मनुष्य का प्रचण्ड चुम्बकत्व और तेजोवलय

March 1973

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कभी-कभी जलयानों पर समुद्र और जलयान के सम्मिलित प्रभाव से एक शीतल अग्नि उत्पन्न होती है और वह जहाज के मस्तूल, रस्से तथा प्रत्येक भाग पर चमकती दिखाई देती है। यों यह एक प्रकार से विद्युत ही है पर हानि रहित है। इससे किसी वस्तु या व्यक्ति को हानि नहीं पहुँचती। पुराने लोग इसे ‘सन्त एस्यो की अग्नि’ कहते थे और समझते थे कि यह जहाज पर कोई सृजनात्मक वरदान बरस रहा है। अब उसे ‘जलयान का प्रेत’ कहा जाता है। वैज्ञानिक विश्लेषण यह है कि समुद्रीय रासायनिक पदार्थ ,लहरों की तरंगें तथा जहाज की हल-चलें सब मिलाकर इस ज्योति का सृजन करते हैं और उस सूक्ष्म उत्पादन से सब मिलाकर जलयान की मजबूती को बल ही मिलता है।

कोहरे भरी रातों में आकाशस्थ तारागणों के इर्द-गिर्द एक धुँधली नीली झलक लिये हुए सफेद रोशनी का तेज मण्डल छाया रहता है। कभी-कभी वर्षा ऋतु में चन्द्रमा के चारों ओर भी प्रकाश का एक गोल घेरा दिखाई पड़ता है। इंजीनियर की भाषा में इसे ‘कोरोना’ कहते हैं। इसका कारण उन प्रकाश पुँज तारकों के उच्च तनाव का विकिरण अवरोध है। जलबिन्दु जब उनके प्रकाश ऊर्जा के क्रमबद्ध विस्तार में अवरोध उत्पन्न करते हैं तो इस प्रकार का चमकदार घेरा बन जाता है।

ठीक इसी प्रकार मनुष्य के चारों ओर एक तेजोवलय छाया रहती है। इसमें विद्युत कण, चुम्बकत्व, रेडियो विकिरण, चेतनायुक्त ऊर्जा भरी रहती है। इसे यन्त्रों से भी जाना व नापा जा सकता है और समीपवर्ती लोग इसे अपने शरीर और मन पर पड़ने वाले अदृश्य प्रभाव के आधार पर अनुभव कर सकते हैं। कई व्यक्तियों की समीपता अनायास ही बड़ी, सुखद, प्रेरणाप्रद और हितकर होती है, कइयों का सान्निध्य अरुचिकर और कष्टकर प्रतीत होता है इसका वैज्ञानिक कारण व्यक्तियों के शरीर से निकलने वाली इस ऊर्जा का पारस्परिक आकर्षण विकर्षण ही होता है। समान प्रकृति के लोगों की ऊर्जा घुलती मिलती और सहयोग प्रोत्साहन प्रदान करती है पर यदि समीपवर्ती व्यक्तियों की प्रकृति में प्रतिकूलता हो तो वह ऊर्जा टकराकर वापिस लौटेगी और घृणा, अरुचि, अप्रसन्नता, खीज़ सी प्रतिक्रिया उत्पन्न करेंगी।

श्मशान में कई बार धुँधले प्रकाश की गोलियाँ लहरें अथवा धुन्ध उड़ती देखी जाती है। शरीर के जल जाने पर मृत व्यक्ति का तेजोवलय किसी रूप में विद्यमान् बना रह सकता है कब्र में गाढ़े गये व्यक्ति की लाश सड़ जाने पर भी उसका तेजोवलय उस क्षेत्र में उड़ता रह सकता है इसे कभी-कभी आँखों से देखा जाता है और कभी उधर से निकलने वालों को रोमांच, कँपकँपी, धड़-करने के रूप में इसका असुखकर अनुभव होता है ऐसी अनुभूतियाँ भय और आशंका का भी कारण हो सकती है। पर कितनी ही बार पूर्ण निर्भय और मरणोत्तर सत्ता को अस्वीकार करने वाले व्यक्ति भी उस तरह की अनुभूति करते हैं और कहते हैं उन्हें उस क्षेत्र में कुछ अदृश्य हल-चल का आभास हुआ।

