एकाग्रता का दर्शन, महत्व और चमत्कार

October 1976

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अध्यात्म क्षेत्र में एकाग्रता को अत्यधिक महत्व दिया गया है। साधनाओं में से अधिकाँश का उद्देश्य एकाग्रता की क्षमता उत्पन्न करना ही है। ध्यानयोग के अन्तर्गत ही नादानुसंधान, चक्र वेधन, शक्ति भावना जैसी उपासनाओं को गिना जाता है। राजयोग में प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के रूप में जिसे चार चरणों में बाँटा गया है उसकी वस्तुतः एक ही प्रक्रिया है-उच्चस्तरीय चिंतन सहित एकाग्रता की साधना। एक ही चेतना की चार गतिविधियों को मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को अन्तःकरण चतुष्टय की संज्ञा दी गई है। चार स्वरूप और व्याख्याएँ होते हुए भी वस्तुतः यह एक ही सत्ता की विवेचनाएँ हैं। ठीक इसी प्रकार एकाग्रता की उपयोगी विद्या में दक्षता प्राप्त करने के लिए योगसाधना के अन्तर्गत राजयोग, हठयोग, भक्ति योग और लययोग की चारों दिशाएँ, चारों विद्याएँ अपनी-अपनी सड़क पर चलते हुए अन्ततः जिस केन्द्रबिन्दु पर जा मिलती हैं, उसे एकाग्रता कहा जा सकता है। किसी गोले पर भिन्न दिशाओं में खींची गई रेखाएँ भी किसी जगह एकत्रित होकर ही रहती हैं, इसी प्रकार साधनाओं के विभिन्न स्वरूप और विधान भी एकाग्रता का प्रयोजन पूरा करते हैं। सभी साधक अपनी प्रगति और सफलता का अनुमान उपलब्ध एकाग्रता की मात्रा को देखकर ही लगाया करते हैं।

एकाग्रता की शक्ति सर्वविदित है। केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण की प्रतिक्रिया में कितना अन्तर होता है, इसे कौन नहीं जानता? छोटे से आतिशी शीशे में सूर्य किरणें एकत्रित कर लेने पर देखते-देखते अग्नि उत्पन्न होती है और दावानल का रूप धारण करने तक में समर्थ होती है। जब कि मीलों के बीच बिखरी वही सूर्य किरणें सामान्य गर्मी, रोशनी देने के अतिरिक्त कोई चमत्कारी प्रयोजन सिद्ध नहीं करतीं। ढेरों भाप, तालाबों, जोहड़ों से उठती और अन्तरिक्ष में विलय होती रहती है। उससे कोई विशेष प्रयोजन नहीं सधता, किन्तु थोड़ी सी भाप केन्द्रीकृत करके प्रेशर कुकर मिनटों में भोजन पकाते और रेलगाड़ी के इंजन भारी बोझ .खींचते हुए द्रुतगति से पटरी पर दौड़ते हैं। बिखरी बारूद जला देने से क्षण भर के लिए चमक दिखेगी और लपट दिखेगी किन्तु उसी को बन्दूक की नली में एकत्रित करके दिशा विशेष में धकेला जाय तो भयंकर धड़ाका करते हुए लक्ष्यवेध के रोमाँचकारी परिणाम उत्पन्न करती है। बिखरे हुए कच्चे धागे एकत्रित होकर हाथी को बाँधे रह सकने योग्य मजबूत रस्से बनते हैं। बुहारी की क्षमता दुर्बल सींकों के एकत्रीकरण से ही सम्भव होती है। इन मोटे उदाहरणों को हर कोई जानता है। उन पर ध्यान दिया जाय तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि भौतिक जगत में संगठन समझी जाने वाली और आत्मिक क्षेत्र में एकाग्रता कही जाने वाली शक्ति का कितना अधिक महत्व है। उसकी प्रतिक्रिया ही समस्त प्रकार की सफलताओं, विशेषताओं एवं विभूतियों की जननी है।

