राजा था दयालु और धर्म की राह पर चलने वाला,? जनता के कष्टों को दूर करने का सदैव प्रयत्न करता रहता था ओर राजकुमार का स्वभाव राजा से बिलकुल विपरीत था। उसे निरपराध नागरिकों को यातना देने में आनन्द आता था। स्वभाव से दुष्ट और निर्दयी, बोलने में भी कर्कश। बात बात में उसे क्रोध आ जाता था।
राजा अपने पुत्र की इन हरकतों से बहुत खिन्न था। उसने स्वयं सुधारने का प्रयास किया। रानी ने भी नीति के मार्ग पर चलाना चाहा। कितने ही अध्यापकों की नियुक्ति की गई पर सबने हार मान ली। जितने प्रयत्न सम्भव थे उतने किये गये। राज्य की जनता में विरोध बढ़ता जा रहा था। और उधर उम्र के साथ उत्पात बढ़ रहे थे। सभी लोग किसी न किसी तरह उससे मुक्त होना चाहते थे। भगवान बुद्ध तक बात जा पहुँची उन्होंने उसे भलाई की राह पर चलाने का निश्चय किया। उन्होंने राजकुमार को अपने पास नहीं बुलाया वरन् स्वयं उसके पास गये।
भगवान बुद्ध अपनी बात कहने में बड़े व्यवहार कुशल थे वह रोग के अनुकूल निदान ढूँढ़ने में सिद्ध हस्त थे। उन्होंने राजकुमार को धर्म का कोई पाठ नहीं पढ़ाया और न लम्बा-चौड़ा व्याख्यान दिया। नरक की यातनाओं का भय दिखाने की भी उन्होंने कोशिश न की। वह घूमते हुए उसे एक छोटे नीम के वृक्ष के पास ले गये और कहा ‘राजकुमार। इस वृक्ष का पत्ता तो तोड़ कर देखो कैसा?’
राजकुमार ने वैसा ही किया एक पत्ते को मुँह में डाला तो सारा मुँह कड़वाहट से भर गया। इतनी बात में ही वह आपे से बाहर हो गया। भगवान बुद्ध से तो उसने कुछ नहीं कहा पर अपने नौकर को आदेश देकर उस वृक्ष को जड़ से कटवा दिया।
‘अरे राजकुमार’ तुमने यह क्या किया।’
‘इस पौधे के लिए तो यही किया जाना चाहिए था। अभी से जब यह इतना कड़वा है तो बढ़ने पर इसकी क्या स्थिति होगी मैं समझता हूँ साक्षात विष हो जायेगा। अतः मैंने उचित ही किया जो अभी से उखाड़ फेंका।’ राजकुमार ने उत्तर दिया।
भगवान बुद्ध इसी अवसर की प्रतीक्षा में थे। उन्होंने गम्भीरता पूर्वक कहा ‘राजकुमार यदि तुम्हारे दुर्व्यवहार और अत्याचारों से परेशान होकर यदि जनता तुम्हारे से वही व्यवहार करने को विवश हो जाये जो तुमने नीम के पौधे के साथ किया, तो तुम क्या करोगे? वह दिन था कि भगवान बुद्ध द्वारा दिखाई राह पर राजकुमार चल पड़ा और फिर कभी बुराई की राह पर न गया।