दिव्य विभूतियाँ श्रद्धालु को ही प्राप्त होती हैं।

March 1973

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आत्मिक क्षेत्र में सबसे बड़ी शक्ति ‘श्रद्धा’ है। श्रद्धा, अन्धविश्वास, मूढ़ मान्यता या कल्पना लोक की उड़ान या भावुकता नहीं, वरन् एक प्रबल तत्त्व है। भौतिक जगत में विद्युत शक्ति की महत्ता एवं उपयोगिता से अगणित प्रकार के कार्य सम्पन्न होते देखे जाते हैं। यदि बिजली न हो तो वैज्ञानिक उपलब्धियों में से तीन चौथाई निरर्थक हो जायेगी ठीक इसी प्रकार आत्मिक जगत में श्रद्धा की बिजली की महत्ता है। मनोयोग और भावनाओं के सम्मिश्रण से जो सुदृढ़ निश्चय एवं विश्वास विनिर्मित होता है। उसे भौतिक बिजली से कम, नहीं वरन् अधिक ही शक्ति-शाली समझना चाहिए। आत्म निर्माण का विशाल काय भवन उच्च आदर्शों के प्रति अटूट निष्ठा की चट्टान पर ही खड़ा किया जाता है। जिसे उत्कृष्ट-दिव्य जीवन की गरिमा पर परिपूर्ण श्रद्धा न होगी वह छुट-पुट प्रयत्न करते रहने पर भी आत्मिक प्रगति के मार्ग पर दूर तक-देर तक चल न सकेगा। आये दिन तनिक तनिक सी बात पर उसके पैर लड़खड़ाते रहेंगे किन्तु जिसने यज्ञीय जीवन जीने की महत्ता अन्तरंग के गहन स्तर से स्वीकार कर ली उसे अभाव और कठिनाइयों की तनिक सी असु-विधा आत्मसन्तोष की महान् उपलब्धि के सामने कुछ भी कठिन दिखाई न पड़ेगी।

श्रद्धा को सदुद्देश्य के लिए नियोजित कर देने का नाम ही आत्म शक्ति है। आत्मबल की प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया उन सिद्धियों के रूप में तत्काल देखी जा सकती है जो न केवल अपने को ही महान् बनाती है वरन् सम्पर्क में आने वालों को भी इतना लाभ पहुँचाती है जितना आर्थिक और शारीरिक प्रचुर सहयोग देने पर भी सम्भव नहीं हो सकता।

उपासना, साधना, तपस्या, देव अनुग्रह, वरदान, स्वर्ग मुक्ति आदि आत्मिक उत्पादनों के पीछे जो तथ्य काम करता है उस श्रद्धा का परिपाक ही समझा जाना चाहिए। यदि श्रद्धा न हो तो यह समस्त क्रिया-कलाप मात्र कर्म-काण्ड बनकर ही रह जायेंगे और उनका परिणाम नगण्य जितना ही दिखाई देगा।

जिन्हें मन की सत्ता और महत्ता का ज्ञान है उन्हें यह भी विदित है चेतना जगत में जिस प्राण शक्ति की अजस्र महिमा गाई जाती है वह अन्तरिक्ष में संव्याप्त विद्युत, चुम्बक, ईथर, विकिरण आदि सामान्य भौतिक संव्याप्ति की संकल्प शक्ति के आधार पर विनिर्मित एक अद्भुत ऊर्जा ही है। प्राण और कुछ नहीं भौतिक प्रकृति और चेतनात्मक संकल्प शक्ति का समन्वय ही है। प्राण धारियों को जीवित रखने उनकी मानसिक हलचलों को प्रखर बनाये रहने का कार्य ‘प्राण शक्ति’ द्वारा ही सम्पन्न होता है। कहना न होगा। बौद्धिक तीक्ष्णता से मस्तिष्कीय लाभ मिल सकते हैं। किन्तु प्रतिभा, व्यक्तित्व, आत्म-बल जीवन जैसी विशेषताएँ श्रद्धासिक्त प्राप्त शक्ति ही उत्पन्न करती है। महामानव, देवदूत, ऋषिकल्प एवं नर नारायण के रूप में सामान्य व्यक्ति को परिणत कर डालने की क्षमता केवल श्रद्धासिक्त प्राण शक्ति में ही निहित रहती है।

