृष्टि में और भी गम्भीर अपराध हो जाता है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति किसी की हत्या करने का प्रयास करे और इसमें असफल हो जाय तो न्याय व्यवस्था लम्बी सजा का भागीदार मानती है लेकिन आत्महत्या का प्रयास करे और सफल हो जाय तो मर जाने के कारण सजा नहीं होती हाँलाकि उसने अपराध तो किया? परन्तु असफल हो जाय तो उस प्रयास को एक गम्भीर अपराध मानकर कठोर दण्ड मिलता है। ठीक उसी प्रकार अपने प्रति दुर्व्यवहार आत्महत्या की ही एक धीमी प्रक्रिया है और वह एकबार में ही पूरी नहीं होती है इसलिए बार-बार गम्भीर अपराधों के परिणामस्वरूप कितने ही दण्ड सहने पड़ते हैं।

सामान्यतः दूसरों के साथ बुराई करने को पाप कहा जाता है। इसे बुरी दृष्टि से भी देखा जाता है। बदले में लोकनिन्दा, अपमान और घृणा तिरस्कार के दण्ड भी मिलते हैं। परन्तु जब कोई व्यक्ति अपने ही प्रति दुर्व्यवहार करता है तो लोक समाज में भले ही उसके लिए कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न की जाय वह निन्द्य और जघन्य पाप तो है ही। शरीर क्षय, रोग, महारोग, मानसिक वेदना, चिन्ता, निराशा आदि अनेकानेक दाहकारक सजायें उसे मिलती हैं और तत्काल इनका प्रभाव भी दिखने लगता है। अपनी ही दृष्टि में अपना अवमूल्य, आत्म-प्रताड़ना, आत्म-ग्लानि और तज्जनित चेतना की अधोगामिता आदि सैकड़ों दुष्प्रभाव हैं जिनकी अनुभूति नारकीय वेदनाओं भी अधिक कष्टप्रद होती हैं।

इन कारणों से हमें शान्त और गम्भीर चित्त से विचार करना चाहिए कि कहीं हम भी तो अपने प्रति दुर्व्यवहार नहीं कर रहे हैं। शान्त चित्त अवस्था में ही अन्तर्जगत में प्रवेश सम्भव है और वहाँ बड़ी सूक्ष्म दृष्टि आवश्यक है। क्योंकि मनुष्य सदैव इस भ्रम को पाले रहता है कि मैं अपनी भलाई और कल्याण के लिए ही सब कुछ कर रहा हूँ। पूजा उपासना जैसे धार्मिक आध्यात्मिक कर्मकाण्ड हों या भोजन, निद्रा, विश्राम जैसे शारीरिक कार्य हों, क्रिया, भावना और विचार सभी के संदर्भ में पूर्व निर्धारित मान्यता रहती है कि हम अपनी भलाई और अपने कल्याण के लिए ही सब कुछ कर रहे हैं। स्वार्थी से स्वार्थी और निन्दित से निन्दित व्यक्ति भी यही सोचता है और परमार्थ परायणता का गर्व रखने वाला भी यही मानता है। वस्तुस्थिति क्या है यह जानने के लिए मनोविज्ञानवेत्ताओं ने कुछ कसौटियाँ स्थिर की हैं, जिनमें से कुछेक इस प्रकार हैं-स्वयं के प्रति अपनी धारणा, शरीर के प्रति अपना व्यवहार बाह्य घटनाओं के प्रति दृष्टिकोण और उनकी प्रतिक्रिया तथा आध्यात्मिक विश्वास। इन चार कसौटियों पर अपने बाह्य जीवन और अन्तरंग को परख कर यह निश्चित किया जा सकता है कि स्वयं के प्रति हमारा व्यवहार कैसा है?

