घुटन एक प्रकार की आत्महत्या है।

March 1973

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कुछ रोग आहार विहार को अनियमितता से भी होते हैं। विषाणुओं के आक्रमण से छूत के रोग हो सकते हैं। हैजा, प्लेग, चेचक, फ्लू, खुजली जैसी बीमारियाँ एक से दूसरे को लगती और हवा पानी के सहारे अपना क्षेत्र बढ़ाती है सीलन और मच्छर मलेरिया उत्पन्नं करने के कारण होते हैं। नशेबाजी से फेफड़े की बीमारियाँ उपजती है। यह शारीरिक एवं भौतिक कारण हुए, पर सब रोग इसी तरह नहीं होते। शारीरिक कोई व्यतिक्रम या भौतिक विपरीतता उत्पन्न न होने पर भी मानसिक कारणों से ऐसे रोग हो सकते हैं जिन को आहार विहार की मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता।

बात अचम्भे की लगती भर है पर है सीधी−सादी। हर कोई जानता है कि मस्तिष्क का पूरा नियन्त्रण सारे शरीर पर है, उसकी इच्छा से ही नाड़ी संस्थान काम करता है और ज्ञान तन्तुओं के माध्यम से उसी का वर्चस्व छोटे से लेकर बड़े अंगों पर छाया रहता है। ऐसे उद्गम केन्द्र में असन्तुलन पैदा होता हो तो वह स्थानीय नहीं हो सकता, उसका प्रभाव ज्ञान तन्तुओं के माध्यम से अन्य अंगों तक भी पहुँचेगा और वहाँ भी रुग्णता की संभावना उत्पन्न होगी।

मानसिक घुटन को वाणी द्वारा या क्रिया द्वारा फुट कर बाहर निकलने का अवसर मिलना चाहिए। अन्यथा वह दबाव अनैच्छिक संस्थान की ओर मुड़ जाता है और शरीर में जो स्वसंचालित क्रियाएं होती रहती है उनमें वह घुटन वाला विष जा घुलता है। इससे सम्बन्धित अंगों में सिकुड़न एवं अकड़न पैदा होती है। यदि यह घुटन पेट की ओर मुड़ जाय तो आमाशय में सूजन होती है फिर जख्म बन जाते हैं। अल्सर इसी प्रकार का रोग है जिसमें शारीरिक कारण कम और मानसिक अधिक रहते हैं।

यदि शोक-सन्ताप का कोई कारण हो तो जोर से रो पड़ने या फूट-फुटकर बिलखने की इच्छा पूरी कर लेनी चाहिए मानसिक आघात से उत्पन्न घुटन को बाहर निकाल देने का यही सरल और स्वाभाविक तरीका है। यदि लोक-लाज वश उस इच्छा को दबाकर अपने वीतराग या मनस्वी होने का ढंग किया जाएगा तो मानव स्वभाव की कमजोरियों पर तो विजय पाई न जाएगी और अनेक गड़बड़ियाँ पैदा करेगी। कोई विषैली चीज पेट में पहुँच जाय तो सीधा तरीका यही है कि उसे उल्टी या दस्त द्वारा बाहर निकल जाने दिया जाय यदि उसे निकलने का अवसर न मिला तो वह विष फिर अनेक भयंकर तरीकों से फूट कर निकलेगा और दस्त उल्टी जैसी कठिनाई की तुलना में अधिक कष्ट साध्य और समय साध्य होगा।

क्रोध में बक झक कर, जी की जलन शान्त कर लेना अच्छा है। पर यदि उस आवेग को मन में दबा लिया जाय तो वह घृणा या द्वेष के रूप में जड़ जमा कर बैठ जाएगा और शत्रुता का रूप धारण करके किसी अवसर पर विकराल प्रतिहिंसा का रूप धारण कर सकता है।

कामुक आकांक्षाओं को होली जैसे त्यौहार पर एक दो दिन उच्छृंखल नाच कूदकर-गा बजाकर निकाल देते हैं और जी हल्का कर लेते हैं। इसके विपरीत मन में काम विकार घुमड़ते रहें और बाहर से ब्रह्मचारी बनकर बैठा रहा जाय तो भीतर ही भीतर वह घुटन दूसरे रूप में फूटती है और कई प्रकार के शारीरिक , मानसिक रोग उत्पन्न करती है।

