साधना समर बनाम जीवन संग्राम

October 1976

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साधना को ‘समर’ कहा गया है। जीवन को ‘संग्राम’ माना गया है। महाभारत का ऐतिहासिक रूप जो भी रहा हो, वह हमारे जीवन-क्रम में अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। अंतर्द्वंद्व के रूप में वह समुद्र मंथन हर घड़ी सामने खड़ा रहता है। दैवी और आसुरी वृत्तियाँ अपनी-अपनी ओर जीव को घसीटने के लिए घोर प्रयास करती रहती हैं। जिसे जितना खाद, पानी मिलता है वे उसी अनुपात से बढ़ती हैं। जिसे जितना उपेक्षित एवं विभुक्षित रहना पड़ता है वह उतनी ही दुर्बल परास्त होती चली जाती हैं।

साधना के दो प्रयोजन हैं-एक संचित कुसंस्कारों का उन्मूलन-दूसरे सत्प्रवृत्तियों की सुदृढ़ संस्थापना। अवरोधों को हटाने और सहायक साधनों को बढ़ाने की हर प्रयोजन में आवश्यकता पड़ती है। आत्मिक प्रगति के लिए भी यही उभय-पक्षीय प्रयत्न करना पड़ता है।

भगवान के अवतार के यही दो प्रयोजन हैं-अधर्म का उन्मूलन ओर धर्म का संस्थापन। गीता में भगवान के अनेकों अवतारों के यही दो उद्देश्य-‘यदा-यदा हि धर्मस्य’ और ‘परित्राणाय साधूना’ वाले आश्वासनों में घोषित किये गए हैं। आत्म-चेतना का परिष्कार व्यक्ति में ईश्वर का अवतरण कहा जा सकता है। उसमें पुण्य प्रयोजनों को अपनाने की ही नहीं दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन की भी उमंग समान रूप से काम कर रही होती है। कुसंस्कारों को काट फेंकना आत्मिक पुरुषार्थ में सर्वोपरि माना गया है। कुसंस्कार कितने प्रबल होते हैं, उनकी दुरुहता को महाभारत की एक उक्ति में बताया गया है-‘‘जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति- जानाम्य धर्म न च मे निवृत्ति” अर्थात् धर्म का स्वरूप मालूम तो है, पर उसमें प्रवृत्ति ही नहीं होती। इसी प्रकार अधर्म के दुष्परिणाम भी विदित हैं, पर उनसे छूटना भी बन नहीं पड़ता।

हल जोतना और बीज बोना परस्पर विरोधी प्रक्रिया है। जोतने में खोदने का अवाँछनीय को हटाना लक्ष्य है और बोने में कुछ डाला, रोपा और उगाया जाता है। भवन-निर्माण में नींव खोदने में गड्ढा किया जाता है और फिर उस पर चिनाई आरम्भ करके दीवार खड़ी की जाती है। यह दोनों कृत्य परस्पर विरोधी होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं।

विचारों से विचार और कर्मों से कर्म काटे जाते हैं। पाप कर्मों से निवृत्ति के लिए एक ही उपाय है कि उनके प्रतिपक्षी पुण्य कर्म उतने ही प्रबल स्तर के आरम्भ कर दिये जायं। प्रायश्चित्यों की-पुण्य प्रयोजनों की प्रक्रिया अपनाने का महत्व शास्त्रकारों ने इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए बताया है। लोक-मंगल की-सत्प्रवृत्ति संवर्धन की गतिविधियाँ न अपनाई जायं तो संचित पाप कर्म कट नहीं सकेंगे। आग को बुझाने के लिए पानी की जरूरत पड़ती है। पाप कर्मों की विभीषिका जलती हुई आग के समान है। सत्कर्मों में प्रवृत्त होकर ही उन्हें शान्त किया जा सकता है। पूजा-पत्री के तथा सरल कर्मकाण्डों की लकीर पीट देने से पापों की निवृत्ति होने की बात सोचना व्यर्थ है। जितना भारी पाप था उतना ही वजनदार पुण्य होना चाहिए, तभी सन्तुलन बनेगा। सड़क पर गड्ढा खोदकर दूसरों को गिराने का जो उपक्रम किया गया है उस दुष्कर्म की निवृत्ति के लिए आवश्यक है कि जितना श्रम गड्ढा खोदने में किया गया है उतना ही मिट्टी ढोकर उसे पाटने में किया जाय। क्षति पूर्ति के लिए हर्जाने देने पड़ते हैं। मुख से क्षमा माँग लेने या पत्र पुष्प, दण्ड प्रणाम जैसी चिन्ह पूजा कर देने से किसी के साथ क्षति पूर्ति का समझौता नहीं होता। ऐसे प्रसंगों में अदालतें क्षति के समतुल्य ही उचित हर्जाना दिलाती हैं।

