आत्मा में परमात्मा का अवतरण

October 1976

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आत्मा की व्याख्या दार्शनिक अपने-अपने ढंग से करते रहे हैं। डेकार्ट कहते हैं-हर व्यक्ति अपने आत्मिक अस्तित्व का साक्षी स्वयं है। वह सोचता है-मैं सोचता हूँ मैं बोलता हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ। अपने आपे की जो अनुभूति और समीक्षा कर सकता है वही आत्मा है। कान्ट का कथन है-आत्मा का अस्तित्व यदि प्रत्यक्षवाद के अनुसार प्रमाणित न हो सके तो वह विश्वास नैतिकता की रक्षा दृष्टि से भी नितान्त आवश्यक है।

अरस्तू शरीर को आत्मा को आकार मानते थे और आत्मा को मोम और शरीर का मोमबत्ती का उदाहरण देकर समझाते थे। सुकरात ने मरते समय अपने शिष्यों को आत्मा सम्बन्धी अपने विचारों को विस्तारपूर्वक दुहराया था। वे कहते थे। संवेदनाओं को धारण किये रहने वाली सत्ता को मोटे तौर से आत्मा समझा जा सकता है। दार्शनिक लुक्रेटियस का मत जैन धर्म की उन मान्यताओं से मिलता है जिसमें इस पृथ्वी के प्रत्येक कण में आत्मा का अस्तित्व माना गया है। वैसी ही मान्यता वेदान्त दर्शन की भी है। मेविलियम जेम्स का कथन है कि शरीरगत चेतना की नवीनतम व्याख्याएँ लगभग वहीं जा पहुँचती हैं जिसका प्रतिपादन आत्मवादी अपने ढंग से करते रहे हैं और उसका पृथक अस्तित्व मानते रहे हैं।

तत्वदर्शियों के अनुसार इस सृष्टि के सात लोक हैं। वे ऊपर नीचे नहीं हैं और न किसी नक्षत्र में अलग अलग बस्तियों की तरह बसे हुए हैं वरन् स्थूल से सूक्ष्म-सूक्ष्म से सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम-अति सूक्ष्म के स्तर पर अधिकाधिक अदृश्य होते चले गये हैं। वे परस्पर एक दूसरे में प्रविष्ट होकर रह रहे हैं। यह सूक्ष्मलोक जिन पदार्थों से बने हैं वे अपने सम्पर्क में आने वाले भौतिक पदार्थों से अधिक सूक्ष्म हैं इसलिए न यन्त्रों की पकड़ में आते हैं और न इन्द्रिय अनुभूतियों के सहारे जाने जा सकते हैं। इन्हें अनुभव करने का आधार विकसित आत्म चेतना ही हो सकती है।

मरणोत्तर जीवन पर प्रकाश डालने वाले ग्रंथों में सी0 डब्ल्यू0 लैड वीटर की ‘दि अदर साइड आफ डैथ’अधिक प्रख्यात है। उन्होंने भौतिक जगत के अन्तराल में विद्यमान सूक्ष्म लोक के अस्तित्व पर विस्तार-पूर्वक प्रकाश डाला है और कहा है कि उसमें आत्माएँ सूक्ष्म शरीर में उसी प्रकार निवास करती हैं जैसे कि हम लोग स्थूल शरीर से इस प्रत्यक्ष संसार में जीवनयापन करते हैं। मैडम क्यैवैटस्की-कर्चल आटक्रीट आदि ने भी इस संदर्भ में अपनी मान्यताओं का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है।

सात लोकों की तरह आत्मा के भी सात शरीर हैं। स्थूल शरीर को क्रिया लोक कह सकते हैं। सूक्ष्म शरीर को विचार लोक और कारण शरीर को भावना लोक। यह मोटी तीन परतें हैं पर यदि इनका बारीकी से विश्लेषण किया जाय तो वे तीन न रह कर सात हो जाती हैं। इनके विभिन्न नाम हैं। इनमें से प्रत्येक परत अधिक शक्तिशाली और अधिक संवेदनशील है। हम स्थूल से सूक्ष्म की परतों में जितना अधिक प्रवेश करते हैं उतना ही अधिक गहरी सशक्तता का समुद्र लहलहाता दीखता है।

चेतना के विकास का लक्षण यह है कि ससीम से आगे बढ़ कर असीम में प्रवेश करें। चिन्तन की दृष्टि से इसे आत्म-विस्तार कह सकते हैं। संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि तोड़ कर “आत्मवत् सर्व भूतेषु” की आत्मा बना लेने वालों का आचरण विश्व नागरिक जैसा होता है और वे परमार्थ प्रयोजनों को ही वास्तविक स्वार्थ साधन मानते हैं। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओत-प्रोत होकर वे अपना क्रिया-कलाप इस स्तर का बनाते हैं जिसके आधार पर लोक मंगल के महान प्रयोजनों में अपनी क्षमता संलग्न रह सके। यह आत्म विकास या आत्म विस्तार हुआ। अध्यात्मवादी इसी दिशा में प्रयत्नशील रहते और आगे बढ़ते हैं।