पौराणिक कथा के अनुसार राजा द्रुपद अपनी अति गुणवती पुत्री को किसी ऐसे समर्थ सहचर के सुपुर्द करने के इच्छुक थे, जिसमें सफल जीवन जी सकने की क्षमता हो। ऐसा व्यक्ति कौन हो सकता है-उसमें क्या लक्षण होने चाहिएं? इस सन्दर्भ में राजा ने मनीषियों से विचार विमर्श किया तो यही निष्कर्ष निकला कि बिखरी हुई मनः स्थिति के लोग प्रायः अपने सभी कामों में असफल होते हैं जब कि एकाग्रचित्त से छोटे कामों में भी जुड़े रहने वाले लोग क्रमशः आगे बढ़ते और ऊँचे उठते चले जाते हैं। अन्ततः यही निर्णय हुआ कि राजकुमारी का विवाह ऐसे व्यक्ति से किया जाय तो एकाग्रता की सत्प्रवृत्ति का अभ्यस्त सिद्ध हो सके। पानी में छाया देखकर, छत पर लहकती हुई मछली की आंख पर निशाना लगाना स्वयंवर की शर्त रखी गई। उसमें मात्र अर्जुन ही सफल हुए और वे ही सर्वगुण सम्पन्न द्रौपदी का वरण कर सके। अर्जुन की प्रगति और विशिष्टता का परिचय अनेकानेक कथा गाथाओं में मिलता है, इस प्रगतिशीलता के मूल में उसकी एकाग्र वृत्ति की प्रमुख भूमिका मानी जा सकती है।

नृतत्व विज्ञानी जानते हैं कि मनुष्य की तुच्छ दिखने वाली सत्ता वस्तुतः असीम सम्भावनाओं से भरी पूरी है। उसमें बीज रूप से वे सभी तत्व विद्यमान हैं जो उसके सृजनकर्त्ता परमेश्वर में पाये जाते हैं। मनुष्य की समूची सत्ता एक नगण्य से शुक्राणु में विद्यमान रहती है। विशाल वृक्ष का समूचा ढाँचा छोटे से बीज में विद्यमान रहता है। प्रश्न विकसित होने का अवसर मिल सकने का है। सामान्य क्षमता एवं परिस्थिति के रहते हुए भी संसार के महामानव अनेकानेक कठिनाइयों एवं अभावों से जूझते हुए प्रगति पथ पर आगे बढ़े हैं और उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचे हैं। इसमें उनकी प्रमुख विशेषता एक ही रही है कि अपने मानसिक चिन्तन और शारीरिक श्रम को अभीष्ट लक्ष्य की ओर पूरे उत्साह के साथ नियोजित किये रहे हैं, द्रुतगामी खरगोश से मन्दगामी कछुए ने बाजी जीती थी, यह ईसप की नीति कथा प्रायः सभी ने सुनी है। कछुआ अपनी बुद्धि और क्रिया को एक ही दिशा में नियोजित किये रहा और अधिक समर्थ खरगोश से आगे पहुँचा। खरगोश इसलिए हारा कि चंचलता उसे घेरे रही और अपने समय तथा क्रिया कलाप को अस्त व्यस्त ढंग से बखेरता हुआ उपहासास्पद और असफल बनकर रह गया। एकाग्रता और क्रमबद्धता का उसे अभ्यास रहा होता तो कछुआ की तुलना में उसी को बाजी जीतने का अवसर मिलता। मनुष्य जीवन को आये दिन मिलने वाली सफलताओं और असफलताओं के पीछे प्रायः यही तथ्य काम करता पाया जाता है।

‘योगश्चित्त वृत्ति निरोधः’ सूत्र में योग की परिभाषा चित्त वृत्ति के निरोध रूप में की गई है। चित्त की अवाँछनीय प्रवृत्तियों में एक है अनावश्यक चंचलता। अभीष्ट प्रयोजन की निर्धारित लक्ष्य की सीमा में रहकर विचार मंथन की उपयोगिता को सराहा गया है। वैज्ञानिक, कवि, कलाकार, तत्वदर्शी योगी अपने-अपने विषय में द्रुतगति से चिन्तन करते हैं, पर वह होता सीमाबद्ध है। मस्तिष्कीय चंचलता तो बुद्धिमानों को भी मूर्खों की तरह असफल बनाती रहती है। अस्तु आत्मिक प्रगति के आकाँक्षी योगीजनों को शास्त्र ने चंचलता के निरोध का अनुशासन मानने के लिए कहा है। जो ऐसा कर सकेगा वही अपनी बहुमूल्य क्षमताओं को योजनाबद्ध रूप से अभीष्ट दिशा में लगा सकने में समर्थ हो सकेगा। सफलता के लिए यह प्रथम शर्त है। क्या भौतिक और क्या आत्मिक दोनों ही क्षेत्रों की प्रगति बिखराव को समेटने और दिशाबद्ध चरण बढ़ाते चलने पर ही सम्भव हो सकती है।

