साधना विज्ञान की सामयिक शोध और अभिनव प्रतिष्ठापना

October 1976

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साधना का वैज्ञानिक-सुव्यवस्थिति एवं बदली परिस्थितियों के अनुरूप ढाँचा खड़ा करने के लिए हमें नये सिरे से प्रयत्न करने होंगे। हर युग की मनः स्थिति और परिस्थिति अलग होती है। प्राचीनकाल में तर्क शक्ति का विकास नहीं हुआ था। उन दिनों श्रद्धा से ही आवश्यक समाधान हो जाते थे। शास्त्र विधान, आप्त वचन, गुरु निर्देश, परंपरा निर्वाह मात्र को ही पर्याप्त मानकर अनुशासन स्वीकार कर लिया जाता था, पर अब वैसा नहीं हो सकता। विज्ञान ने तर्क शक्ति को जगाया है। क्यों, कैसे? का उत्तर दिये बिना इस युग में गाड़ी एक कदम नहीं चल सकती। तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत किये बिना-प्रत्यक्ष के आधार पर स्थिति को प्रमाणित किये बिना अब किसी बात को हृदयंगम कराया जा सकना कठिन है। ऐसी दशा में ब्रह्म विद्या का ज्ञान-पक्ष एवं साधना विधान का क्रिया-पक्ष दोनों ही तथ्यों और तर्कों के आधार पर प्रमाणित किये जाने हैं। सोने को अग्नि परीक्षा और कसौटी की रगड़ के बिना जब खरा स्वीकार नहीं किया जा सकता तो आत्म विज्ञान के काल्पनिक अथवा प्रामाणिक होने की बात की जाँच पड़ताल क्यों न होगी? प्राचीनकाल में जन मानस तर्क को इतनी मान्यता नहीं देता था, पर आज तो इसके बिना गाड़ी एक कदम आगे नहीं बढ़ती। अस्तु ब्रह्मविद्या के प्राचीन आधारों को युग की आवश्यकता के अनुरूप नये ढाँचे में ढालना पड़ेगा।

इसी प्रकार साधना विधानों में सामयिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आवश्यक हेर फेर करना होता है। आहार बिहार, क्रिया कलाप एवं वातावरण के अनुरूप शरीर और मन के स्तरों में समयानुसार भारी अन्तर पड़ता रहता है। किसी समय लोगों के रक्त इतने शुद्ध थे कि तुलसी के पत्ते, कालीमिर्च, अदरक, गिलोय, सोंठ, अजवायन जैसी घरेलू वस्तुओं से बड़े-बड़े रोग अच्छे हो जाते थे, अब तीक्ष्ण एन्टीबायोटिक्स लिए बिना जुकाम, खाँसी जैसे छोटे रोगों तक से छुटकारा नहीं मिलता। किसी समय खाने और पचाने में पेट पूरी तरह सक्षम थे, आज हर कोई कब्ज को जन्मजात साथी की तरह छाती से चिपकाये बैठा है। श्रम की दृष्टि से हर कोई असमर्थ बनता जाता है। थोड़ा सा काम करते ही भारी थकान आती है। मनः स्थिति में अब निश्चिंतता, प्रफुल्लता, उदारता, सज्जनता जैसे तत्व बेतरह घट गये हैं। संकीर्ण स्वार्थपरता एवं विलासिता बढ़ रही है। संकल्प शक्ति का- साहस का तो एक प्रकार से दिवाला ही पिट गया है। आत्महीनता और उत्तेजना से मस्तिष्कों में अशान्ति भरे उद्वेग छाये रहते हैं। अन्न, जल और वायु के स्तर में पहले की अपेक्षा अब भारी अन्तर आ गया है। ऐसी दशा में शरीर और मन को जो आत्म-साधनाएँ प्राचीन काल में सह्य और सरल मालूम पड़ती थीं, वे अब अति कठिन बन गई हैं। मानसिक बलिष्ठता के कारण जो ध्यान धारणा सहज की बन पड़ती थी वह अब मनस्वी लोगों के लिए भी अति कठिन पड़ती है।