श्रद्धा का अर्थ है- आत्मानुगमन। शरीर में इन्द्रिय सुखोपभोग की वासना, लिप्सा भरी रहती है। मन में तृष्णा और अहंता की लालसायें-कामनाएँ उफनती रहती है। इन्हीं की माँग पूरी करने के लिए प्रायः हमारे सारे क्रिया-कलाप होते रहते हैं। जीवन क्रम इसी परिधि में घूमता और खपता है। औसत आदमी की गाड़ी इसी ढर्रे पर लुढ़कती है। ऐसे कम ही लोग है जो अन्तःकरण से भाव संस्थान की स्थिति और शक्ति से परिचित हैं। हमारे अन्तरंग में परमात्मा की सत्ता प्रतिष्ठित है जो निरन्तर उन उच्च आदर्शों को अपनाने के लिए अनुरोध करती रहती है जिनके लिए बहुमूल्य मानव जीवन उपलब्ध हुआ है। आत्मा की पुकार-आत्मा की प्रेरणा, आत्म की दिशा का यदि अनुगमन किया जाय तो उस आनन्द उल्लास में अन्तः भूमिका इतनी अभिरुचि एवं तत्परता के साथ संलग्न हो जाती है कि वासना और तृष्णा उपहासास्पद बाल क्रीड़ा मात्र प्रतीत होने लगती है। तब मन के चंचल-चित के उद्विग्न होने का कोई कारण शेष नहीं रह जाता।

आत्मबोध, आत्मानुगमन, आत्मोत्कर्ष की सम्मिलित मनः स्थिति का नाम ही श्रद्धा है। यों किसी मन्त्र, आदर्श, व्यक्ति, धर्म आदि के प्रति निष्ठा को भी श्रद्धा कहते हैं पर उसका उच्च स्तर आत्मानुगमन से ही जुड़ा रहता है। जो इस स्तर की प्रेरणा उत्पन्न कर सके भावना उमंग सके वही सच्ची श्रद्धा है। कहना न होगा कि आत्म शक्ति की सुसम्पन्नता केवल श्रद्धालु लोगों को ही उपलब्ध हो सकती है।

पशु-पक्षियों में कितनी ही विशेषताएँ ऐसी पाई जाती है। जो मनुष्यों में नहीं होती। इन विशेषताओं का कारण यह है कि वे अपने अचेतन का पूर्णतया अनुगमन करते हैं। प्रकृति की प्रेरणाओं का उल्लंघन नहीं करते। तर्क और विचार को वे मर्यादित रखते हैं। अवांछनीय चिन्तन से उत्पन्न बौद्धिक विकृतियों के वे शिकार नहीं होते। जीवन की नीति निर्धारित करने में वे अन्तरात्मा का निर्देश स्वीकार करते हैं। मनुष्य की अपनी विशेषताएँ है और मस्तिष्कीय क्षमताएँ असाधारण रूप से मिली है पर दुर्भाग्य यही है कि वह उसे सही दिशा में प्रयुक्त न करके उद्धत चिन्तन में उलझता है। फलस्वरूप बौद्धिक प्रखरता के लाभ से वंचित रहकर उलटा शोक सन्ताप में बँधा जकड़ा रहता है।