अच्छा यही है कि मन को ऐसा प्रशिक्षित किया जाय कि उसमें सौम्य सज्जनता ही स्वाभाविक हो जाय और विकार आकृतियों के लिए गुँजाइश ही न रहे। पर यदि क्रोध, शोक आदि आवेग उठ रहें हो तो उन्हें प्रकट होकर बाहर निकल जाने देना चाहिए।

कोई तो ऐसा सच्चा एवं विश्वस्त मित्र होना ही चाहिए जिसके सामने पेट के छिपे हुए हर रहस्य और भेद को प्रकट कर दिया जा सके। पिछले पापों को भी किसी ऐसे विश्वस्त से कह देना चाहिए जो उन्हें हर किसी से कह कर निन्दा का वातावरण तो न बनायें पर स्वयं सहानुभूति पूर्वक सुन लें। बदलें में घृणा भी न करे। छिपी बात को कह सकने योग्य उसे विश्वस्त समझा जाय इसके लिए मित्र की उदारता और आत्मीयता को सराहें ऐसे मित्रों का होना मनोविकारों की घुटन से पीछा छुड़ाने का अच्छा तरीका है। अपने किये हुए पाप का प्रायश्चित्त कर लेना तो सबसे ही उत्तम हैं उससे घुटन द्वारा होने वाली भयंकर सम्भावनाओं की तुलना में कही कम कठिनाई उठाकर, न केवल मन हल्का कर लिया जाता है वरन् कितने ही शारीरिक और मानसिक रोगों की जड़ भी कट जाता है।

मनः संस्थान में उत्पन्न घुटन विकृतियाँ भावनात्मक रोग उत्पन्न करती है। उन रोगों के अलग से लक्षण नहीं होते वरन् वे शारीरिक रोगों में मिलकर ही फूटते हैं। शारीरिक रोग यदि कायगत हों तो मामूली दवा-दारु ही उन्हें अच्छा कर देती है। पुराने समय में जब लोग सरल जीवन जिया करते थे; मन में प्रसन्नता, निष्कपटता और निर्द्वन्दता का सन्तुलन बनाये रहते थे तब आज जैसी मानसिक रोगों की बाढ़ न थी। उस जमाने में केवल काय कष्ट ही होता था अस्तु उनके उपचार में कोई कठिनाई नहीं होती थी। अब प्रत्यक्षतः शारीरिक रोग ही दिखते हैं पर उनके पीछे मानसिक रोगों की जटिल ग्रन्थियाँ उलझी होती हैं, जब तक वे न सुलझे, दवा क्या काम करें। मानसिक रोगों की दवाएँ अभी निकली नहीं है। ऐसी स्थिति में यदि चिकित्सकों को चक्कर में डाल रखने वाले और दवाओं को झुठलाने रहने वाले रोगों का बाहुल्य औषधि उपचार की परिधि से बाहर निकलने लगे तो उसमें आश्चर्य की कुछ बात नहीं है।

भावनाएँ यदि निर्मल उदात्त और उच्चस्तरीय हों तो उनसे हर दृष्टि में लाभ ही लाभ है। अन्तःकरण मस्तिष्क और शरीर इन तीनों का ही पुष्टि होती है। परिस्थिति वश यदि शोक, क्रोध जैसे अवसर आ जाएँ और विवेक उनके समाधान में समर्थ न हो तो उसे स्वाभाविक रीति से प्रकट हो जाने देना चाहिए। जितना सम्भव हो उतना, मर्यादाओं का पालन किया जाय, विवेक द्वारा बड़ी दीखने वाली बात को छोटी करके उपेक्षा में डाल दिया जाय पर यदि वैसा न बन पड़े तो उसके प्रकटीकरण में भी हर्ज नहीं है।