दृश्य गणित के अनुसार ज्योतिष शास्त्र को प्रत्येक पाँच हजार वर्ष में नये सिरे से संशोधित करना पड़ता है। ग्रह नक्षत्रों का-पृथ्वी की कक्षा, परिधि गति आदि का जो निर्धारण किया गया है वह अनुमानित है। उसे यथार्थता के समीप भर कहा जा सकता है। अन्तर तो इतने में भी ढेरों रह जाता है। वे कारण अभी भी अविज्ञात हैं जिनके कारण ग्रह गति में अन्तर पड़ता रहता है और एकबार का निर्धारण पाँच हजार वर्ष में इतना गड़बड़ हो जाता है कि उसे वेधशालाओं में ग्रहों की प्रत्यक्ष स्थिति देखकर पुराने निर्धारण को नये सिरे से परिशोधित किया जाया। ठीक यही बात योग साधनाओं के सम्बन्ध में भी है। अति प्राचीन काल के विधि विधान उस समय के मनुष्यों और परिस्थितियों के लिए निस्सन्देह उपयुक्त थे, पर आज के और उस समय के अन्तर को देखते हुए नये सिरे से शोध करने और वर्तमान के अनुरूप क्रिया पद्धति निर्धारण करने की आवश्यकता होगी। हुई भी है। प्राचीनकाल में अनुष्ठान, जप का दशांश होम करने का विधान था। आज की परिस्थिति में वैसा करना मुट्ठी भर सुसम्पन्न लोगों के लिए ही सम्भव हो सकता है। वह अत्यधिक महंगा पड़ेगा और गरीब एवं मध्यम श्रेणी के लोग उसके लिए कभी साहस ही न कर सकेंगे। घी की महंगाई तथा शुद्धता की संदिग्धता को देखते हुए युग के अनुरूप दशांश के स्थान पर शताँश होम पर्याप्त होने की प्रथा प्रचलित की गई है। शास्त्रकारों ने इस प्रकार के परिवर्तनों के लिए गुंजाइश रखी है और छूट दी है। देश, काल, पात्र का ध्यान रख कर विधि व्यवस्थाओं में हेर फेर करते रहने के लिए सर्वत्र निर्देश दिये गये हैं। युग की स्थिति एवं आवश्यकता को समझते हुए योग साधनाओं में नये सिरे से कुछ निर्धारण करने पड़े तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए।

भगवान् के विभिन्न अवतार समय की आवश्यकता देखते हुए होते हैं और पिछले अवतारों की तुलना में नये ढंग से, नये प्रकार की लीलाएँ प्रस्तुत करते हैं। यदि एक ही रीति-नीति सदा काम देती रहती तो नये अवतारों की-नये प्रकार के क्रिया-कलापों की आवश्यकता ही न पड़ती। यही बात शास्त्रकारों के सम्बन्ध में भी है। आदि काल में मात्र ‘मनुस्मृति’ ही एक धर्म शास्त्र था। पीछे परिस्थितियाँ बदलती गईं और नये संविधान बदलते गये। युग दृष्टा ऋषियों ने समय की आवश्यकता पूरी करने वाली स्मृतियाँ बनाईं और वह सिलसिला एक-एक कदम आगे बढ़ता ही चला आया। इन दिनों हिन्दू कानून बनाने वालों ने याज्ञवलक्य स्मृति को युग के अनुरूप माना है और उसी के अनुशासन में बनी हुई व्यवस्था को सरकारी मान्यता मिली है। मनुस्मृति के प्रति आदर भाव तो अभी भी बना हुआ है किन्तु उसके कितने ही विधान समय से पीछे के कहकर अमान्य ठहरा दिये गये हैं। हर समाज में सुधारकों के रूप में देवदूत आते रहे हैं और अपने ढंग से लोक नेतृत्व करके असामयिक परम्पराओं को निरस्त करके उनके स्थान पर नये प्रचलन आरम्भ करते रहे हैं। सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक, नैतिक, कलात्मक राजनैतिक आदि क्षेत्रों में क्रान्तियाँ होती रही हैं। इनके सूत्र-संचालकों के प्रति लोक मानस ने-सच्चे हृदय से आभार माना है। वायु प्रवाह और जलधारा की तरह सामयिक परिवर्तनों की भी आवश्यकता समझी जाती रही है और यह क्रम काल चक्र से साथ-साथ अनवरत गति से अनन्त काल तक चलता भी रहेगा। भौतिक विज्ञान के प्रतिपादनों में क्रमशः भारी सुधार अप्रभावित नहीं रहा है। एक ऋग्वेद का विकास-चार वेदों में हुआ। एक तत्व दर्शन छह धाराओं में विभक्त हुआ। युग के अनुरूप ब्रह्म-विज्ञान की स्थापना के लिए अब वेदान्त दर्शन को अधिक प्रामाणिक एवं आधुनिक माना जाता है। यों आत्म दर्शन भी अपनी प्राचीनता एवं महत्ता के कारण आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं। योगविज्ञान के सम्बन्ध में भी इस प्रगतिशीलता का समावेश आवश्यक है।