आकाश से उतरकर वर्षा का स्वच्छ जल विस्तृत भूमि पर बरसता और फैलता, बहता जहाँ-तहाँ भटकता हुआ क्रमशः अधिक नीचे गिरता चला जाता है और अन्ततः समुद्र के खड्ड में जा गिरता है और खारी बनकर अपेय स्थिति में जा पहुँचता है। इसी अतुलित जल राशि का एक थोड़ा सा अंश बाँध में सीमाबद्ध कर लिया जाता है तो उससे प्यासी भूमि की सिंचाई होती और धन धान्य का लाभ मिलता है। नदी, नहरों में बहने वाला सीमाबद्ध जल उपयोगी सिद्ध होता है किन्तु वह बाढ़ के रूप में बिखर पड़े तो उससे हानि ही होगी। विशाल जल राशि को छोटे मार्ग में होकर गुजारने पर जो शक्ति उत्पन्न होती है उससे बड़े-बड़े बिजली घर बनते हैं। यह शक्ति के सीमाबद्ध प्रयोग का ही चमत्कार है।

चिन्तन क्षमता को प्रायः महत्व ही नहीं दिया जाता। लोग ऐसे चिन्तन में उलझे रहते हैं जिनका अपनी वर्तमान परिस्थितियों के साथ कोई ताल मेल नहीं बैठता। असंगत और निरर्थक सोचते रहने से इस उपयोगी सामर्थ्य का अपव्यय होता है। जो विचार आज की समस्याओं के समाधान में योग दे सकते हैं-भविष्य निर्माण का पथ प्रशस्त करते हैं उन्हें उथलेपन के साथ नहीं वरन् गहराई और दिलचस्पी के साथ अपनाया जाना चाहिए। किन्तु जो अनुपयोगी एवं अनैतिक हैं, उन कल्पनाओं से पिण्ड छुड़ाते रहने में ही लाभ है। किन विचारों को मस्तिष्क में स्थान दिया जाय किन्हें न दिया जाय इनका फैसला पहले से ही कर लिया जाय तो प्रवेश उन्हीं को दिया जायगा जिनकी उपयोगिता असंदिग्ध है। रोगी, चोर, उठाईगीरे, बाजारू कुत्ते, चमगादड़, छछूंदर, कीड़े, मकोड़े, साँप, बिच्छू आदि को घर में प्रवेश करने एवं अड्डा जमाने का सदा प्रतिरोध ही किया जाता है। अवाँछनीय विचारों की हानि इन सबसे भी अधिक है। वे मात्र मस्तिष्क में भ्रमण ही नहीं करते रहते, वरन् अपने अनुरूप क्रिया करने के लिए पूरे व्यक्तित्व और अंग प्रत्यंगों को अपनी प्रेरणा के अनुरूप ढलने एवं चलने के लिए प्रशिक्षित करते हैं।

मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि विचार बीज और कर्म उसका अंकुर है। मस्तिष्क की उर्वरा भूमि में जिस स्तर के विचारों को प्रश्रय मिलेगा, उसी प्रकार की अभिरुचि उत्पन्न होगी और फिर वैसा ही कर गुजरने के लिए मन करेगा। अश्लील साहित्य पढ़ते-पढ़ते मन में कामुकता उभरती है और फिर यौनाचार की पृष्ठभूमि किसी न किसी प्रकार बनने ही लगती है। अपराधी दृश्यों की फिल्में देखकर कितने ही कच्ची मनोभूमि के युवक उसी प्रकार का आचरण करने पर उतारू हो जाते हैं। ठीक इसी प्रकार उपयोगी विचारों को मस्तिष्क में लगातार स्थान मिलते रहने के कारण जीवन प्रवाह उसी धारा में बहने लगता है। विचारों का बिखराव रोका जा सके, निरर्थक और अनर्थमूलक चिन्तन से बचा जा सके, निर्धारित लक्ष्य की परिधि में ही विचार प्रक्रिया को नियन्त्रित किया जा सके तो तद्विषयक बौद्धिक प्रगति आश्चर्यजनक रीति से होती देखी जा सकती है। मन्द बुद्धि समझे जाने वाले लोग भी अपनी रुचि के विषय में प्रवीण पाये जाते हैं। इसका एक ही कारण है उन्होंने जिस दिशा में गहराई और रुचिपूर्वक सोचते रहने का प्रयास किया, उसी संदर्भ में उन्हें प्रवीणता उपलब्ध हो गई। पर चिन्तन की एकाग्रता का ही परिणाम है कि लोग अपने विषय के विशेषज्ञ बनते और सद्विषयक सफलता के उच्चशिखर पर जा पहुँचते हैं।

