एक भिक्षु वेश्या के यहाँ ठहर गया। अन्य भिक्षुओं ने इस का बुरा माना और भगवान बुद्ध से शिकायत की।
तथागत मौन हो गये। फिर उनने कहा वह भिक्षु मेरा परखा हुआ है। वेश्या को ही पवित्र करेगा। स्वयं अपवित्र नहीं होगा।
शिष्यों का समाधान नहीं हुआ। वे इसी बात को दुहराते रहे-इससे परम्परा बिगड़ जायगी और हममें से अन्य लोग भी वैसा ही करने लगेंगे।
भगवान ने सहज मुस्कान में इतना ही कहा-अगर तुम में से कोई वहाँ ठहर जाता तो मुझे जरूर चिन्ता होती। जो सहज भाव से ठहरा है उसे करुणा ने ही रोका होगा। फिर भी यदि वह गिर जाता है तो यह भी ठीक ही है, उसके ऊपर से भिक्षु होने का आवरण उतर जायगा और अपनी सही स्थिति प्रकट करके छद्म से विरत हो जायगा। जो बदला जाने योग्य है वह बदल जायगा और जो बदल सकता है वह बदल देगा। वेश्या और भिक्षु में से कौन सुदृढ़ निकला यह परीक्षा हो जाना क्या बुरा है।
शिष्य-गण उदास होकर चले गये उनका समाधान न हुआ। रात भर इसी की चर्चा होती रही और वह मण्डली तर्क वितर्कों के ऊहापोह में डूबी रही।
सवेरा हुआ। भिक्षु लौटा तो उसके पीछे-पीछे नेत्रों में आँसू भरे वेश्या भी थी। दूसरे दिन उसने भी प्रव्रज्या गृहण कर ली और भिक्षुओं की पंक्ति में चीवर ओढ़े जा बैठी।
शंकालु शिष्यों का उचित समाधान हो गया फिर उन्हें तर्क वितर्क करने की आवश्यकता नहीं रही।
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