वैराग्य का अर्थ लोगों ने घर-वार छोड़कर माँगना-सफेद कपड़े छोड़कर लाल पीले पहन लेना मान लिया है, पर वस्तुतः वह एक मनः स्थिति है जिसमें कर्तव्य कर्म पूरे उत्साह से करते हुए भी मन असंयम, राग, द्वेष रहित बना रहता है। अनासक्त कर्मयोग की गीता में सुविस्तृत चर्चा है। स्थिति प्रज्ञ और निर्विकल्प स्थिति का वर्णन है। इसी को वैराग्य कह सकते हैं। खिलाड़ी की भावना से जीवन खेल खेलना और नाटक में अपने जिम्मे का अभिनय पूरे मनोयोग से सम्पन्न करना यही कर्मयोग है’ हानि लाभ और सफलता असफलता को बहुत महत्त्व न देकर अपनी उत्कृष्ट शैली पर गर्व और सन्तोष अनुभव करना, यही है अनासक्त मनः स्थिति। शरीर को आहार-विहार और मन को चिन्तन के लिए उत्कृष्ट सामग्री प्रदान करना यही है सन्तुलित जीवन क्रम की रीति-नीति इसे जहाँ अपनाया जाएगा वहीं आन्तरिक स्थिरता की वह पृष्ठभूमि बन जाएगी जिसमें ध्यान योग, लययोग जैसी ब्रह्म सम्बन्ध की साधनायें सफल हो सकें।

बाहरी भाग दौड़ में जो श्रम पड़ता है उससे अवयवों को अधिक गतिशील होने का अवसर मिलता है। व्यायाम करने वाले तथा श्रमिक लोग भारी श्रम करने पर भी स्वस्थ बने रहते हैं इसका कारण यह है कि वह श्रम परक दबाव बाहरी रहता है, विश्राम मिलते ही उस दबाव की पूर्ति हो जाती है। पर यदि अवयवों में आन्तरिक दबाव रहे तो उसका बहुत दबाव पड़ेगा पेट, शिर, दाँत आदि किसी अवयव में यदि दर्द हो रहा हो तो उस भीतरी उत्तेजना से शरीर के सारे ढाँचे पर बुरा असर पड़ेगा और बड़ी मात्रा में शक्ति क्षीण होगी। ठीक इस प्रकार इन्द्रिय भोगों की ललक से शारीरिक तनाव अधिक बढ़ता है, काम सेवन की क्रिया में जितनी शक्ति क्षीण होती है उससे कहीं अधिक काम चिन्तन में नष्ट हो जाती है। इसलिए मानसिक व्यभिचार शरीर भोग की अपेक्षा कहीं अधिक स्वास्थ्य विघातक सिद्ध होता है। यही बात अन्य इन्द्रिय भोगों की ललक लिप्सा के सम्बन्ध में है। संयम की महत्ता जहाँ साधारण स्वास्थ्य नियमों के अनुरूप है वहाँ उसका एक लाभ यह भी है कि वासनात्मक उत्तेजना से होने वाली क्षति से बचा जा सकता है और उस बचाव से स्वास्थ्य संवर्धन में भारी सहायता मिल सकती है। वासना शान्त रहे तो शरीर की अन्तरंग. स्थिति समुचित विश्राम लाभ करती रहेगी और जीवनी शक्ति को अनावश्यक क्षति न पहुँचेगी। ध्यानयोग के लिए तो ऐसी शरीरगत अन्तः शक्ति की नितान्त आवश्यकता पड़ती है।

भौतिक जीवन की अनेक समस्याओं को हल करने के लिए तर्क, आशंका, अविश्वास, सन्देह, काट-छाँट प्रमाण परिचय, तथ्य अतथ्य आदि अनेक कारणों की विवेचना करनी पड़ती है और तब भी मन शंका शंकित रहता है तथा पूर्व निर्णय के सही सुनिश्चित होने में सन्देह बना रहता है। यह मनःस्थिति लाभ हानि एवं उचित अनुचित के बीच के उपयोगी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए आवश्यक है पर यह स्थिति आध्यात्मिक क्षेत्र में भी बनी रहे तो अनिश्चित विश्वास के कारण वह शक्ति उत्पन्न न हो सकेगी जिसके आधार पर कि आत्मबल बढ़ाने-उच्च आदर्श अपनाने और श्रद्धयान्वितः पृष्ठभूमि बनाई जाती है। कहना न होगा कि यदि श्रद्धा विश्वास का ईंट चूना न जुटाया जा सका तो आत्मिक प्रगति का भवन खड़ा ही न हो सकेगा।