विचारों की काट विचारों से होती है। पतनोन्मुख प्रवृत्ति नीचे गिराने में पृथ्वी की आकर्षण शक्ति जैसा कार्य करती है। पानी गिरने पर नीचे की दिशा में सहज ही बहने लगता है। पर यदि उसे ऊँचा उठाना हो तो पम्प, रस्सी या अन्य प्रकार के साधन जुटाने की तथा ताकत लगाने की आवश्यकता पड़ती है। अनैतिक, कुविचार समीपवर्ती वातावरण में से उड़-उड़कर सहज ही मस्तिष्क पर छाते हैं और अपने आकर्षक प्रभाव से चिन्तन चेतना को जकड़ लेते हैं। इन्हें काटने के लिए विपरीत स्तर के सद्विचारों को पढ़ने, सुनने, सोचने, मनन करने एवं अपनाने के लिए प्रबल प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है। यह कार्य विचार संघर्ष का महाभारत खड़ा किये बिना और किसी तरह सम्भव नहीं हो सकता।

पाण्डवों को तथा अन्य धर्म समर्थकों को प्राण हथेली पर रखकर लड़ना पड़ा था। लंका काण्ड में भी रीछ, बानरों ने राक्षसों के साथ कट-कटकर युद्ध किया था। इसका महाभारत और रामायण में विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है। वस्तुतः जीवन-साधना के प्रत्येक साधक को ऐसा ही अन्तःयुद्ध करना पड़ता है। गीता और रामायण पढ़ने-सुनने का लाभ तभी है जब इन महायुद्धों में लड़ने वाले वीर धर्म प्रेमियों की तरह हमारा भी उत्साह, उमंगें और वैसा ही पराक्रम करने के लिए शौर्य, साहस क्रियाशील हो चले ।

शरीर पर छाया हुआ आलस्य और मन पर छाया हुआ प्रमाद चन्द्र-सूर्य पर छाये हुए राहु केतु द्वारा लगे हुए ग्रहण की तरह हैं। इन अवाँछनीयताओं से पिण्ड छुड़ाया जाना चाहिए, शरीर में श्रमशीलता और मन में उत्साह भरी तत्परता का समावेश रहना चाहिए। इन्द्रियाँ कुमार्गगामी होकर वासनात्मक अनाचारों को जन्म देती हैं, कुकर्मों से शरीर दुर्बल एवं रुग्ण बनता है, वासना की पिशाचिनी ओजस् भी नष्ट करती है और तेजस् भी। व्यक्ति खोखला होता चला जाता है। मन पर छाई हुई तृष्णा और अहंता अटपटे, उद्धत और निरर्थक संचय एवं अपव्यय के ढकोसले खड़े करती है। उन्हीं विडम्बनाओं में बहुमूल्य जीवन सम्पदा समाप्त हो जाती है। इस सुर-दुर्लभ अलभ्य अवसर को गँवाते हुए मनुष्य ऐसे ही खाली हाथ चला जाता है। जीवनोद्देश्य पूरा करने के स्थान पर चिरकाल तक कष्ट देने वाली पापों की पोटली ही सिर पर लदी होती है।

चिन्तन और कर्तृत्व को यदि सँभाला, सुधारा न जाय तो पतन के गहरे गर्त में गिरने की गति निरन्तर तीव्र होती जाती है। भव-बन्धन निरन्तर कड़े होते जाते हैं। इस स्थिति से बचना हो तो अपने आपे के साथ प्रबल संघर्ष खड़ा करना होता है। अनायास ही इस दुर्गति से कोई छूट नहीं सकता।

उपार्जन क्षेत्र की पवित्रता स्थिर रखने के लिए लोभ से जूझना पड़ता है और सादगी एवं सचाई की नीति अपनानी पड़ती है। परिवार का सन्तुलन सही रखना हो तो मोह से बचते हुए कर्त्तव्य तक सीमित रहना होगा। परिवार के लोगों के प्रति असाधारण मोह ही उनका स्तर गिराने और अपने कर्त्तव्यच्युत होने का प्रधान कारण होता है। यदि परिजनों की उचित-अनुचित माँगों को, प्रसन्नता-अप्रसन्नता को महत्व न दिया जाय और विवेक दृष्टि रखते हुए उनके कल्याण एवं अपने कर्त्तव्य भर की बात सोची जाय तो प्रत्येक परिवार का स्तर ऊँचा रह सकता है और उसमें से नर-रत्नों के उत्पन्न होने का आधार बन सकता है। इसके लिए अपने मोह और उनके आग्रह की उपेक्षा करके औचित्य अपनाने का साहस जुटाना पड़ेगा। बहुत करके अपने साथ और कभी-कभी परिवार के लोगों के साथ भी झगड़ना पड़ेगा।

सम्पत्ति पर से स्वामित्व की मान्यता हटा ली जाय और उसे सार्वजनिक सम्पत्ति की तरह-दूरदर्शी ट्रस्टी की तरह मात्र उपयोगिता का ध्यान रखकर ही खर्च किया जाय तो प्रत्येक पैसा सदुपयोग में ही खर्च होगा और उससे सर्वतोमुखी कल्याण ही कल्याण उत्पन्न होगा। ऐसी मनःस्थिति में धन उपार्जन भी योगाभ्यास की ही तरह एक हितकारी कार्य बन जाता है। धन उपार्जन में जितना शारीरिक श्रम करना पड़ता है उतनी ही प्रखरता यदि उसके उपयोग में बरती जाय तो उत्पादक के सारे प्रयास लोक-साधना बनकर रहेंगे। अपनी लोभ, मोह-ग्रसित दूषित दृष्टि से लड़-झगड़कर ही ऐसी निर्मल मति उत्पन्न की जा सकती है।