बात जानने तक ही सीमित नहीं है। सूक्ष्म प्रकृति पर जितनी मात्रा में आधिपत्य होता जाता है उसी अनुपात से उसकी विचित्र शक्तियों का उपयोग करने का अधिकार भी मिल जाता है। जिस प्रकार स्थूल सम्पत्ति का लाभ किसी दूसरे को दिया जा सकता है उसी प्रकार सूक्ष्म जगत की विभूतियों से भी अपने प्रिय पात्रों को लाभान्वित किया जा सकता है। यह सामर्थ्य वरदान की शक्ति कहलाती है। इसी प्रकार कुपित स्थिति में अपनी मानसिक चेतना का प्रहार करके किसी की हानि भी की जा सकती है। इसे शाप की शक्ति कहते हैं। अभिशप्त व्यक्तियों अथवा पदार्थों की दुर्गति होने के कितने ही उदाहरण समय-समय पर मिलते रहते हैं।

ब्रह्म चेतना में प्रवेश करके हम उच्चस्तरीय अति-मानवी उत्कृष्ट भाव चिन्तन उपलब्ध कर सकते हैं। इस आधार पर मनुष्य को उन श्रद्धा सम्वेदनाओं का अनुदान मिलता है जिन्हें देव स्तर की कहा जाता है। इस अवतरण में व्यक्ति अधिकाधिक पवित्र एवं सुसंस्कृत बनता जाता है। आत्मीयता का विस्तार होने से संकीर्ण स्वार्थपरता झड़ने लगती है और उसके स्थान पर “सब को अपने में और अपने को सब में” देखने का दृष्टिकोण विकसित होता है। ऐसी स्थिति में दूसरों के दुःखों को बँटा लेने और अपने सुखों को बाँट देने की नीति अपनाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह जाता। दया, करुणा, उदारता जैसी सद्भावनाओं का विस्तार होने, लोक-मंगल के प्रति अधिकाधिक रुचि बढ़ने, परमार्थ परायण सेवा सहकारिता चरितार्थ करने में रस लेने की प्रवृत्ति स्वयमेव बढ़ती चली जाती है। ऐसे व्यक्तियों में सहृदयता-सज्जनता-आदर्शवादी चरित्र निष्ठा भरती और बढ़ती चली जाती है। सत्प्रयोजनों को अपनाने में एकाकी बढ़ चलने का शौर्य साहस विकसित होता है। अनीति अपनाने वाली दुनिया का बहुमत एक ओर और उसकी नीति-निष्ठा एकाकी अपने स्थान पर अंगद के पैर की तरह अड़ी रह सकती है। अविवेक का अन्धकार उसे प्रभावित नहीं करता। कौन क्या कहता है उसे इसकी तनिक भी परवाह नहीं होती। ईमान और भगवान का अनुकूल रहना उसे अपने क्रिया-कलाप को अपनाने में पर्याप्त प्रतीत होता है, अन्य लोग समर्थन करते हैं या विरोध इसकी उसे रत्ती भर भी चिन्ता नहीं रहती। ब्रह्मपरायण व्यक्ति की आत्मचेतना में उच्चस्तरीय सद्भावनाएँ और सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ती और मरती चली जाती हैं। अति मानव में यही विशेषताएँ होती हैं। देवात्माओं में यही गुण पाये जाते हैं।

मनुष्य अन्य प्राणियों से ऊँचा अपनी शरीर रचना अथवा बुद्धिकौशल के कारण नहीं बना है। उसकी प्रगति का मूल कारण सहकारिता-सद्भावना एवं उदार चरित्र निष्ठा जैसी सद्भावनाओं में सन्निहित है। इन्हीं विशेषताओं के कारण उनके लिए परिवार समाज एवं शासन की संरचना करना सम्भव हुआ। सामूहिक प्रयत्नों का ही फल है कि शिक्षा, चिकित्सा, व्यवस्था, उत्पादन, व्यवसाय, विज्ञान जैसी उपलब्धियाँ सम्भव हो सकीं। पारस्परिक आदान-प्रदान की विशेषता ने पूर्वजों के अनुभवों से अगली पीढ़ियों को लाभान्वित किया है। उपार्जन का लाभ सबने मिल-जुल कर उठाया है। स्वार्थपरता, लिप्सा और उच्छृंखलता को नैतिक अनुशासन के सहारे कुचला और उदार सहकारिता को कष्ट सहकर भी स्वीकार किया है। मानवी प्रगति के यही आधार हैं। ऐसी ही उत्कृष्ट भाव संवेदनाओं को मानवता कहा जाता है।