आत्मिक प्रगति के लिए हमें श्रद्धा का जागरण करना चाहिए। आत्मानुगामी बनना चाहिए। आत्म निर्देश रूप सद्गुरु की शरण में जाना चाहिए। जो इतना साहस कर सकेगा-अपनी आकांक्षाओं को उत्कृष्टता की दिशा में नियोजित कर सकेगा, उसे वासना और तृष्णा की तूफानी आँधियों का सामना न करना पड़ेगा और शक्ति का निरन्तर होने वाला अपव्यय सहज ही बचना आरम्भ हो जाएगा आत्मिक पूँजी इसी प्रकार जमा होती है। भौतिक विक्षोभों से विरत रह सकना कठिन लगता भर है, वस्तुतः वैसा ही नहीं। यदि अपने अन्तरंग में प्रवेश करते रहने वाले विचारों का वर्गीकरण मात्र करते रहे उनके विश्लेषण विवेचन के लिए सजग तत्परता प्रदर्शित करें तो सहज ही वे अवांछनीय विचार पलायन करने लगेंगे जिनके झमेले में अशान्त अन्तःकरण कुछ महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकने से वंचित ही बना रहता है।

विचारों के प्रवाह में अपनी अन्तःचेतना को न बहने दे वरन् सूक्ष्म निरीक्षण करने की क्षमता विकसित करें। दुष्टा की तरह अपने को मस्तिष्क से कहीं ऊँचे स्थान पर अवस्थित अनुभव करें और जिस तरह गड़रिया अपने बाड़े में घुसने वाली भेड़ों की गणना करता तथा स्थिति देखता है उसी तरह अलग बैठे हुए यह निरीक्षण करें कि मस्तिष्क में किस स्तर के विचार प्रवेश करते और जड़ जमाते हैं। उनका वर्गीकरण करने का जब थोड़ा अभ्यास हो जाएगा तब प्रतीत होगा कि उनमें से कितने उपयोगी और अनुपयोगी थे।

मन को अपना काम करने देना चाहिए। जो भी विचार आयें उठें उन्हें आने उठने देना चाहिए। प्रयास में उन्हीं रोकने की जरूरत नहीं है, यह कदम बहुत आगे चलकर उठाया जाना चाहिए। मानसिक परिष्कार का प्रथम चरण यह है कि मस्तिष्क की स्थिति रुचि, रुझान का वैसा ही निरीक्षण किया जाय जैसा कि डाक्टर मल, मूत्र रक्त श्लेष्मा आदि की जाँच पड़ताल करके शरीर की वस्तुस्थिति समझने का प्रयत्न करता है। आत्मविश्लेषण इसी स्तर का प्रयास है। इसे ठीक तरह पूरा कर लिया जाय तो मनोनिग्रह की तीन चौथाई समस्या सहज ही हल हो जाती है।

चोर का साहस वहीं होता है जहाँ उसे यह भय नहीं रहता कि कोई देख रहा होगा। सेंध लगाने से पूर्व चोर यह पता लगाते हैं कि कहीं किसी की दृष्टि उनके कुकृत्य पर है तो नहीं। यदि पता चल जाय कि लोग जाग रहें है या देख-भाल कर रहें है तो फिर चोरी करने का साहस ही न पड़ेगा और वह उलटे पैरों लौट जाएगा अवांछनीय विचार उसी मस्तिष्क में प्रवेश करते तथा जड़ जमाते हैं जहाँ आत्म निरीक्षण एवं आत्म विश्लेषण की दृष्टि से बेखबरी छाई रहती है। जहाँ जागरूकता होगी-देख-भाल ढूँढ़ परख चल रही होगी वहाँ कुविचार अपने आप ही लज्जा, भय और ग्लानि अनुभव करते हुए अपनी हरकतें बन्द कर देंगे।