परिवार के लोगों तथा अन्य स्वजन सम्बन्धियों, मित्र, सहचरों से एक आँख प्यार की एक आँख सुखार की रख कर ही चलना चाहिए। उचित को मानने और अनुचित को न मानने की गति अत्यन्त स्पष्ट रखनी चाहिए। उन्हें दुलार का उपहार भी सच्चे मन से दिया जाय तो नीति और आदर्शों के सम्बन्ध में किसी का भी दबाव स्वीकार न किया जाय। मित्रता की सार्थकता इसमें है कि स्वजनों को अधिक परिष्कृत बनाया जाय। इसके लिए अवाँछनीयताओं को बदलने के लिए परामर्श से काम न चले तो विरोध और असहयोग की नीति भी अपनाई जा सकती है। देखने में यह झंझट खड़ा करने जैसी बात है पर इसके बिना धर्म संकट से किसी दूरदर्शी का पीछा भी नहीं छूट सकता। सबका प्यारा बनने-सब की हाँ में हाँ मिलाने-सबको खुश करने की नीति अपनाने वाले वस्तुतः अपना और उन सबका अहित ही करते हैं जिन्हें प्रसन्न रखने की बात सोची गई थी।

माली को कठोर कर्त्तव्य निबाहने पड़ते हैं। वह पौधों को खाद, पानी देता है, रखवाली करता है और फलने-फूलने की स्थिति तक पहुँचाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करता है। इतने पर भी समय-समय पर काट-छाँट करने में भी चूकता नहीं। यदि वह मोहग्रस्त मनःस्थिति बना ले तो फिर पौधों के नीचे खर-पतवार को निराना-उखाड़ना और छितराई हुई टहनियों की काट-छाँट कर सकना भी उसके लिए सम्भव न होगा। यह मोहग्रस्तता उसे माली के पवित्र कर्त्तव्य से च्युत करेगी और उसके प्रिय उद्यान का विकास ही रुक जायगा। स्वजनों के प्रति माली जैसी दृष्टि रखकर अपने व्यवहार को दूरदर्शितापूर्ण बनाया जाना चाहिए।

समाज में अनेकों कुरीतियाँ, मूढ-मान्यताएँ, अंधपरंपराएं प्रचलित हैं। अनाचार और भ्रष्टाचार की कमी नहीं। उन्हें अस्वीकृत किया जाना चाहिए और जो लोग अपनाते हैं उनके साथ विरोध एवं असहयोग की नीति बरती जानी चाहिए। जहाँ आवश्यक हो वहाँ सीधे संघर्ष की नीति भी अपनाई जानी चाहिए और उसके लिए यदि जोखिम उठानी पड़े तो उन्हें भी शिरोधार्य करने का साहस जुटाना चाहिए।

सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन आधा भाग है-दुष्प्रवृत्तियों के निवारण का दूसरा पक्ष जुड़ जाने से ही बात पूरी बनती है। धर्म कर्मों में हमारी अधिकाधिक रुचि होनी चाहिए। पूजा-उपासना से लेकर दान-पुण्य तक के विविध प्रयोजन पूरे करने चाहिएं और सत्कर्मों में निरत रहना चाहिए किन्तु साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए यह एकाँगी क्रिया-कलाप सर्वथा अपर्याप्त है। उसके साथ अवाँछनीयताओं के उन्मूलन का साहस भरा प्रयोग अविच्छिन्न रूप से जुड़ा ही रहना चाहिए।

शक्ति की, सिद्धि की, देवी भगवती दुर्गा ने बताया था कि वे किसे वरण करेंगी। दुर्गा सप्त शती में उनके अभिमत का इस प्रकार उल्लेख है-

योमाँ जयति संग्रामे, यो में दर्पो व्यपोहृति। यो मे प्राति वलो लोके से मे भर्ता भविष्यति।।

अर्थात् जो मुझे संग्राम में जीत सके, मेरी चुनौती स्वीकार कर सके, जो अपने बल को मेरे बल के साथ तोल सके वही मेरा स्वामी बन सकेगा।

समृद्धि, सम्पत्ति, प्रगति एवं सफलता का आधार शक्ति है। शक्ति के मूल्य पर ही सिद्धियाँ मिलती हैं। उन्हीं के आधार पर साँसारिक सुख और आत्मिक सन्तोष की संभावनाएं बनती हैं। शक्ति संघर्ष से उत्पन्न होती है। अस्तु सहयोग और संघर्ष की-अभिवर्धन और उन्मूलन की उभय-पक्षीय रीति-नीति अपनाते हुए ही हमें जीवन सन्तुलन बनाना चाहिए। सफल वर्तमान और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण इसी आधार पर हो सकता। अध्यात्म विज्ञान में इस समन्वय नीति को अपनाने के लिए ही निर्देश किया गया है।


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