व्यवस्थित दिनचर्या बनाकर समय और श्रम को अभीष्ट उद्देश्य में लगाये रखा जाय, निर्धारित क्रिया कलापों में उत्साह एवं मनोयोग जोड़कर रखा जाय तो किये गये काम अधिक परिमाण में भी होते हैं और उनका स्तर भी ऊँचा रहता है। अभ्यास से प्रवीणता प्राप्त होने का तथ्य सर्वविदित है। अभ्यास का अर्थ है-रुचि, मनोयोगपूर्वक सामर्थ्य का नियोजन। यह रीति-नीति अपनाने वाला अपने विषय का कलाकार सिद्ध होता है। इसके विपरीत यदि चंचलता एवं अस्त व्यस्तता स्वभाव का अंग बन गई हो और बन्दर की तरह क्षण-क्षण में मन इधर उधर मचकता, उचकता रहता हो तो सामर्थ्य और साधन रहते हुए भी हर कार्य अधूरा, लँगड़ा, काना, कुबड़ा बना रहेगा। काम की उस कुरूपता को देखकर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकेगा कि यह हरकत किसी फूहड़ व्यक्ति की है। उसमें ढेरी की ढेरी त्रुटियाँ रह रही होंगी और जो किया गया है उसे अनुपयुक्त उपहासास्पद ठहराया जायगा।

जिन लोगों ने अपना जीवन लक्ष्य निर्धारित किया और योजनाबद्ध रूप से आगे बढ़ने की योजना बनाई वे सफलता की मंजिल पूरी नहीं तो सन्तोषजनक सीमा तक अवश्य ही पूरी कर सके हैं। साधना और क्षमता की न्यूनता को लगन के माध्यम से पूरा किया जा सकता है। संसार के महामानवों में अधिकाँश की प्रारम्भिक स्थिति बड़ी शोचनीय थी। न उसके पास साधन थे और कौशल न सहयोग। वे अपने स्वल्प क्षमता के सहारे ही अभीष्ट लक्ष्य की ओर धैर्य और साहस का सहारा लेकर लोग संकल्प पूर्वक आगे बढ़े। निष्ठा और तत्परता की कसौटी पर खरे सिद्ध होने वालों को भगवान प्रगति की ओर बढ़ चलने के अनेक अवसर प्रदान करते हैं-अभावों की पूर्ति होने लगती है और मनस्वी कर्मनिष्ठों को सहयोग की कमी नहीं रहती। प्रामाणिकता और पात्रता सिद्ध करने वाले लोगों का मूल्याँकन किया जाता है और उन्हें अनुरूप गौरव मिलता चला जाता है।

एकाग्रता का तात्पर्य ठप्प या अवरुद्ध हो जाना नहीं है। विचारों में मस्तिष्कीय और कर्म में शारीरिक हलचलें तो रहेंगी उन्हें रोकना हो तो मूर्छित या अर्ध मूर्छित स्थिति में जाना पड़ेगा। यह तो निष्क्रियता की स्थिति हुई। आपरेशन के समय, पीड़ा मुक्ति की सुन्नता उत्पन्न करने के लिए अथवा उच्चस्तरीय योगसाधना में चिन्तन एवं कर्म की समाप्ति वाली आत्मिक अथवा कृत्रिम निःचेष्टता अभीष्ट हो सकती है। सामान्य स्थिति में तो यह अनुत्पादक ही है। इससे कोई लाभ दिखाई नहीं पड़ता। बहुधा ध्यान की तन्मयता में मस्तिष्कीय निःचेष्टता की अपेक्षा की जाती है, यह व्यर्थ है। उपयोगी यह है कि मात्र बिखराव को रोका जाय। अवाँछनीय चिन्तन और अनावश्यक कर्म से बचा जाय। इस प्रकार अपव्यय से बची हुई सामर्थ्य को अभीष्ट प्रयोजन में लगाकर सफलता की दिशा में द्रुतगति से आगे बढ़ा जा सकता है।

