कोई समय था जब हर स्वप्न में कुछ न कुछ अर्थ, रहस्य या सन्देश सन्निहित समझा जाता था, जो लोग स्वप्नों की व्याख्या कर सकते थे उन्हें बड़ा सम्मान मिलता था। ईसा की दूसरी शताब्दी में आर्तमिदोरस नामक एक इटली निवासी विद्वान् ने इस सन्दर्भ में एक पुस्तक लिखी थी पुस्तक का नाम था-ओजीरोक्रिटक-अर्थात् स्वप्नों की व्याख्या करने के सिद्धान्त। उन दिनों इसकी प्रतियाँ नकल करके बनाई जाती थी। पीछे पन्द्रहवीं शताब्दी में जब प्रेस का आविष्कार हुआ तो यह छपी और वह लोकप्रिय रहीं। इसके बाद और भी कई स्वप्न कोष छपे जिनमें हर स्तर के स्वप्नों की अकादरादिक्रम से व्याख्या होती थी।
पुराने जमाने में ऐसा समझा जाता था कि सोते समय आत्मा शरीर से निकल कर भ्रमण करने चला जाता है और वह वहाँ जो कुछ देखता है लौटकर पुनः शरीर में प्रवेश करने पर स्वप्न कहता है। उन दिनों गहरी नींद में सोये हुए किसी व्यक्ति को जगाना बुरा समझा जाता था क्योंकि जल्दी जगा देने से सम्भव है भ्रमणकारी आत्मा तत्काल शरीर में न लौट सके और उसकी मृत्यु हो जाय।
मनोविज्ञान शास्त्री शारीरिक या मानसिक परि-स्थितियों का विश्लेषण स्वप्नों के आधार पर करते हैं। जैसे गला घुटने या बोझ से दबने जैसे स्वप्न फेफड़े में खराबी उत्पन्न होने से उस प्रकार के रोग होने के संकेत करते हैं दो सोते आदमियों के हाथ में कलम थमा दी गई एक ने हाकी खेलने का और दूसरे ने मुगदर घुमाने का स्वप्न देखा। इसी प्रकार तीन सोते हुए आदमियों की हथेली पर रुई सहलाई गई एक ने बिल्ली की पूँछ हाथ ने पकड़ने के रूप में और दूसरे ने अपनी लड़की के बालों पर हाथ फिराने के रूप में उसी समय स्वप्न देखा। तीसरे ने मालिश होते हुए देखी। प्यासा आदमी स्वप्न में जलाशयों की तलाश में फिरता है और शौच की इच्छा होने पर टट्टी जाने के लिए स्थान तलाश करता है। वीर्य में गर्मी बढ़ जाने से काम सेवन और स्वप्न दोष होने की घटना अनेकों के साथ घटित होती है। यह शारीरिक स्थिति से सम्बन्धित स्वप्न के बढ़े-चढ़े प्रतीकात्मक रूप हैं। बालकों की तरह अचेतन मन भी बहुत कल्पनाशील होता। जरा से इशारे पर तिल का ताड़ गढ़कर खड़ा कर लेता है।
मनोविज्ञानी फ्राइड ने 1600 स्वप्न संग्रह करके उनके आधार पर एक बड़ी विवेचनात्मक पुस्तक लिखी है- स्वप्नों की व्याख्या। उसने यह निष्कर्ष निकाला है कि दबी हुई इच्छाएँ स्वप्न बनकर उभरती है। सभ्यता के साथ-साथ मनुष्य की कामनायें-आकांक्षाएँ , वासनाएँ और लिप्साएं भी बढ़ी है। वे अतृप्त रहने पर विद्रोही बनती है और स्वप्नों की अपनी अलग दुनिया रचकर उन्हें चरितार्थ करने का नाटक खेलती है। कामनाओं की न्यूनता से स्वभाव संतोषी बनता है। और अन्तःकरण में चैन रहता है अथवा इतनी सुविधा होनी चाहिए कि हर इच्छा तृप्त हो सके। दोनों ही बातें न बनें तो असन्तुष्ट मनः स्थिति में मानसिक ग्रन्थियाँ बनती हैं और वे ऊबड़-खाबड़ स्वप्न दिखाने से लेकर मनोविकार तक उत्पन्न करने का कारण बनती हैं।
स्वप्नों में आमतौर से इतना ही आधार रहता है कि वे मनुष्य की प्रवृत्ति और प्रकृति के अनुरूप दिशा में चलते हैं स्वप्नों का स्तर देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यक्ति के मन पर किन विचारों में आकांक्षा अथवा घृणा के रूप में आधिपत्य जमाया हुआ है। वह क्या चाहता है और किससे डरता बचता है। सपने आमतौर से इसी पटरी पर उड़ते लुढ़कते हैं।
कभी-कभी स्वप्न सत्य भी होते हैं। शुद्ध अन्तःकरण वाले, प्रातःकाल अदृश्य तथ्यों की जानकारी स्वप्न संकेतों से प्राप्त करते देखे गये हैं पर ऐसा होता प्रायः कम ही है।