सामयिक आत्म-साधना पद्धति का निर्धारण करते समय यह ध्यान रखना होगा कि उस क्षेत्र में जिन मान्यताओं की स्थापना रखनी अथवा की जानी है, वे सभी तर्क एवं तथ्यों के आधार पर प्रामाणिक होने चाहिएं। बुद्धिवाद के इस युग में क्यों और कैसे का समाधान किये बिना अब कोई बात बन नहीं सकती। श्रद्धा की-गरिमा स्वीकार तो की जा सकती है, पर वह श्रद्धा भी विवेक सम्मत होनी चाहिए। साथ ही यह हृदयंगम कराया जाना चाहिए कि इस स्तर की श्रद्धा अपनाने में किस प्रकार-किस स्तर का सत्परिणाम प्राप्त हो सकेगा। मात्र परंपराओं एवं शास्त्र वचनों के आधार पर कुछ भी कहते सुनते रहा जाय उसे हृदयंगम न कराया जा सकेगा। अस्तु आत्मिक प्रगति के लिए जिस श्रद्धा तत्व को अपनाने के लिए साधकों से कहा जाना है उसकी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए नये सिरे से तर्कों और प्रमाणों का परिपक्व आधार खड़ा करना होगा।

साधना का स्वरूप कलेवर विधि-विधान एवं कर्म-काण्ड निर्धारित करते समय प्राचीन परिपाटी का अन्धानुकरण करते रहने से भी काम नहीं चलेगा। अब च्यवन ऋषि जैसी सारे शरीर पर दीमक छा जाने पर भी अविचल समाधि स्थिति प्राप्त कर सकना कदाचित किसी के लिए भी सम्भव न हो सकेगा। पार्वती की तरह पत्ते खाकर, जल पीकर और वायु के आधार पर-चिरकाल तक साधना रत रह सकना आज की परिस्थिति में किसी के लिए भी सम्भव नहीं है। अन्यान्य साधनाओं के सम्बन्ध में भी यही बात है। अपने युग में मनुष्यों का शारीरिक एवं मानसिक स्तर जिस प्रकार का है उसी को ध्यान में रखकर बनाये गये और बताये गये विधान फलप्रद हो सकते हैं।

साधना का उद्देश्य क्या हो, उस पुरुषार्थ के प्रतिफल की क्या अपेक्षा की जाय यह भी सामयिक प्रश्न है। प्राचीनकाल में भौतिक आवश्यकताएँ न्यूनतम थीं और लौकिक महत्वाकांक्षाओं को हेय समझा जाता था। अस्तु आत्मिक प्रगति का सीधा सादा सा लक्ष्य स्वर्ग मुक्ति, ईश्वर दर्शन, आत्म साक्षात्कार की परिधि तक सीमित थे। उसी प्रयोजन के लिए तत्वदर्शी ऋषि मनीषियों की साधनाएँ चलती थीं। इस मार्ग पर चलते हुए अनायास ही जो ऋद्धियाँ मिलती थीं, उनका प्रदर्शन एवं अपव्यय भी हानिकारक माना जाता था और इस प्रकार के उपयोग का निषेध था। पर आज तो वैसी निस्पृह मनः स्थिति नहीं रही। इन दिनों की आकाँक्षा व्यक्तित्व के ऐसे परिष्कार की है जिसके सहारे भौतिक सफलताएँ और आन्तरिक विभूतियों की उपलब्धि समान रूप से सम्भव हो सके।