मरघट में तांत्रिक साधनाएँ करने, कापालिक के मृतकों की खोपड़ी को साफ करने, उससे जल पीने जैसी अघोर क्रियाओं के पीछे मृतकों की अवशिष्ट वलय ऊर्जा का उपयोग करने का सिद्धान्त ही कार्यान्वित होता है। उपयोग करते हैं वरन् किन्हीं अन्यों के शरीरों में ऊर्जा का दोहन भी करते हैं। पशुबलि जैसे घृणित कर्म इसी स्तर का लाभ उठाने के लिए किये जाते हैं।

मनुष्य की अन्तरंग प्राणशक्ति का वाह्य परिचय उसके तेजोवलय के आकार विस्तार एवं सघनता एवं चुम्बकीय प्रखरता के आधार पर प्राप्त किया जा सकता है। संवेदनशील व्यक्ति दूसरों के इस बाहर फैले हुए अन्तरंग व्यक्तित्व को आसानी से परख सकते हैं और उसके स्तर का पता लगा सकते हैं। कई बार यह वलय इतना तेजस्वी होता है कि समीपवर्ती क्षेत्र को अपने प्रभाव से भर देता है, इस सीमा में प्रवेश करने वाले वाले व्यक्ति इसी प्रवाह में वहन लगते हैं।

तपस्वियों के आश्रमों में हिंसक और अहिंसक प्राणी बैर भाव भूलकर प्रेम भाव से रहते देखे गये है। नेताओं में इस प्रकार की विशेषता प्रायः पाई जाती है। उनका आकर्षण लोगों को प्रभावित सहमत करता है। यदि यह प्रभाव उथला है तो सम्मोहित व्यक्ति थोड़े ही समय में उस प्रभाव से मुक्त होकर पूर्व स्थिति में आ जाते हैं। पर यदि उसमें सघनता हुई तो प्रभाव भी स्थायी बना रहता है। यह प्रतिभाशाली व्यक्तित्व हर क्षेत्र में पाये जाते हैं। और साथियों को प्रभावित करते हैं। डाकुओं तक को साथी मिल जाते हैं और सामने आने पर प्रतिरोध करने वालों की घिग्घी बँध जाती है। रूप और सौंदर्य में शरीर की गति सुकोमल ऊँची रहती है, रुचिर लगती है नर्तकियाँ वार बंधुओं से लेकर छोटे बालकों की सुकोमलता में ऐसा आकर्षण पाया जाता है जो सम्पर्क में आने वालों का मन बरबस अपनी ओर खींचे इस आकर्षण के पीछे कोई गहरा कारण नहीं है मात्र तेजोवलय की वह प्रभाव शाली शक्ति ही काम करती है जिसके आगे दूसरे अनायास ही झुकते खिंचते चले जाते हैं। इस मानवी चुम्बकत्व को वैज्ञानिकों की भाषा में क्लेयर वाएन्स कहते हैं।

तेजोवलय सम्पूर्ण शरीर के इर्द-गिर्द छाया रहता है। पैरों की ओर उसका घेरा कम होता है क्रमशः वह अधिक चौड़ा होता जाता है और मस्तिष्क तक पहुँचते-पहुँचते उसकी चौड़ाई प्रायः ड्योढ़ी हो जाती है। बेर का फल जैसे नीचे पतला नोकदार होता है और उसका सिरा मोटा होता है लगभग इसी प्रकार से आसपास यह प्रकाश पुंज फैला रहता है। इसकी चौड़ाई शरीर से बाहर 3 से 7 फुट तक की पाई जाती है।

