जीवन-यज्ञ की रीति-नीति

March 1973

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सुगन्धित पदार्थों का हवन करना इस दिशा में इंगित करता है कि हम अपनी आन्तरिक सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को प्रसुप्त स्थिति में पड़ी न रहने दें उन्हें दीप्ति-मान और तेजस्वी बनाये। उन्हें सीमित क्षेत्र में प्रतिबंधित न रहने देकर विस्तृत और व्यापक बनायें।

हव्य वस्तुओं की विपुल मात्रा भण्डार में संगृहीत रहती हैं। इसका कुछ पुण्य नहीं। संग्रहकर्ता को इससे थोड़ा आर्थिक लाभ भर हो सकता है, जनसाधारण को लाभ तो अभी मिलता है जब वे वितरित की जाती है। हर मनुष्य के पास ऐसी विशेषताएँ होती है जिन्हें वह चाहे तो वितरित कर सकता है और असंख्यों को ऊँचा उठाने-आगे बढ़ाने एवं आनन्दित करने में सहायता कर सकता है। जहाँ ऐसी भावनाएँ और चेष्टाएँ उभर रहीं हों, समझना चाहिए जीवन को यज्ञमय बनाया जा रहा है।

चन्दन, कपूर आदि की सुगन्ध उनके जलन पर ही व्यापक बनती है अथवा उनकी सुवास रखे गये स्थान तक ही सीमित रहेगी। सद्गुणों को चाहे तो मनुष्य अपने निजी कामों तक सीमित रख सकता है, उससे उसका अपना हित साधन भी है पर जब कोई अपनी विभूतियों से दूसरों को लाभान्वित करने की परमार्थ प्रवृत्ति अपनाता है तो भले ही निजी लाभ सीमित होता दिखाई पड़े किन्तु असंख्यों को लाभ मिलने की जो मंगलमयी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें देखते हुए वह हानि नगण्य है जो अमीरी पर अंकुश रखने जैसी दृष्टिगोचर होती है।

अपने दोष दुर्गुणों को भस्मसात् करने के लिए अपनाया गया साहस और उठाया गया कदम वस्तुतः यज्ञीय धर्मानुष्ठान है। काठ-कबाड़ जहाँ-तहाँ बिखरा पड़ा रहे तो उससे क्या बनेगा पर जब वह अग्निदेव के संपर्क में आकर ज्योतिर्मय बनता है तो उसकी शक्ति देखते ही बनती है। एक जलती लकड़ी को अवसर मिले तो वह दावानल का रूप धारण कर सकती है और योजनों लम्बे जटिल जंगलों से भूखण्डों को स्वच्छ कर सकती है। उससे कितनी वस्तुएँ पकाई जा सकती हैं और कच्ची चीजों की तुलना में पकी चीजों का मूल्य महत्त्व अनेक गुना हो सकता है। अग्नि संस्कार के कारण जो उपलब्धियाँ प्राप्त होती है वे असीम है। पर यह सब लाभ मिलते तभी है जब अग्नि को ज्वलन्त होने का अवसर देने वाला ईंधन पर्याप्त मात्रा में मिल सके। अपनी बिखरी हुई अनगढ़ और अस्त-व्यस्त आदतों को जब उत्कृष्टता की अग्नि में ईंधन बनाकर होम दिया जाता है तो उससे ज्योतिर्मय अग्निदेव प्रकट होते हैं और उससे यज्ञ प्रयोजन की आवश्यकता पूरी होती है। जीवन यज्ञ का आयोजन इसी प्रकार सम्पन्न होता है। यज्ञ से स्वर्ग मिलता है। यह खुला रहस्य है। इसे हर कोई-कभी भी प्रत्यक्ष देख सकता है। नन्हा सा बीज जब यज्ञीय परम्परा अपना-कर गलने को तत्पर होता है तो उसका वह आत्मदान विशाल वृक्ष के रूप में चिरकाल तक यशगान करने के लिए गर्वोन्नत मस्तक करके खड़ा हो जाता है । कोई भी मनुष्य अपनी स्वार्थ भरी संकीर्णता की परिधि को तोड़कर विराट् के सम्मुख अपना आत्म समर्पण करके यह देख सकता है कि संग्रही परिग्रही की तुलना में उसने कितना अधिक प्राप्त कर लिया? उन्नति के उच्च शिखर पर चढ़ने के उत्सुक जल कण अग्नि के संपर्क में आकर अपना भारीपन गँवाते और हलके बनते हैं। जो जितना हलका होगा वह उतना ऊँचा उठेगा। जोहड़ का सड़ा पानी वरुण बनकर आकाश में उड़ता देखा जा सकता है पर उसके लिए ताप के सम्पर्क में आने-हलका बनाने और सीमा परिधि को तोड़कर विस्तृत क्षेत्र में विचरण करने की रीति तो अपनानी ही पड़ती है। यही यज्ञ का आध्यात्मिक स्वरूप है। हम ताप सहने का साहस करें-हलके बनें और उन्मुक्त आकाश में विचरण करें तो तुच्छ दीखने वाला व्यक्ति देखते-देखते महामानव बन सकता है। ऐसा महामानव जो यज्ञ की तरह श्रद्धास्पद दिखाई पड़े और असंख्यों का हितसाधन कर सकने का श्रेय प्राप्त करें।


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