अब संसार को माया मिथ्या कहने की बात उपहासास्पद बन पाई है। निवृत्ति और वैराग्य की गृहत्याग वाली व्याख्या अब अमान्य बन चली है। इन दिनों सोचा यह जा रहा है कि आत्म-शक्ति की अभिवृद्धि के फलस्वरूप शरीर को ओजस्वी, मस्तिष्क को मनस्वी और अन्तस् को तेजस्वी बनाया जा सकना सम्भव हो सके।

मध्यकाल में आत्म-साधना के फलस्वरूप चमत्कारी ऋषि सिद्धियों के प्रदर्शन का दौर चला था और किसी के योगी होने का प्रमाण उसका चमत्कार प्रदर्शन कर सकना माना जाने लगा था। फलतः असली सिद्ध पुरुष तो कोई-कोई कभी-कभी ही देखने में आये पर नकलची बाजीगरों की घात भली प्रकार बन आईं। उनने जादूगरी के धन्धे को अध्यात्म से मिलाकर लोगों को मूर्ख बनाना और ठगना आरम्भ कर दिया। बालों में से रंगीन बालू निकाल देने या ऐसे ही अन्य बाजीगरी के खेल दिखाने वाले धूर्त इस बुद्धिवाद के युग में भी सिद्ध पुरुष होने का दावा करते हैं। और अगणित अन्धविश्वासी उनके चंगुल में फँसकर अपना समय और सद्भाव नष्ट करते हैं। प्रकाश के उदय के साथ अन्धकार मिट जाने और निशाचरों का धन्धा बन्द हो जाने की सम्भावना तो सन्निकट है, पर स्थिति इतनी तो बनी ही रहेगी कि आत्मिक प्रगति के आधार पर जीवन क्रम के हलके-फुलके रहने, समस्याओं के सुलझने, मार्ग मिल सकने का लाभ प्राप्त होता रहे। अब नकद धर्म की आवश्यकता समझी जाती है। ऐसे अध्यात्म की अपेक्षा की जाती है जो भौतिकता को हेय ठहराने की अपेक्षा उसके साथ समझौता कर सके और समन्वित प्रगति का पथ प्रशस्त कर सके।

बाजीगरी स्तर के चमत्कार प्रदर्शन की व्यर्थता सामने आ जाने पर भी पराविज्ञान सम्मत अतीन्द्रिय क्षमता के विकास की सम्भावना स्पष्टतः सामने है। अन्तर्मन की चेतना परतें। कितनी सम्वेदनशील और कितनी सूक्ष्म हैं इसका रहस्य अब दिनों दिन अधिक स्पष्ट होता चला आ रहा है। जीवन निर्वाह में तो अन्तर्मन की तीन प्रतिशत सामर्थ्य ही काम में आती है शेष 97 प्रतिशत तो प्रसुप्त स्थिति में ही पड़ी रहती है। इस महादैत्य का यदि जागरण सम्भव हो सके तो मनुष्य की सामान्य समझी जाने वाली सामर्थ्य असामान्य बन सकती है और उसका उपयोग करके व्यक्ति त्रिकालदर्शी से लेकर सूक्ष्म जगत के अद्भुत रहस्यों का उद्घाटनकर्त्ता बन सकता है।