मनुष्य के विचार क्षेत्र में सर्वप्रथम अपने प्रति अपनी धारणा का जन्म होता है। विचार क्षेत्र में जन्मी अपने प्रति धारणा और मान्यता पर ही यह अवलम्बित है कि भविष्य में प्रगति के अवसरों को कितना उपयोग किया जा सकेगा। स्वयं को दीन हीन मानने वाला व्यक्ति संयोगवश ऐसे अवसरों पर जब कि वह आसानी से प्रगति के शिखर पर चढ़ सकता है, हाथ पर हाथ रखे बैठा रह जाता है। ऐसे व्यक्ति दुःख और कष्ट तो कितने ही सहते रहते हैं, परन्तु आनन्ददायक सुखमय परिस्थितियों की एक झलक भी सह सकने की क्षमता उनमें उत्पन्न नहीं हो पाती। अक्सर सुनने में आता है कि रोज कुँआ खोदकर रोज पानी पानी वाले और कभी भूखे भी रह जाने वाले लोग लाटरी का टिकट खरीदकर अपनी किस्मत आजमाते हैं और संयोगवश नम्बर लग जाये तो उसकी खुशी ही उन्हें इतना पागल कर देती है कि हृदय की धड़कन बन्द हो जाती है। खुशी किसी को पागल नहीं करती वरन् अन्तरंग में गहराई तक बैठी वह धारणा-जो उसने स्वयं के सम्बन्ध में बनाई है-जब टूटती है तो विक्षिप्तता पैदा हो जाती है। यह तो सभी जानते हैं कि आदमी भावनाओं का पुतला है और बाह्य परिस्थितियाँ नहीं भावनाएँ ही उसे प्रभावित करती हैं। जब अपेक्षित अवसर आते हैं और धारणा भंग होती है तो भावनाओं पर पहुँचा वह आघात ही मनुष्य को ले डूबता है।

आत्महीनता की भावना वस्तुतः अपने प्रति अत्याचार आत्मघात की श्रेणी में ही रखी जायगी और बातें आत्महिंसक हैं तो आत्महीनता, आत्मघातक है। अपने प्रति सद्व्यवहार की प्रवृत्ति का श्रीगणेश करते हुए व्यक्ति को सर्वप्रथम आत्महीनता की ग्रन्थि बेधने का कदम उठाना चाहिए। वस्तुतः मनुष्य परमात्मा का पुत्र है और परमात्मा इस सृष्टि का अधिपति। इन अर्थों में मनुष्य न तो दिन हीन है और न क्षुद्र नगण्य। मानवीय सत्ता को ईश्वरीय साम्राज्य में युवराज का पद प्राप्त हो और कोई युवराज अपने सम्मानित आसन से उठकर भिखारियों की पंक्ति में खड़ा हो जाय, रोने लगे तो उसे स्वस्थ नहीं कहा जा सकता। उसके स्वास्थ्य अर्जन का ही प्रबन्ध किया जाना चाहिए। परन्तु मनुष्य की सत्ता न तो अस्वस्थ हुई है और न विक्षिप्त। अज्ञान वश स्वयं के प्रति उसका व्यवहार अवश्य बिगड़ा है जिसे सुधारने के लिए इस रूप में पहला कदम उठाना चाहिए और अपना सही मूल्याँकन करना चाहिए।

