विश्व ब्रह्माण्ड में ओत-प्रोत ब्रह्मसत्ता

March 1973

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विश्व अस्तित्व की तीन इकाइयाँ मानी गई हैं-(1) ईश्वर , (2) जीव , (3) प्रकृति

ईश्वर तीन गुणा वाला है। सत् , चित , आनन्द तीन उसके गुण हैं। सत् अर्थात् अस्तित्व युक्त। जो है, था, जो रहेगा। उस अविनाशी तत्त्व को सत् कहते हैं। चित् अर्थात् चेतना। जिसमें सोचने , विचारने, निर्णय करने एवं भावाभिव्यक्ति युक्त होने की विशेषताएँ है और उसे चित् कहेंगे आनन्द-अर्थात् सुख, सन्तोष और उल्लास का समन्वय। ईश्वर अस्तित्ववान है, चैतन्य है तथा आनन्दानुभूति में भरा पूरा है। इसलिये उसे सच्चिदानन्द कहते हैं।

जीवन के दो गुण हैं-सत् और चित्। वह अस्तित्ववान है। ईश्वर से उत्पन्न अवश्य है पर लहरों की तरह उसकी स्वतन्त्र सत्ता भी है और वह ऐसी है कि सहज ही नष्ट नहीं होती। मुक्ति में भी उसका अस्तित्व बना रहता है और निर्विकल्प, विकल्प स्थिति में सारूप्य, सायुज्य, सालोक्य, सामीप्य का आनन्द अनुभव करता है। प्रलय में सब कुछ सिमट कर एक में अवश्य इकट्ठा हो जाता है फिर भी वह आटे की तरह एक दीखते हुए भी जीव कणों की स्वतन्त्र सत्ता बनी रहती है। मूर्छा, स्वप्न, सुषुप्ति, तुर्रा एवं समाधि अवस्था में भी मूलसत्ता यथावत् रहती है। मरणोत्तर जीवन में रहता ही है। इस प्रकार जीव की सत्-अस्तित्ववान स्थिति अविच्छिन्न रूप से बनी रहती है।

जीव का दूसरा गुण है-चित् चेतना उसमें रहती ही है। यह चेतना ही उसका ‘स्व’ है। अहंता- इगो- सैल्फ- आत्मानुभूति इसी को कहते हैं। तत्वज्ञानियों से लेकर अज्ञानियों तक में यह स्थिति सदैव पाई जाएगी ईश्वर में आनन्द परिपूर्ण है। जीव उसकी खोज में रहता है, उसे प्राप्त करने के लिए विविध प्रयास करता है। और न्यूनाधिक मात्रा में- भले बुरे रूप में उसी की प्राप्ति के लिये लालायित और यत्नशील रहता है।

प्रकृति में एक ही गुण है-सत् उसका अस्तित्व है। अणु परमाणुओं के रूप में-दृश्य और अदृश्य प्रक्रिया के साथ जगत की सत्ता के रूप में प्रकृति को देखा जा सकता है। ईश्वर और जीव दोनों की क्रिया-कलाप इस प्रकृति सघन होकर-पञ्च तत्त्वों की अपेक्षा एक महातत्व में विलीन हो जाती है। इस प्रकार जब, कभी इस विश्व ब्रह्माण्ड की लय प्रलय होगी तब ईश्वर के सत् तत्त्व में प्रकृति लीन हो जाएगी जीव चित् में घुल जाएगा और उसका अपना अतिरिक्त गुण आनन्द-यथावत्-बना रहेगा।

महासृष्टि के आरम्भ का क्रम भी यही है। तत्त्व-दर्शियों के अनुसार ब्रह्म में स्फुरणा होती है एक से बहुत होने की । वह अपने को अंश रूप में विभक्त करके एक से अनेक बनाता है और जीव सत्ता का अस्तित्व विनिर्मित होता है। स्फुरणा द्वारा जीवन की उत्पत्ति के बाद उसकी दूसरी उमंग आगे आती है। वह है-इच्छा आनन्द को निराकारिता को साकारिता में परिणत करने के लिये पदार्थ की आवश्यकता होती है। इच्छा का प्रतिफल ही आवश्यकता, आविष्कार और आविर्भाव के रूप में सामने आता है। यह प्रकृति है। स्फुरणा से जीव और इच्छा से प्रकृति का निर्माण करके बाह्य साक्षी और दुष्टा के रूप में सर्वत्र विद्यमान् रहता है और इस जगत की सारी प्रक्रिया की स्वसंचालित पद्धति को बनाकर अपने क्रिया कर्तव्य का आनन्द लेता है।

जीव और प्रकृति में ईश्वर समाया भी रहता है ताकि उनके मूलधर्म-गुण कर्म, स्वभाव, यथावत् अस्तित्व में बना रहे। क्रम और नियन्त्रण की-जन्म विकास और मरण की-जो क्रिया-प्रक्रिया चलती रहती है उसे सृष्टि में ईश्वर का समावेश कह सकते हैं। इतना होते हुए भी यह सब कुछ स्वचालित स्तर का बना हुआ है। हर काम में ईश्वर को हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता।


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