प्रशिक्षण के आधार पर मस्तिष्कीय ज्ञान बढ़ाने के अतिरिक्त ऐसे साधनपरक आधार भी मौजूद हैं जिनके सहारे कालिदास जैसे मंद बुद्धि उच्चस्तरीय विद्यावान बन सकते हैं। स्वास्थ्य संवर्धन के लिए आहार बिहार की प्रचलित परिपाटी ही एक मात्र आधार नहीं है। योग साधन से कायाकल्प कर डालने और परिपुष्ट दीर्घजीवन प्राप्त कर सकने के अन्य सूत्र भी मौजूद हैं। प्रतिभाशाली बनने के लिए क्रिया कौशल, लोक व्यवहार एवं बुद्धि चातुर्य ही उपाय नहीं है ऐसी पगडंडियाँ भी मौजूद हैं जिन पर चलते हुए प्रचंड प्रखरता विकसित की जा सकती है और उससे वातावरण को प्रभावित एवं परिवर्तित कर सकना सम्भव हो सकता है। चेतना की अविज्ञात परतों का जैसे-जैसे पता चल रहा है वैसे-वैसे यह अनुभव किया जा रहा है कि मानवी सत्ता में अन्तर्निहित शक्तियों को जागृत कर सकने और उन्हें उपयोग में ला सकने की क्षमता भी उपलब्ध होनी चाहिए। निश्चित रूप से यह कार्य अध्यात्म साधनाओं के माध्यम से सम्भव हो सकता है।

पिछले दिनों इस दिशा में कुछ प्रयत्न अदृश्य दर्शन अश्रव्य श्रवण, विचार संचालन, सम्मोहन,-निर्देशन, परकाया प्रवेश आदि के प्रयोग रूप में हुए भी हैं। उनके सत्परिणामों को देखते हुए यह सम्भावना उभरती आ रही है कि यदि प्रयत्न किया जाय तो मानवी काया में से ही भौतिक एवं आत्मिक सामर्थ्यों के एक से एक बढ़े चढ़े ऐसे दिव्य अनुदान उपलब्ध हो सकते हैं जिनके सहारे अब की तुलना में भविष्य को अत्यधिक उज्ज्वल, समर्थ और सुविधासम्पन्न बनाया जा सकना सम्भव हो सके।

इन दिनों चेतना की उन शक्तियों का अधिक महत्व समझा जा रहा है जो मानवी प्रतिभा क्षेत्रों को सुविकसित कर सकें। प्रसुप्त शक्तियों को जगा सकें और व्यक्ति की गरिमा को समुन्नत बना कर उसे महामानवों की पंक्ति में प्रतिष्ठापित कर सकें। इन दिनों लोग स्वर्ग जाने की बात नहीं सोचते वरन् अपनी परिस्थितियों को ही स्वर्गीय बनाना चाहते हैं। मुक्ति में जाने के किसी को आतुरता नहीं-कहा यह जा रहा है कि विक्षोभों एवं संकटों से छुटकारा मिले तथा हँसती हंसाती, खिलती खिलाती जिन्दगी का अजस्र एवं उन्मुक्त आनन्द उपलब्ध करना सम्भव हो सके। ईश्वर दर्शन से अब कदाचित ही किसी को संतोष हो सके। कण-कण में- क्षण-क्षण में ऐश्वर्य की अनुभूति करा सकने वाली संवेदनाएँ चाहिएं। इतने भर में ईश्वर का लाभ उपलब्धि करने जैसा संतोष पर्याप्त समझा जा सकता है। युग की इन आवश्यकताओं को पूरा कर सकने वाली साधना ही आज की परिस्थितियों में अभीष्ट हो सकती है।

उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए युग साधना का ऐसा ढाँचा खड़ा करना होगा जो प्रस्तुत मनः स्थिति एवं परिस्थिति के साथ मेल खाता हो। यह व्यवस्था बन पड़ी तो ही उस से समय का समाधान होगा और लोक रुचि उसे स्वीकार करेगी। समय की आवश्यकता एवं माँग को पूरी सकने वाले तथ्यों को ही जीवित रहने और बढ़ने का अवसर मिलता रहा है। अध्यात्म विज्ञान के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त लागू होगा। परम्परागत ढर्रे से आगे न बढ़ने का दुराग्रह किया जाता रहा तो स्थिति के साथ ताल-मेल न बैठ सकेगा और असफलताजन्य निराशा ही पल्ले बँधती चली जायगी। इससे उस महान विज्ञान की कोई सेवा न हो सकेगी जिसकी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए परम्परा में आगे न बढ़ने का हठ किया जा रहा था।

