समय की सम्पदा प्रमाद के श्मशान में न जलायें

March 1973

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हमारा बहुमूल्य ‘वर्तमान’ क्रमशः भूत बनता चला जा रहा है और हम यह देख समझ नहीं पाते कि प्रमाद द्वारा कितनी मूल्यवान सम्पदा का अपहरण किया जा रहा है।

भूत के बारे में कहा जाता है कि वह बहुत डरावना होता है। कहते हैं कि मरने के बाद अशान्त व्यक्ति भूत बनता है। मरणोत्तर जीवन में क्या स्थिति होती है- कौन, क्यों और कैसे भूत बनता है और वह कैसा होता है यह सब कुछ अभी रहस्य के गर्भ में है। अन्वेषण के उपरान्त ही इस संदर्भ में कुछ सही निष्कर्ष निकलेंगे, समय की असामयिक और अशान्त मृत्यु के उपरान्त उसकी प्रति-क्रिया तथाकथित भूत से भी भयंकर होती है इस तथ्य को सहज ही अनुभव किया जा सकता है।

जीवन की सूक्ष्म सत्ता की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति समय के रूप में ही सामने आती है। समय का किस प्रकार-किस प्रयोजन के लिए उपयोग किया गया, इसी का लेखा-का महत्त्व और स्वरूप समझ सका और उसके सदुपयोग के लिए समग्र जागरूकता के साथ तत्पर हो गया समझना चाहिए उसे जिन्दगी मिल गई। अन्यथा इस ओर उपेक्षा बरतने वाले-अन्यमनस्क रहने वाले, क्रमिक आत्महत्या ही करते चले जाते हैं। बहुमूल्य मणि मुक्तकों को फटी थैली में भरकर चलने वाले, राह में उन्हें टपकाते जाते हैं और घर घर पहुँचते-पहुँचते उस निधि को गँवाकर खाली हाथ रह जाते हैं। इसी प्रकार समय के साथ उपेक्षा करने वाले अपने आपके साथ एक क्रूर मजाक करते हैं। अपने भविष्य के साथ यह एक मर्मभेदी व्यंग है कि जीवन के बहुमूल्य क्षणों को ऐसे ही खोते गँवाते चला जाय।

हम क्रमशः मर रहें है। जीवन की सम्पदा का एक-एक दाना एक-एक क्षण के साथ समाप्त होता चला जाता है। बूँद-बूँद पानी टपकते रहने से भरा-पूरा किन्तु फूटा घड़ा कुछ ही समय में खाली हो जाता है। जीवन की रत्न सम्पदा हर साँस के साथ घटती चली जाती है। क्रमशः हमारा हर कदम मरण की ओर ही उठता है। आयुवृद्धि के साथ-साथ मरण का दिन निकट से निकटतम आता चला जाता है। जो दैवी वरदान जैसा अमूल्य था- जिसके आधार पर कुछ भी खरीदा पाया जा सकता था वह किस प्रकार गलता, जलता, टूटता और मिटता चला जा रहा है इसे देखने की न इच्छा होती है न फुरसत। फलतः हमारा अनुपम अस्तित्व भूत बनता चला जाता है। असामयिक इस प्रकार मृत्यु की भयंकरता तथाकथित भूत-प्रेतों से कम नहीं। जब समय के सदुपयोग और दुरुपयोग के परिणामों का तुलनात्मक अन्तर किया जाता है, तब प्रतीत होता है कि तत्परता और उपेक्षा के बीच देखने वाला नगण्य सा अन्ततः कितने भारी भिन्न परिणामों के रूपों में सामने आता है।

समय ही जीवन है। समय ही उत्कर्ष है। समय ही महानता के उच्चतम शिखर तक चढ़ दौड़ने का सोपान है। महाकाल की उपासना का जो स्वरूप समझ सका है उसी को मृत्युंजय बनने का सौभाग्य मिला है और किसी के साथ भी मखौल किया जा सकता है पर महाकाल के साथ नहीं। सिंह के दाँत गिनने की धृष्टता किसी को नहीं करनी चाहिए। समय के दुरुपयोग की भूल अपने भाग्य और भविष्य को ठुकराने, लतियाने की तरह है। जो समय गँवाता है वह प्रकारान्तर से अपने उत्कर्ष और आनन्द का द्वार ही बन्द करता है। मरण की दिशा में हम द्रुत गति प्रमादियों के पल्ले बँधता है पर जो जीवन सम्पदा से लाभान्वित होने के लिए जागरूक है उसे साँसों के बहुमूल्य मणि मुक्तकों का ध्यान रहता है और वे एक घड़ी भी निरर्थक नहीं गँवाते योजनाबद्ध दिनचर्या बनाते हैं और उस पर आरुढ रहते हैं। वे जानते हैं समय की सम्पदा को प्रमाद के श्मशान में जलाने वालों को आत्म प्रताड़ना की आग में बेतरह जलना पड़ता है।


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