शरीर, बल और बुद्धि कौशल की दृष्टि से अन्य प्राणी भी अपनी-अपनी स्थिति और आवश्यकता के अनुरूप पर्याप्त सामर्थ्य सम्पन्न हैं। हाथी, ह्वेल, और सिंह की तुलना में मनुष्य का शरीर बल तुच्छ है। हिंस्र पशुओं की आक्रमण चतुरता और शाकाहारियों की आत्म रक्षण कुशलता के दाँव पेचों को देख कर लगता है उस क्षेत्र में उनका बुद्धि वैभव मनुष्य से पीछे नहीं आगे ही है। ऋतु प्रभावों एवं क्षुधा पिपासा जैसी शारीरिक आवश्यकताओं को सहन करने की तितीक्षा शक्ति अपेक्षाकृत पशुओं में अधिक है। बन्दर की तरह पेड़ पर चढ़ना-हिरन की तरह कुलाँचे भरना-पक्षियों की तरह आकाश में उड़ना, मनुष्य से कहाँ बन पड़ता है। चींटी, दीमक, मकड़ी, मधुमक्खी जैसे छोटे कीड़ों में ऐसी कितनी ही विशेषताएँ पाई जाती हैं। जो मनुष्य को शायद कभी भी उपलब्ध न हो सकेंगी। कितने ही पक्षी अपने नियत समय पर हजारों मील लम्बी यात्राओं पर निकलते हैं और बिना राह भूले अभीष्ट स्थानों पर प्रवास की अवधि पूरी करके अपने पूर्व स्थान पर वापिस आ जाते हैं। मनुष्य इन विशेषताओं की दृष्टि से काफी पीछे है। फिर अन्य प्राणी क्यों प्रगति पथ पर आगे न बढ़ सके और मनुष्य क्यों सृष्टि का मुकुट मणि बन गया? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है-उसकी सद्भाव सम्पन्नता, आत्मिक उत्कृष्टता।

अध्यात्म विज्ञान का-ब्रह्म-विद्या का-एक मात्र लक्ष्य इस सद्भाव सम्पदा की मात्रा बढ़ाते चलना है। ईश्वर का अधिकाधिक सघन सम्पर्क इसी प्रयोजन के लिए अभीष्ट होता है। ईश्वर प्राप्ति के लिए की जाने वाली विविध साधनाएँ किस मात्रा में सफल हो रही हैं इसकी एकमात्र कसौटी यही है कि उस व्यक्ति के अन्तःकरण में निर्मलता एवं कोमल संवेदनाओं का परिमाण कितना बढ़ा, यदि भीतरी स्वार्थपरता और निष्ठुरता यथावत बनी रहे तो समझना चाहिए कि ईश्वर प्राप्ति के लिए किये जाने वाले साधनात्मक प्रयत्नों का कोई परिणाम नहीं निकला। मनुष्य की श्रेष्ठता का यदि आधार ढूंढ़ा जाय तो वह उसकी उन प्रदीप्त सद्भावनाओं में ही देखा जा सकता है जो अपनी प्रखरता के कारण सत्प्रवृत्तियों में परिणत हुए बिना रह नहीं सकतीं। ब्रह्म के असंख्य क्रिया कलाप हैं, पर जब परमात्म चेतना का आत्म चेतना के साथ सम्बन्ध होता है तो बिजली के दोनों तार छूने पर चिंगारियां निकलने की तरह उस श्रेष्ठता के ही लक्षण प्रकट होते हैं जिन्हें उत्कृष्ट आदर्शवादिता कहा जाता है। पशु और मनुष्य के बीच इसी विशेषता के अभिवर्धन का अन्तर होता है। इसे अतिरिक्त ईश्वरीय अनुग्रह या अनुदान कह सकते हैं।

बुद्धि कौशल ने सद्भावों को बढ़ाया या सद्भावों से बुद्धि कौशल बढ़ा इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ते समय बुद्धि चमत्कार का पक्ष लेने को जी करता है क्योंकि प्रत्यक्ष उपयोग उसी का अधिक होता है। सुविधा साधनों के उपार्जन अभिवर्धन में बुद्धि ही अग्रिम मोर्चे पर खड़ी दिखती है इसलिए उसको प्रमुखता दी जाय ऐसा जी करता है किन्तु अधिक गम्भीरता से चिन्तन करने पर तथ्य सर्वथा उलट जाते हैं। जितनी गहराई में उतरते हैं उतनी ही यह सचाई सामने आती है कि मनुष्य की मौलिक विशेषता सद्भावना है इसीलिए उस की इस प्रधान महत्ता को मनुष्यता का नाम दिया जाता रहा है।

