प्राचीन ऋषि-मुनि आरण्यक जीवन अपनाकर कन्द, मूल, फल खाकर भी सन्तुष्ट और सुखी जीवन बिताते थे और धरती पर स्वर्गीय अनुभूति में मग्न रहते थे। एक ओर आज का मानव है जो पर्याप्त सुख-सुविधा, समृद्धि, ऐश्वर्य, वैज्ञानिक साधनों से युक्त जीवन बिताकर भी अधिक क्लेश, अशान्ति, दुख, उद्विग्नता से परेशान है। यह सब मनुष्य के विचार चिंतन का ही परिणाम है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक स्वयट अपने प्रत्येक जन्म-दिन में काले और भद्दे कपड़े पहनकर शोक मनाया करते थे। वह कहते थे-‘‘अच्छा होता यह जीवन मुझे न मिलता, मैं दुनिया में न आता” इसके ठीक विपरीत अन्धे कवि मिल्टन कहा करते थे। “भगवान का शुक्रिया है जिसने मुझे जीने का अमूल्य वरदान दिया।” नेपोलियन बोनापार्ट ने अपने अन्तिम दिनों में कहा था-‘‘अफसोस है मैंने जीवन का एक भी सप्ताह सुख-शान्तिपूर्वक नहीं बिताया।” जब कि उसे समृद्धि, ऐश्वर्य, सम्पत्ति, यश आदि की कोई कमी नहीं रही थी। सिकन्दर महान भी अपने अन्तिम जीवन में पश्चाताप करता हुआ ही मरा। जीवन में सुख शान्ति, प्रसन्नता अथवा दुःख क्लेश, अशान्ति, पश्चाताप आदि का आधार मनुष्य के अपने विचार हैं, अन्य कोई नहीं।
विचारों में अपार शक्ति है। जो सदैव कर्म की प्रेरणा देती है। वह अच्छे कर्मों में लग जाय तो अच्छे और बुरे मार्ग की ओर प्रवृत्त हो जाय तो बुरे परिणाम प्राप्त होते हैं। कोई व्यक्ति भले ही किसी गुफा में जाकर विचार करे और विचार करते-करते ही वह मर जाय तो वे विचार कुछ संयम उपरान्त गुफा की दीवारों का विच्छेद कर बाहर निकल पड़ेंगे और सर्वत्र फैल जायेंगे। वे विचार तब सबको प्रभावित करेंगे।”
-स्वामी विवेकानन्द
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