एकाग्रता का परिपक्व स्वरूप यह है कि विचारों पर नियन्त्रण स्थापित किया जाय उन्हें अनुपयोगी उलझनों से निकाल कर मात्र विधेयात्मक प्रयोजनों में नियोजित कर सकने का कौशल प्राप्त किया जाय। वैचारिक अंकुश रख सकना एकाग्रता की सिद्धि है। इसके लिए ध्यानयोग, नादयोग आदि के व्यायाम साधन किये जा सकते हैं। तन्मयता और तत्परता का अभ्यास जिस भी उपाय से किया जा सकता हो उसे तद्विधायक साधना कहा जा सकता है। भक्तियोग के माध्यम से भी यह सफलता मिल सकती है। ईश्वर गुरु या आप्त मानवों के प्रति गहरी श्रद्धा उत्पन्न करके उनके साथ सघन आत्मीयता स्थापित करने की मनोविज्ञान समर्पित अध्यात्म साधना से तन्मयता उत्पन्न होती है और एकाग्रता उत्पन्न होने का साधन बन जाता है। किसी वस्तु का लाभ एवं मूल्य विदित होने पर उसे पाने की ललक उठती है, इस प्रकार रुचि उभारने और तत्परता उत्पन्न करने का आधार बनता है। ईश्वरीय अनुग्रह-योग का चमत्कार, कर्मकांडों का माहात्म्य, धर्म धारणा का स्वर्ग फल जैसे माहात्म्यों का विस्तृत वर्णन इसीलिए किया गया है कि उस मार्ग के पथिकों में आवश्यक उत्साह बना रहे तथा धैर्यपूर्वक लम्बी मंजिल को क्रमिक गति से पार करते चलते का साहस स्थिर बना रहे।

प्रगति पथ पर अग्रसर होकर अभीष्ट सफलताएँ प्राप्त करने के लिए जो दो चरण बढ़ाने पड़ते हैं उनमें से एक का नाम तन्मयता और दूसरे का तत्परता है। इन्हें मनोयोग और कर्मयोग भी कह सकते हैं। वैचारिक नियोजन और भाव भरी ललक का समावेश भी आवश्यक है अन्यथा चिन्तन उखड़ा रहेगा। तन्मयता में विचारणा ही नहीं इच्छा, आकाँक्षा की ललक भी जुड़ी होती है। इस ललक को ही भक्तियोग कहते हैं। ज्ञानयोग और भक्तियोग का समन्वय मानसिक बलिष्ठता का-तन्मयता का उपार्जन करता है। इसे एकाग्रता की सिद्धि प्राप्त करने का अति महत्वपूर्ण अंग कह सकते हैं। कर्म की प्रखरता में भी उत्साह, कौशल, श्रम एवं समय का समुचित समावेश होना चाहिए। तभी वह अधिक परिमाण में अधिक ऊँचे स्तर का बनता है। उपेक्षा और तत्परतापूर्वक किए गये कामों का घटियापन और बढ़ियापन सहज ही कर्त्ता की स्थिति का परिचय खोलकर रख देता है।

उपलब्धियों पर सुख-सन्तोष निर्भर है। उपलब्धियां साधना से मिलती हैं। साधना का ही दूसरा नाम एकाग्रता है। एकाग्रता के दो अविच्छिन्न पथ हैं-तन्मयता और तत्परता। सफलताओं के वट वृक्ष के मूल में एकाग्रता की जड़ें ही गहराई तक प्रवेश होती और सक्रिय रहती देखी जा सकती हैं। आलस्य पर नियन्त्रण स्थापित करने के लिए श्रम और समय का पूरी तत्परता के साथ अभीष्ट प्रयोजन में समावेश करना पड़ता है। कर्म के बिखराव को रोक देना और विचारों पर अंकुश रखना इसी का नाम मनोनिग्रह है। अध्यात्म शास्त्र में इसी को ‘आत्म-जय’ कहा गया है। प्रमाद का बिखराव ही मानसिक क्षमता को अस्त-व्यस्त करता है। अति संक्षेप और सारभूत शब्दों में यदि एकाग्रता की महान उपलब्धि के आधार का वर्णन किया जाय तो आलस्य और प्रमाद की अस्त व्यस्तता पर अंकुश कर लेने की सफलता के रूप में उसकी व्याख्या विवेचना हो सकती है। इस दिशा में परिपक्व सफलता दैनिक जीवन की समस्त गतिविधियों को सुनियोजित करने की आत्म साधना में चिरकाल तक निरत रहने से ही सम्भव होती है। एकाग्रता का कल्प वृक्ष प्राप्त करने के लिए हमें आलस्य और प्रमाद को मार भगाने की-अभीष्ट प्रयोजन में तन्मयता और तत्परता उत्पन्न करने की जीवन साधना अनवरत रूप से करनी चाहिए। आत्मिक और साधना अनवरत रूप से करनी चाहिए। आत्मिक और भौतिक प्रगति के उभय-पक्षीय लाभ इस सत्प्रयत्न के साथ जुड़े हुए हैं। भौतिक ऋद्धियाँ और आत्मिक सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए हमें एकाग्रता का महत्व समझना चाहिए और उस पूजा काल की विशेषता नहीं समूचे जीवन क्रम को सारभूत एवं स्वर्णिम उपलब्धि मानकर परिपूर्ण श्रद्धा के साथ उसके उपार्जन में संलग्न रहना चाहिए।

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