जब हम सोचते हैं कि मस्तिष्क हमारा घर है। इसमें किसे प्रवेश करने देना है किसे नहीं यह निर्णय करना हमारा काम है तब मन की स्थिति ही बदल जाती है। अनाड़ी घोड़ा किसी भी दिशा में भागता है और कुछ भी हरकत करता है पर जब मालिक उसकी पीठ पर चढ़ लेता है और लगाम तथा चाबुक की सहायता से निर्देश करता है तब ही उसे अपना अनाड़ीपन छोड़ना पड़ता है , मस्तिष्क रूपी घर में तभी तक चमगादड़ों और अवावीलों के घोंसले रहते हैं जब तक गृह स्वामी उन्हें सहन करता है, पर जब यह निश्चय कर लिया जाता है कि घर को साफ सुथरा रखा जाएगा तो मकड़ी के जाले, बर्र के छत्ते, चमगादड़ों के अड्डे और अवावीलों के घोंसले बल पूर्वक कब्जा नहीं जमाये रह सकते एक भी झटके का सामना वे नहीं कर सकते और जगह खाली करने के अतिरिक्त और कुछ कर ही नहीं सकते कुविचारों की स्थिति भी ठीक ऐसी ही है। यदि अन्तः चेतना यह निश्चय कर ले कि अपने घर में-मस्तिष्क में-उद्धत विचारों को स्थान नहीं दिया जाना है तो निश्चित रूप से वे अपनी जगह खाली कर देंगे। जहाँ ढुलमुल संकल्प होते हैं वहीं उनकी घुस पैठ चलती है, सुनिश्चित निर्देश होने पर राहगीरों को दूसरे का वह पर खाली करना ही पड़ता है जिसे खाली देखकर उन्होंने कब्जा जमा लिया था।

आत्म विज्ञानी सदा से श्रद्धा की महत्ता प्रचारित करते रहें है। श्रद्धा को साधना का प्राण बताते रहें है। देव सत्ता के अनुग्रह में-प्रत्यक्षीकरण में-श्रद्धा तत्त्व को ही आधार कहा जाता रहा है। यह प्रतिपादन अक्षरशः सत्य है। कष्ट साध्य कर्मकाण्डों में उलझे रहने पर भी अश्रद्धालु व्यक्ति प्रायः खाली हाथ ही रहते हैं। दैवी शक्ति तो अन्तः करण में अवतरित होती है और वहीं से सिद्धि सफलताओं के रूप में बहिरंग जीवन में प्रस्फुटित होती है। यदि अन्तः क्षेत्र अशान्त, उद्विग्न, विक्षुब्ध होगा तो फिर वह अवतरण सम्भव ही कैसे हो सकेगा। स्वच्छ हवाई पट्टी पर ही तो वायुयान उतरते हैं, खाई खड्डों में उनका उतरना कैसे हो? कामना ग्रस्त-मनोविकारों से अस्त-व्यस्त मनोभूमि ऐसी हो ही नहीं सकती, जिस पर उच्चस्तरीय विभूतियाँ बरसे और दिव्य सम्पदाओं से सम्पन्न करें । इसके लिए उपयुक्त मानसिक स्तर तो उन्हीं का होगा जिन्होंने भौतिक आकर्षण उद्वेगों से, दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों से अपने चिन्तन को बचा सकने में सफलता प्राप्त कर ली होगी। श्रद्धा इसी मनः स्थिति का नाम हैं। उसी को समस्त आत्मिक सम्पदाओं की जननी निर्झरिणी कहा गया है। श्रद्धालु ही आत्मकर्ता के लक्ष्य को पूरा करते देखे जाते हैं।


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