सुविधा और सम्पन्नता ढूँढ़ने के लिए दर-दर मारे फिरने की जरूरत नहीं। वह सब कुछ अपने ही भीतर है जो बाहर समझा और खोजा जाता है। जितना श्रम बाहर भटकने में किया जाता है यदि उतना ही उपलब्धियों को ढूँढ़ने और प्राप्त करने के लिए अन्तरंग क्षेत्र में किया जाय तो निराश होने का अवसर कभी भी न आयेगा। अपना आपा ही कल्पवृक्ष है। यदि उसे ठीक तरह सींचा और रखाया जा सके तो फिर जीवन में अभाव एवं अतृप्ति के कारण खिन्न रहने का कोई कारण शेष न रहेगा।
स्वास्थ्य के साधन बाहर नहीं है। पौष्टिक आहार बेचने वालों और हकीमों का दरवाजा खटखटाने से कुछ हाथ न लगेगा यदि उन्हीं के पास निरोगता और बलिष्ठता होती तो अमीरों ने उसे कब का खरीद लिया होता। तब कोई पुष्टाई विक्रेता और चिकित्सक न तो बीमार पड़ता और न कमजोर दीखता। पर ऐसा कहाँ होता है। अमीरों और हकीमों का परिवार ही अपेक्षाकृत अधिक रुग्ण और दुर्बल रहता है। यह सच्चाई इस तथ्य को स्पष्ट कर देती है कि आरोग्य वहाँ नहीं है जहाँ आमतौर समझा और खोजा जाता है।
आहार का संयम, ब्रह्मचर्य, नियमित दिनचर्या, श्रम विश्राम का संतुलन, मुसकान और मस्ती भरा स्वभाव इन पाँच उपचारों से आत्म देवता की पूजा करते रहने वाला अविच्छिन्न स्वास्थ्य और दीर्घजीवन का वरदान हाथों हाथ पा सकता है।
घनी बनने के लिए सट्टा, लाटरी, चोरी, बेईमानी करने या हराम की कमाई के दूसरे साधन टटोलने और उनमें निरत रहने वाले धनी कहाँ बन पाते हैं किसी प्रकार कुछ प्राप्त भी कर ले तो हवा में रखे कपूर की तरह देखते-देखते उसका उड़ जाना निश्चित है। चोर और बेईमानों में से कितने अमीर बन सकें है। किसने इस धन से सुख पाया है? अनीति उपार्जित पूँजी से किसका परिवार फला फूला है। सम्पन्नता वस्तुतः सद्गुणों से सम्बन्धित है। परिश्रमी, पुरुषार्थी, मितव्ययी, काम में मनोयोग और तत्परता बरतने वाले, साहसी धैर्यवान् क्रिया कुश-लता और अनुभव एकत्रित करने वाले जिस काम में भी हाथ डालते हैं उसी में लाभ होता है उसी में सफलता मिलती है। धनी बनने के लिए अपनी आदतों और योग्यताओं को संभालना पड़ता है। स्थिर और सुखद सम्पदा के संग्रह का यही एकमात्र मार्ग है। जो भीतर से समृद्ध है वही बाहर भी सम्पन्न रह सकेगा।
लोग न जाने कितनी-कितनी इच्छा आकांक्षाएँ संजोयें रहते हैं कितनी कामनाएँ करते और कितनी योजनाएँ बनाते हैं। पर यह भूल जाते हैं कि इस संसार के बाज़ार में हर सफलता हर किसी के लिए खुली होने पर भी यह शर्त तो है कि जिसके पास अपना कुछ होगा उसी को दुकान से मन पसन्द चीजें खरीदने की सुविधा रहती है। जेब खाली हो तो भला किस बाज़ार से किसे कुछ खरीदने का अवसर मिल सकता है। ललचाने, मन चलाने और हाथ मलते हुए वापिस लौटने वाले अक्सर खीजते और दुकानदारों पर दोष लगाते हैं पर वे यह भूल जाते हैं कि संसार दानियों और भिक्षुकों पर नहीं श्रमिकों और व्यापारियों के रीति-नीति पर चल रहा और टिक रहा है।
मैत्री, प्रशंसा, सम्मान, उच्च पद आदि की आवश्यकता अनुभव की जाती है। सुसंतति की अभिलाषा रहती है। पर यह नहीं सोचा जाता कि इन उपलब्धियों का मूल्य क्या है? जिसकी जेब खाली है, उसे कहाँ कौन, कुछ देगा। दर्पण में अपनी ही आकृति दिखाई देती है। दूसरे तो दर्पण की तरह है जिनमें अपनी ही छाया झाँकती दिखाई देगी। यदि हम अयोग्य अथवा दुर्गुणी है तो इस संसार में विपुल सम्पदा भरी रहने पर भी केवल अभाव और दुर्भाग्य ही अपने पल्ले पड़ेगा। जिन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण पाया है उन्होंने अपने को उसके योग्य बनाया है। प्रगति शीलता का, सुख समृद्धि का और कोई रास्ता है ही नहीं