अपने प्रति व्यवहार को परखने का दूसरा सूत्र है-शरीर के प्रति बरती गई रीति नीति। यह ठीक है कि शरीर नश्वर है और आत्मा का उपकरण मात्र है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इसके प्रति जैसा जी चाहे बर्ताव किया जाय। आध्यात्मिक मनोवृत्ति के लोग भली भाँति जानते हैं कि यह अध्यात्म साधना में प्रगति के लिए उपकरण का काम देता है। मशीनें खराब हो जाएं, उन्हें लापरवाही से चलाया जाय और उनका कोई अंग टूट फूट जाय तो उसका जिस तरह ध्यान रखा जाता है, उसी तरह आत्मा के इस उपकरण की टूट-फूट को भी दृष्टिगत रखना चाहिए और इस पर ध्यान देना चाहिए। स्वास्थ्य, शक्ति और युवावस्था को जिस बेतरह बर्बाद किया जाता है, व्यर्थ के कार्य में, वह ठीक मशीन को लापरवाही से चलाने जैसा है। इस महत्वपूर्ण उपकरण की उपेक्षा करने वाले पहले वर्ग के तो वे लोग हैं जिनकी चर्चा इस लेख के आरम्भ में की गई है और दूसरे वे जो उपयुक्त साधन सुविधाएँ होती हुए भी इसकी भली भाँति देख रेख नहीं करते। न उचित खान पान, न स्वस्थ स्थान में निवास और न पर्याप्त विश्राम। दिन रात रुपये पैसे इकट्ठे करने की ही योजनाएँ चलती रहती हैं और रुपया जीवन से भी अधिक मूल्यवान बन जाता है। शरीर के प्रति अनाचार तब सीमा से भी बाहर हो जाते हैं जब रुपया जीवन की अपेक्षा महत्वपूर्ण हो जाता है और उसके लिए शरीर की भी उपेक्षा होने लगती है। इन दोनों विडम्बनापूर्ण स्थितियों को बदला जाना चाहिए। रहन सहन, आहार-बिहार और पर्यावरण इस प्रकार का रहे कि वह जीने में सहायक बने, बाधक नहीं और दूसरे रुपये पैसों के लिए शरीर की जीवन की उपेक्षा न की जाय।

शारीरिक सद्व्यवहार के बाद आता है मानसिक सद्व्यवहार। बाह्य घटनाओं के प्रति प्रायः हमारा दृष्टिकोण कुछ इस प्रकार का होता है कि जैसे वे हम पर ही आपत्ति का पहाड़ बनकर टूट रही हों। ऐसे भावुक लोगों की कमी नहीं है जो प्राकृतिक हलचलें-चाहे वे कहीं भी हुई हों इस दृष्टिकोण से लेते हैं कि वे जैसे हमारा ही सर्वनाश करने के लिए घटित हुई हैं। भले ही वे उनके प्रभाव क्षेत्र से मीलों दूर रह रहे हों। यह प्रवृत्ति सूक्ष्म रूप में भी देखी जा सकती है। बाहरी घटनाओं से अकारण ही खिन्न होकर ऐसे भावुक व्यक्ति अपना कितना खून सुखा लेते हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता।

मनोजगत के प्रति दुर्व्यवहार की एक विडम्बना द्वेष दुर्भाव और दुश्चिन्ताओं के रूप में भी देखी जा सकती है। जो प्रगति कर रहा है, उन्नति के पथ पर आगे बढ़ रहा है उससे डाह रखकर हम उसकी प्रगति तो नहीं रोक सकते, हाँ अपने ही विकास में रोड़े जरूर खड़े कर सकते हैं। यह शत्रुता फिर किसके साथ बरती गई कही जायगी-प्रगति करने वाले के साथ या अपने आपके साथ। इसी प्रकार की निर्मूल चिन्ताएँ, अकरणीय आशंकाएँ और आन्तरिक द्वंद्वों के बीच अपनी योग्यता, प्रतिभा शक्ति को पीसते रहकर आत्म हिंसा का मार्ग ही तैयार किया जा सकता है।

विवेकशीलता का तकाजा है कि व्यक्ति दूसरों के साथ सद्व्यवहार तो करे ही, औरों के सुख-दुख की चिन्ता और उनका हित-साधन भी करे। परन्तु अपने प्रति दुर्व्यवहार की रीति-नीति को भी समझे, बदले। अपने प्रति किया सद्व्यवहार विकसित होकर परमार्थ साधना भी बन सकता है, बनता है। इस रीति नीति को अपनाने के लिए आध्यात्मिक विश्वास और उसे साकार रूप देना एकमात्र मार्ग है। इस मार्ग पर चलकर व्यक्ति आत्म-कल्याण और लोकहित दोनों प्रयोजनों को एक साथ पूरा कर सकता है।

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