युग साधना का स्वरूप और आधार खड़ा करना अपने समय का अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य है। इसके लिए प्राचीन परिपाटी का गहनतम अध्ययन-समय का सूक्ष्मदर्शी विश्लेषण-विसंगतियों का संगतिकरण-निज का क्रियात्मक अनुभव एवं दिव्य प्रकाश की समन्वयात्मक आवश्यकता पड़ेगी। यह कार्य किसी न किसी को तो करना ही था यदि अपने कन्धे पर वह उत्तरदायित्व लद रहा है तो उसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। ईश्वर की इच्छा है तो अपने युग की इस महती आवश्यकता की भी पूर्ति होगी। युग साधना का ऐसा ढाँचा सम्भवतः अगले ही दिनों खड़ा होगा जिसे तथ्यपूर्ण एवं प्रत्यक्ष लाभदायक पाया जा सके। ऐसी स्थापना से अध्यात्म तत्व ज्ञान को नव जीवन प्राप्त हो सकता है यह मानने को सहज ही जी करता है।

जीवन के शेष दिनों में जिन महत्वपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करने का निश्चय पिछले दिनों घोषित किया गया था उनमें अध्यात्म विज्ञान का युग के अनुरूप ढाँचा खड़ा करने की बात सर्वप्रथम और सर्वप्रधान है। यज्ञ विज्ञान का शोध कार्य यों पृथक लगता है, पर वह भी वस्तुतः ब्रह्मविद्या के विशाल क्षेत्र की ही एक अंशभूत प्रक्रिया है। विश्व के प्रमुख धर्मों को एक लक्ष्य की ओर घसीट ले चलने की बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। यह बन पड़ा तो सार्वभौम एकता-सर्वजनीन घनिष्ठता का एक नया और अति प्रभावशाली पथ प्रशस्त होगा। ऐसे ही कुछ अन्य कार्य है जो शेष जीवन की थोड़ी सी अवधि में ही पूरे किये जाने के लिए सामने पड़े हैं। आशा की जानी चाहिए कि जो करना है उसका बड़ा अंश अगले ही दिनों निपट जायगा, जो शेष रह जायगा उसकी ऐसी क्रमबद्ध दिशा धारा बन जायगी जिसे हमारे उत्तराधिकारी भी करते रह सकेंगे।

शांति−कुंज की शिविर शृंखला के सम्बन्ध में कुछ संकेत पिछले अंग में दिये गये हैं। भविष्य में चलने वाले दस-दस दिवसीय सत्र साधना प्रधान होंगे। उनमें प्रकाश प्रशिक्षण भी रहेगा, पर वह स्वल्प एवं सूत्र रूप में ही रहेगा। विशेष व्यवस्था प्रेरणात्मक-साधना की रहेगी। शिक्षार्थियों का अधिक समय साधना में और कम शिक्षण सत्संग में लगेगा। अभी तो शांति−कुंज में सामूहिक निवास एवं सामूहिक साधना की ही व्यवस्था है, पर निकट भविष्य में जिस ‘ब्रह्म वर्चस् आरण्य’ के निर्माण की बात सामने है उसमें हर साधक को एक कुटिया में-एकाकी रहने और एकांत साधना करने की व्यवस्था उसी प्रकार बनाई जायगी जिस प्रकार योगियों को एकान्त गुफा में निवास करने और अन्तर्मुखी रहने की रीति-नीति अपनानी पड़ती है। एक-एक वर्ष के लिए हमें भी हिमालय में जिस विशिष्ट साधना के लिए जाना पड़ा है उसमें भी एकान्त साधना ही अपनानी पड़ी है। वही पद्धति भविष्य में आपने साथ सम्पर्क सूत्र में बँधे हुए साधकों को अपनानी पड़ेगी। जब तक वह प्रबन्ध नहीं बन पड़ता तब तक वर्तमान आश्रम में ही कुछ उलट फेर करके उस तरह का प्रबन्ध किया जायगा कि सूत्रों की रूप रेखा में साधना तत्व का अधिकाधिक समावेश हो सके।