खगोल वेत्ता जानते हैं कि आकाश में अनेकों तारे ऐसे है, जिनका प्रकाश पृथ्वी तक आने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। हो सकता है कोई तारा हजारों वर्ष पूर्व मर गया हो पर उसका प्रकाश अपनी चाल से चलता हुआ अब पृथ्वी पर आना आरम्भ हुआ हो और आगे हजारों वर्ष तक चमकता रहे। जब कि उसकी मृत्यु चिरकाल पूर्व ही हो चुकी है। प्रकाश की गति प्रति सेकेण्ड 1 लाख 86 हजार मील हैं। इस चाल से अधिक उसकी दौड़ नहीं पर मनुष्य मन इससे भी अधिक द्रुतगामी है। राकेटों को चन्द्रमा तक पहुँचने में कई दिन लग जाते हैं पर मन तो वहाँ एक क्षण में पहुँच सकता है। यह ध्यान रखने की बात है कि मन मात्र कल्पना ही नहीं है, वरन् इसके साथ चेतनात्मक ऊर्जा जुड़ी हुई हो तो वह प्रकाश की तरह ही एक सशक्त तथ्य बन जाती है और वहीं कार्य करती है जो अन्तरिक्ष व्यापी ताप, चुम्बकत्व जैसी शक्तियाँ काम करती है।

यदि प्रकाश की गति उल्लंघन करके अपनी चेतनात्मक ऊर्जा आगे निकल जाय और वहाँ जा पहुँचे जहाँ अभी हजार वर्ष पूर्व निसृत हुई प्रकाश तरंगें नहीं पहुँच पाई है तो निस्सन्देह इस समय की समस्त घटनाएँ इस प्रकार प्रत्यक्ष देखी जा सकती हैं मानो अभी-अभी ही वे घटित हो रही है। यदि हमारी शक्तिशाली अचेतन विद्युत संस्थान ध्यान चेतना को इतना सक्षम बनायें कि प्रकाश की गति पिछड़ जाय तो कोई कारण नहीं कि हम चिर अतीत की घटनाओं, व्यक्तियों को देख समझ न सकें। इतना ही नहीं जो महामानव हजारों लाखों वर्ष पूर्व दिवं-गत हो गये उनके अन्तरिक्ष में उड़ते हुए तेजोवलय के साथ सम्बन्ध बना सकते हैं और वही लाभ ले सकते हैं जो उनके पास बैठने या उनका प्रभाव ग्रहण करने से सम्भव हो सकता है। उपरोक्त सफलता प्राप्त करने वाला व्यक्ति श्री कृष्ण जी के मुख से निकली हुई गीता उसी तरह सुन सकता है। जिस तरह अर्जुन ने समीप बैठ कर सुनी थी। शुकदेव जी द्वारा परीक्षित को सुनाई गई भागवत् को ज्यों का त्यों सुना जा सकता है। वशिष्ठ जी द्वारा राम को सुनाई गई योग वशिष्ठ को अभी भी इसी रूप में श्रवण कर सकना कठिन न रहेगा राम चरित्र और कृष्ण चरित्र की सारी घटनाएँ यथा क्रम देखी जा सकेगी। त्रिकाल दर्शी ऋषि इस विद्या में पारंगत हो चुके थे और उनके हाथ में बहुत कुछ-सब कुछ जानने की शक्ति थी। इतना ही नहीं वे भावी घटना क्रम की सम्भावनाओं को मोड़ बदल भी सकते थे इसके प्रमाणों से अनेक शास्त्र पुराण भरे पड़े हैं। वे उपलब्धियाँ भविष्य में भी प्राप्त की जा सकती है।

वर्तमान में विभिन्न स्थानों में घटित हो रहे घटना क्रमों को दिव्यदर्शी व्यक्ति देख या जान सकता है। परस्पर संवादों और सन्देशों का विनिमय कर सकता है। इतना ही नहीं अपनी यदि उसके पास कोई प्रेरक एवं उपयोगी क्षमता होगी तो उसे किसी दूसरे के लिए प्रेरित करके उसे लाभान्वित भी कर सकता है। किन्तु लिए तप साधना द्वारा उपार्जित आत्मबल का सम्पादन नितान्त आवश्यक है। हम चाहें तो शरीर बुद्धि और धन जैसी सम्पदाओं की तरह आत्म शक्ति की विभूतियों भी सम्पादित कर सकते हैं और इसके आधार पर हमारा मानवी चुम्बकत्व-तेजोवलय-इतना प्रचण्ड हो कसता है कि व्यक्तियों तथा वस्तुओं को अभीष्ट मात्रा में प्रभावित किया जा सके और अपने आपको हर क्षेत्र में समर्थ सफल सिद्ध किया जा सके।


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