कामवासना के पीछे मूल वृति हास्य, विनोद और क्रीड़ा कलोल की-कोमल भावनाओं की उत्तेजना का आनन्द लेने की होती है। उसे दूसरे रूप में प्रकट और परिणत किया जा सकता है। छोटे बालकों को खिलाने, दुलारने से भी सौंदर्य वासना और निर्मल हास-विलास की आवश्यकता पूरी हो जाती है। संगीत साहित्य जैसी ललित कलाओं का निर्माण ही इस आधार पर हुआ है कि उनसे भावनात्मक नीरसता को सरसता में परिणत होने का अवसर मिले। नर-नारी में भी निष्पाप हास्य विनोद चलता रह सकता है। कुटुम्ब में बहिन, भाई, देवर, भौजाई, चाची, भतीजे जैसे कई रिश्ते नर-नारी के बीच रहते हैं। इनमें परस्पर विचार विनिमय, हास्य-परिहास वार्तालाप चलता रहे तो नर-नारी की पूरक आकांक्षाएँ पवित्र स्तर पर पूरी होती रह सकती हैं और कामेच्छा का उदात्तीकरण होने से उन्हें भावनात्मक तृप्ति मिलती रह सकती है। पति पत्नी के बीच भी शरीरों को न्यूनतम मात्रा में ही गला कर-व्यंग विनोद, उपहास-परिहास की शालीन प्रक्रिया अपनाकर मनः क्षेत्र को उल्लास भरा रखा जा सकता है और वासना जन्य घुटन का सहज निष्कासन होता रह सकता है। इस स्थिति में ब्रह्मचर्य पालन कठिन नहीं पड़ता वरन् सरल हो जाता है।

भावनाओं का अनियन्त्रित उभार ठीक शरीर में चढ़े हुए बुखार की तरह है। बुखार में पाचन तन्त्र लड़-खड़ा जाता है। कोई अवयव उत्तेजित होकर अधिक काम कर रहा होता है कोई एकदम शिथिल पड़ गया होता है। ऐसे असन्तुलन में रोगी को दाह, प्यास, बेचैनी, दर्द आदि कितने ही कष्ट अनुभव होते हैं। भावनात्मक उभार को एक मस्तिष्कीय बुखार कहना चाहिए। कई बार वह तीव्र होता है कई बार मन्द। क्रोध शोक और बेकाबू होकर प्रकट होने वाले आवेग तीव्र बुखार है। चिन्ता, निराशा, कुढ़न, ईर्ष्या जैसी प्रवृत्तियाँ मन्द ज्वर है। आकांक्षाओं को इतनी बढ़ा लेना कि वर्तमान परिस्थिति में कार्यान्वित फलीभूत न हो सकें तो भी उनसे अतृप्ति जन्य क्षोभ उत्पन्न होता है और मानसिक सन्तुलन बिगड़ता है। उन्नति के लिए प्रयत्न करना बात अलग है। और महत्त्वाकाँक्षाओं का पहाड़ खड़ा करके हर घड़ी असन्तोष अनुभव करना बिलकुल अलग बात है। कितने ही व्यक्ति उपलब्धियों के लिए व्यवस्थित प्रयास तो कम करते हैं, कामनाओं के रंग-बिरंगे स्वप्न देखते हैं। शेखचिल्ली की तरह लम्बी चौड़ी बातें सोचते रहना तो सरल है पर उन्हें फलीभूत बनाने के लिए योग्यता, साधन और परिस्थिति तीनों का ही तालमेल रहना चाहिए। इसके बिना महत्त्वाकाँक्षाएँ-ऐषणाएं केवल मानसिक विक्षोभ ही दे सकती है। इस प्रकार की उड़ानें उड़ते रहने वाले अन्ततः निराशा जन्य मानसिक रोगों के जाल जंजाल में जा फँसते हैं।