व्यस्त व्यक्तियों के लिए यही उपयुक्त है कि वे दस दिन तक हमारे समीप गंगा तट और हिमालय की गोद में रहकर तपश्चर्या करें। एक साल के लिए अपनी भावी साधना पद्धति निर्धारित करें और फिर पिछले का लेखा-जोखा देने तथा आगे की नई कक्षा के अनुरूप पाठ पढ़ने तथा कार्य पद्धति बनाकर जाने की व्यवस्था बना लिया करें। जिनके पास अधिक समय हो, गृह कार्यों से निवृत्त हो चुके हैं वे अधिक समय यहाँ रह सकेंगे और साधना क्रम को अनवरत रूप से आगे बढ़ा सकेंगे। साधना के चार चरण सर्वविदित हैं स्वाध्याय, संयम और सेवा के लिए साथ मिली रहने वाली साधना ही सार्थक होती है। यही हमें भी आजीवन करते रहना पड़ा है और यही समन्वय उन सबको भी रखना पड़ेगा जो हमारे कन्धे से कन्धा और कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए उत्सुक हैं।

विशिष्ट साधना प्रक्रिया निर्धारण में हर साधक की मनः स्थिति, परिस्थिति, स्तर एवं उद्देश्य का ध्यान रखना पड़ता है। दैनिक संध्या वंदन, नवरात्रि अनुष्ठान, सामूहिक यज्ञ जैसे साधन तो सबके लिए एक जैसे हो सकते हैं, पर यदि व्यक्तिगत दुर्बलताओं के निराकरण एवं समस्याओं के समाधान की बात हो तो चिकित्सा स्तर पर ही उसका प्रबन्ध करना होता है। एक ही मर्ज के रोगियों के लिए चिकित्सक उनकी स्थिति की भिन्नता को देखते हुए उपचार का निर्धारण करते हैं। ज्वर से आक्रान्त सभी रोगियों को एक सी दवा नहीं दी जाती। बच्चे, गर्भिणी, तरुण, वृद्ध, रोगी की प्रकृति, रोग की जीर्णता, नवीनता आदि को ध्यान में रखकर भिन्न भिन्न प्रकार के उपचार, अनुपान एवं पथ्य बताये जाते हैं। साधना भी एक प्रकार से सूक्ष्म एवं कारण शरीरों का उपचार ही है, इसलिए उसमें भिन्नता रहनी भी स्वाभाविक है। यह प्रयोजन पत्र व्यवहार से नहीं, निकटवर्ती निदान परीक्षण एवं परामर्श से ही सम्भव होता है। अस्तु अगले दिनों साधना में रुचि रखने वालों के प्रत्यक्ष मार्ग दर्शन करने के लिए शिविर चलेंगे। इसके अतिरिक्त शोध संदर्भ में परीक्षण चलते रहेंगे और युग के अनुरूप साधना का निर्धारण करने के लिए इतना महत्वपूर्ण समुद्र मंथन चलता रहेगा जिसके द्वारा मनुष्य जाति को कुछ उपयोगी रत्न राशि उपलब्ध होने की अपेक्षा की जा सके। उपरोक्त गतिविधियों में जिनकी रुचि है-जो इन क्रियाकलापों का महत्व समझते हैं इस सम्बन्ध में अधिक परिचित हो सकें और इन प्रयासों को सफल बनाने में अपने-अपने ढंग का योगदान कर सकें, इसी उद्देश्य से यह पंक्तियाँ लिखी गई हैं।

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