सच्चे ब्रह्मपरायण व्यक्ति का सत्ता सन्त-सज्जन-परमार्थ परायण ब्राह्मण, आदर्श के मूर्तिमान प्रतीक ऋषि, युग साधना में निरत महामानव, लोक मंगल के लिए अपना सर्वस्व लुटा देने वाले भू सुर के रूप में अपनी प्रखर उत्कृष्टता का परिचय देती है। विडम्बना रचने वाले और भ्रम जंजालों में उलझे रहने वालों की बात दूसरी है, वे चित्र-विचित्र कर्मकाण्डों में स्तवन उपहारी से ईश्वर को प्रसन्न करने और उससे तरह-तरह की मनोकामनाएँ पूरी कराने के ताने-बाने रहते हैं। इन दिनों अन्य क्षेत्रों में फैले हुए बुद्धि विभ्रम की तरह अध्यात्म क्षेत्र में भी ऐसी ही विडम्बना चरम सीमा पर पहुँची हुई है और लोग ईश्वर को अपनी चालबाजियों में फुसला लेने के लिए नित नये जाल बुनते रहते हैं। इस बाल बुद्धि से किसे कितना प्रतिफल मिलता है इसे तो वे ही जानें, पर तथ्य यह है कि यथार्थवादी ईश्वर भक्ति का परिणाम एक ही है अन्तःकरण की सद्भाव सम्पदा का अधिकाधिक विस्तार और परिष्कार। यह वैभव जिन्हें भी प्राप्त होता है वे देव मानव होकर जीते हैं। अपने समीपवर्ती वातावरण को स्वर्ग तुल्य सुख शान्ति से घिरा-भरा बनाते हैं। स्वयं असीम आत्म सन्तोष और सघन जन सम्मान प्राप्त करते हैं। समस्त विश्व उनकी कृतियों का कृतज्ञ रहता है। जन-मानस को उनके द्वारा प्रबल प्रेरणा प्राप्त होती है और सामयिक विकृतियों के समाधान में वे आशातीत योगदान देते हैं। जीवन को सच्चे अर्थों में धन्य बनाने की यही सफल साधना है।

ऐसे व्यक्तियों की चेतना मल आवरण विक्षेपों से रहित होकर जो निर्मलता प्राप्त करती है उससे ब्रह्म चेतना की यथेच्छ मात्रा अपने में धारण कर लेना सम्भव हो जाता है। इस सम्पदा का परिचय देवात्माओं के ऐसे महान् कृत्यों द्वारा मिलता है जिन्हें सामान्य स्तर के व्यक्ति असामान्य, असम्भव और चमत्कारी मानते हैं। कभी-कभी वे भौतिक क्षेत्र में भी अपनी विशिष्टता के ऐसे परिचय देते हैं जिन्हें ऋद्धि-सिद्धि की विशिष्टता कहा जा सके।

अन्तरात्मा में बढ़ती हुई विवेकशीलता जब दूर-दर्शिता अपनाने और दृष्टिकोण के परिष्कृत करने में सफल होने लगे तो जानना चाहिए ब्रह्म चेतना का अवतरण हो रहा है और मनुष्य आत्मिक प्रगति की दिशा में निश्चित रूप से बढ़ रहा है। ऐसे व्यक्तियों की इच्छा, आकांक्षाएँ वासना, तृष्णा की क्षुद्रता से ऊपर उठती ही हैं। उन्हें लोभ मोह की कीचड़ में सड़ते रहने की दयनीय दुर्दशा असह्य हो उठती है। पेट और प्रजनन तक जीवन सम्पदा को नियोजित किये रहने में उन्हें घाटा ही घाटा दिखता है अस्तु वे अपनी गतिविधियों का नये सिरे से निर्धारण करते हैं। विश्वमानव की सेवा साधना में ही उन्हें जीवन सम्पदा की सार्थकता दिखती है अस्तु निर्वाह की आवश्यकताओं को सीमित करते हैं। सादगी से रहते हैं। मितव्ययिता बरतते हैं। परिवार के पिछले उत्तरदायित्वों के निर्वाह में ही जब कमी रह जाती है तो नये बच्चे-कच्चे पैदा करते जाने की मूर्खता तो उनसे बन ही नहीं पड़ती। भौतिक एषणाओं को निग्रहीत करने के उपरान्त ही इतनी कुछ सामर्थ्य बच सकती है जिसके सहारे आत्मिक प्रगति के लिए-ईश्वर प्राप्ति के लिए-अनिवार्य रूप से आवश्यक आदर्शवाद परमार्थ परायणता को अपनाया जाना सम्भव हो सके। सच्ची ईश्वर भक्ति इसी प्रकार किसी सच्चे भक्त पर अवतरित होती है और जीवन की दिशा धारा बदल डालने के रूप में अपने अस्तित्व का परिचय देती है।


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