डॉ0 भगवानदास ने अपनी पुस्तक-‘‘दि एसैन्शियल यूनिट ऑफ आल रिलीजन्स” में कुछ विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के उन वक्तव्यों का संग्रह किया है, जिसमें मन (माइण्ड) पदार्थ (मैटर) से श्रेष्ठ तथा उसकी नियामक सत्ता को स्वीकार किया गया है। उन वक्तव्यों का हिन्दी अनुवाद निम्नाँकित है-
(1) विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर ऑलिवर लाँज-‘‘वह समय निश्चित रूप से आएगा, जब विज्ञान द्वारा अज्ञात (मन) के ये भाग खोजे जावेंगे और कुछ ऐसी भी व्यक्ति हैं जो सोचते हैं कि वह समय बहुत समीप आ गया है जब ऐसा होने की आशा की जा सके। जितना हमने सोचा था, विश्व उससे अधिक आध्यात्मिक सत्ता है। वास्तविक तथ्य यह है कि हम भौतिक जगत को शासित करने वाले आध्यात्मिक जगत में निवास करते हैं। यह आध्यात्मिक जगत उस महान और नित्य विद्यमान वास्तविकता की रचना करता है जिसकी शक्तियों का अनुभव करना हमने प्रारम्भ ही किया है। वे शक्तियाँ सचमुच खतरनाक भी हो सकती थीं यदि ढाढ़स बँधाने के लिए हमें यह आश्वासन नहीं दिया गया होता कि वे समस्त प्रचण्ड ऊर्जाएँ उस कल्याणकारी पितृ-सत्ता द्वारा नियन्त्रित हैं जिसका नाम ‘प्रेम’ है।
(2) गणितज्ञ और खगोलविद् सर जेम्स जीन्स “यह जगत महान् “यन्त्र” के बजाय महान् “विचार” अधिक समझ पड़ता है। वस्तुओं की प्रतीतिक वस्तुनिष्ठता (बाह्य आकार आदि ) मन में उनके विद्यमान होने के कारण है। जगत की धारणा को हम विशुद्ध विचार का संसार मानते हैं। पदार्थ-राज्य में अब मन आकस्मिक घुसपैठिये के रूप में प्रतीत नहीं होता। अब हमारा यह अनुमान होता जा रहा है कि हमें पदार्थ राज्य के रचियता और शासक के रूप में उसकी जय जयकार करनी चाहिए। निश्चित रूप से वह वैयक्तिक मन नहीं है, वरन् वह मन है जिसमें हमारे वैयक्तिक मनों को उत्पन्न करने वाले परमाणु विचार के रूप में रहते हैं।”
एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं-‘‘सापेक्षवाद, निरन्तरता, न्यूनतम अवकाश, वक्र आकाश (कर्व्ड स्पेस), संभावना-तरंगें, अनिश्चितता तथा घटनाएं-ये सभी अवधारणाएँ हैं, जिनका हम चित्रण, कल्पना और वर्णन नहीं कर सकते।”
“जगत में पाये जाने वाले नियम तथा व्यवस्था माया या कल्पनावाद की भाषा में सबसे अधिक सरलता से वर्णित किये और समझाये जा सकते हैं। विज्ञान की अधिकतम जहाँ तक पहुँच है, उसमें से अधिकाँश या कदाचित सम्पूर्ण जो मानसिक नहीं है वह लुप्त हो गया है तथा कुछ भी नया जो मानसिक नहीं है, प्राप्त नहीं है। परिवर्तन की अन्तिम दिशा कदाचित् भौतिकवाद से और ‘मनुष्य के कार्य स्वतन्त्र नहीं हैं’ के, उस कठोर सिद्धान्त से भिन्न होगी जो उन्नीसवीं सदी की भौतिकी की विशिष्टता थी।
‘मिस्टीरियस यूनीवर्स’ में वे लिखते हैं-‘‘नया ज्ञान हमें जल्दबाजी में लिये गए अपने प्रथम अनुमान पर पुनः विचार करने के लिए बाध्य करता है। ठोस पदार्थ का अपने मूल भागों में विश्लेषण करने पर वह मन की रचना और मन की अभिव्यक्ति के रूप में जब से प्रतीत हुआ है, तब से मन और पदार्थ का पुराना द्वन्द्व लुप्त होने की सम्भावना हो चली है।