भावनात्मक विकृतियाँ शरीर के उपयोगी अंगों पर तथा जीवन संसार की क्रियाओं पर बुरा असर डालती है। उनके सामान्य क्रम को लड़खड़ा देती है और वह अवरोध किसी न किसी शारीरिक रोग के रूप में प्रकट होता है। पापी मनुष्य दूसरों की जितनी हानि करता है उससे ज्यादा अपनी करता है। दुष्कर्म कर लेना अपने हाथ की बात हैं पर उसकी प्रतिक्रिया जो कर्त्ताः के ऊपर होती है, और आत्मधिक्कार की, आत्म प्रताड़ना की, जो भीतर ही भीतर मार पड़ती है उसे रोकना किसी के बस में नहीं रहता। पाप-पुण्य के भले-बुरे फल मिलने की यही तो स्वसंचालित प्रक्रिया है। पाप कर्म के बाद अन्तःकरण में अनायास ही पश्चाताप और धिक्कार की प्रतिक्रिया उठती है। उससे शरीर और मन का सन्तुलन बिगड़ता है। दोनों क्षेत्र रुग्ण होते हैं। उसके फलस्वरूप जन-सहयोग का अभाव, असम्मान मिलता है। और सन्तुलन बिगड़ा रहने से हाथ में लिए हुए काम असफल होते हैं। इस सबका मिला-जुला स्वरूप शारीरिक मानसिक कष्ट के रूप में आधि-व्याधि बनकर सामने आता है। कर्मफल भोग की यही मनोवैज्ञानिक पद्धति है। इससे बचाव करने के लिए निष्पाप जीवन क्रम अपनाने की आवश्यकता है। जो पाप पिछले दिन बन पड़े है उनके प्रायश्चित्त के लिए किसी सूक्ष्मदर्शी आत्मविद्या विज्ञानी से परामर्श लेने की आवश्यकता है।

‘साइको सोमेटिक’ रोगों की बाढ़ इन दिनों बौद्धिक विकास के दुरुपयोग ने उत्पन्न की है। होना यह चाहिए कि यदि प्रबुद्धता के दुरुपयोग का खतरा हो वहाँ मानसिक विकास का प्रयास न किया जाय यदि वह अनुचित लगता है और मस्तिष्कीय विकास आवश्यक लगता है तो उसे सन्मार्गगामी बनाये जाने की समुचित तैयारी पहले से ही रखनी चाहिए। विकसित मस्तिष्क यदि दुष्प्रवृत्तियों से भरा रहा तो निश्चित रूप से वह अभिशाप सिद्ध होगा। और उसका दंड जटिल कष्ट साध्य, दुराग्रही साइकोसोमेटिक रोगों के रूप में भुगतना पड़ेगा। यह मानसिक रोग झक्कापन, सनक, आवेश, मतिभ्रम, अर्ध, विक्षिप्ताव्स्था, पागलपन आदि के रूप में भी हो सकते हैं और अन्य शारीरिक अवयवों में रोग उत्पन्न कर सकते हैं।

घुटन एक-न दीखने वाली-न समझ में आने वाली बीमारी हैं, पर इसका कुप्रभाव किसी भी भयंकर रोग से कम नहीं होता। अतृप्त और असन्तुष्ट मनुष्य, अपने आप ही अपने को खाता, खोता और खोखला करता रहता है। घुटन से बचा जाय। यदि अपनी भूल है-स्थिति का सही मूल्यांकन न करके काल्पनिक जाल-जंजाल बुन लिया गया है कि मकड़ी के जाले को तोड़कर यथार्थता के धरा-तल पर आना चाहिए और परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाकर मन का बोझ हलका करना चाहिए। यदि अपनी मान्यता सही है और दबाव डालकर आत्मा की आवाज का हनन किया जा रहा है तो फिर ऐसे आधिपत्य से इनकार करके अपना स्वतन्त्र रास्ता बनाना चाहिए फिर चाहे वह कितनी ही असुविधाजनक क्यों न हो। घुटन में दिन काटते हुए अन्तरात्मा और आत्मिक तीनों ही बल नष्ट होते हैं। इस प्रकार आत्महत्या की स्थिति से तो निकलना ही चाहिए भले ही उसमें कुछ बड़ा जोखिम उठाना पड़े। घुटन यदि आत्म प्रताड़ना की है तो उसे किसी विश्वस्त मित्र के आगे जी खोल कर कह ही देना चाहिए इस प्रकार वह धुँआ बाहर निकाल देने पर ही जी हलका हो सकता है।


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