(3) प्रोफेसर सर ए0 एस0 एडिंगटन-‘‘कोई अज्ञात कर रहा है, हम नहीं जानते क्या कर रहा है-यह हमारे सिद्धान्त का सार है। आधुनिक भौतिकी ने पदार्थ की कल्पना को हटा दिया है। हमारे अनुभवों में मन पहला और सबसे सीधा तत्व है। मैं चेतना को मूल आधार मानता हूँ।”
(4) गणितज्ञ और सापेक्षवाद के विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन-‘‘मैं परमात्मा में विश्वास करता हूँ, जो स्वयं को जगत की व्यवस्थित लय के रूप में अभिव्यक्त कर रहा है। मैं विश्वास करता हूँ कि ज्ञान सम्पूर्ण प्रकृति में अभिव्यक्त हुआ है। वैज्ञानिक कार्य का आधार यह विश्वास है कि जगत व्यवस्थित, बुद्धिगम्य विस्तृत सत्ता है तथा मात्र संयोग का परिणाम नहीं है।”
(5) भौतिकीविद् जे0 बी0 एस0 हाल्डेन-‘‘आँशिक एवं अपूर्ण ढंग से देखे जाने पर जो जगत एक अन्ध यान्त्रिक-रचना माना जाता है वह वास्तव में आध्यात्मिक जगत है। एकमात्र वास्तविक जगत आध्यात्मिक जगत ही है। सत्य यह है कि पदार्थ नहीं, बल नहीं, कोई भौतिक वस्तु नहीं वरन् मन, व्यक्तित्व ही जगत का केन्द्रीय तथ्य है।”
(6) भूगर्भ शास्त्री किर्टले एफ0 माथर-‘‘पदार्थ और ऊर्जा के विश्लेषण में परम सत्य तक हमारी अब तक की निकटतम पहुँच यह दर्शाती है कि मन ही सार्वभौमिक वास्तविकता है।”
(7) भौतिकीविद् रॉबर्ट ए0 मिलिकन-‘‘परमात्मा जगत को एकीकृत करने वाला कारण तत्व है। मनुष्य के मन के सम्मुख विकासवाद की अवधारणा के समान उन्नत अन्य कोई अवधारणा प्रस्तुत नहीं की गई है, जो अनन्त युगों से अवयवी पदार्थ में जीवन की श्वास भरते हुए तथा मनुष्य में आध्यात्मिक प्रकृति एवं उसकी समस्त ईश्वर समान शक्तियों के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करते हुए परमात्मा को पुनः प्रस्तुत करती है।
(8) “दि ग्रेट डिजाइन” पुस्तक में सर जे0 ए0 थॉमस-‘‘समस्त पशु जीवन के संसार में, (उनकी) कुछ अभिव्यक्तियाँ हममें उपस्थित मन से मिलती जुलती हैं। अमीबा (प्रथम जीव) तथा उससे ऊपर आन्तरिक जीवन की धारा बह रही है, जीवन की यह धारा पतले नाले के समान हो सकती है और कभी-कभी बलवान धारा भी होती है। इस (जीवन धारा) में अनुभव करना, कल्पना करना, आकाँक्षा करना और कभी-कभी विचार करना सम्मिलित है। उसमें अचेतन का समावेश है। पौधों में वह तन्द्रावस्था में है या घोर निद्रा में या कभी नहीं जागी है, कौन कह सकता है। पशुओं में मन की सर्वव्यापकता हममें उनके प्रति साथी की भावना भरती है। इमर्सन के इन शब्दों में हमें मन की क्रमशः बढ़ती हुई मुक्ति दिखाई देती है। वे लिखते हैं-
“मन की यह मुक्ति ही विकास का उद्देश्य है। किसी सतत् प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रारम्भ में जो बीज रूप में उपस्थित नहीं था, वह अन्त में भी नहीं पाया जा सकता। अतः अपने ही मन से और उसकी दासत्व मुक्ति की कहानी से प्रारम्भ कर (मूल की ओर) पीछे लौटते हुए हम सर्वोच्च मन तक पहुँच जाते हैं। ‘जिसके बिना कुछ भी निर्मित नहीं था जो निर्मित किया गया था।’’ जीवन के ऐसे संसार में जो हमारी वैज्ञानिक अँगुलियों द्वारा नहीं घेरा-पकड़ा जा सकता, वस्तुओं के सामने खड़े होकर हम यह दुहराने के सिवा और क्या कर सकते हैं। (हे प्रभु !) मेरी आंखें खोल, ताकि मैं तेरे नियम के अन्तर्गत बनी आश्चर्यजनक वस्तुएँ देख सकूं।”