कर्मयोग ज्ञानयोग और भक्तियोग की साधना

March 1973

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जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ आत्म-निरीक्षण आत्म शोधन और आत्म विकास ही है। अन्तरंग क्षेत्र उपेक्षित पड़ा रहे तो बहिरंग में सुख-शान्ति की झलक कभी भी दृष्टिगोचर न होगी। इस भ्रम की निरर्थकता पग-पग पर अनुभव की जा सकती है। कि “जिसके पास जितने अधिक साधन हैं वह उतना ही अधिक सुखी होगा। यह मान्यता इसी हद तक सही है कि दूसरे लोग इस प्रकार का अनु-मान करते रह सकते हैं। अमीरों के सम्बन्ध में आमतौर से यही समझा जाता है। कि वे सर्व सुखी हैं पर यदि उनको समीप से देखा पढ़ा जाय तो प्रतीत होगा कि अभावग्रस्त लोगों की अपेक्षा भी वे अधिक गई गुजरी स्थिति में है। विश्व के सर्वोपरि धनकुबेर हेनरी फोर्ड ने मरते समय ईश्वर से प्रार्थना की थी कि उन्हें अगला जन्म किसी श्रमिक परिवार में ही मिलें सच बात यह है कि आन्तरिक उत्कृष्टता के अभाव में सम्पदा का परिणाम विषम ज्वरग्रस्त रोगी को भर पेट मिष्ठान्न पकवान खा जाने की तरह भयावह ही होता है। उदात्त दृष्टिकोण के अभाव में वे उस वैभव का दुरुपयोग ही करते हैं और व्यसनों की-अहंकार का पूर्ति में संलग्न होकर अपना सन्तुलन गँवाते है-सर्वनाश करते हैं।

परिष्कृत व्यक्तित्व अभाव ग्रस्त परिस्थितियों में भी प्रगति पथ पर अनवरत गति से चलता रह सकता है और सुख शान्ति अक्षुण्ण बनाये रह सकता है। इस तथ्य का प्रतिपादन न केवल अध्यात्म तत्त्वदर्शन ने विवेचनात्मक स्तर पर ही किया है वरन् ऋषियों ने जान-बूझ कर अभाव ग्रस्तता की परिस्थितियाँ वरण किये रहकर यह प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध किया है कि निर्धनता उनकी गरिमा सुविधा, शान्ति, प्रगति में किसी प्रकार बाधक नहीं। इसके विपरीत शारीरिक और मानसिक दृष्टि से व्यथा वेदनाएँ सहने वाले लोगों में साधन सम्पन्न लोगों की ही संख्या अधिक होती है। विक्षोभों के आघातों से पागल होने वाले और आत्महत्या करने वाले भी अधिकतर सुविधा सम्पन्न लोग ही होते हैं। अपराध और अनाचार भी खाते पीते लोग ही करते हैं। इससे सिद्ध है कि धन के भाव या अभाव के कारण कोई व्यक्ति भला या बुरा नहीं बनता-न सुखी या दुखी रहता है। व्यक्तित्व का सारा आधार दृष्टिकोण पर ही निर्भर है। साधन की उपयोगिता भी है और आवश्यकता भी, पर वह है तभी जब व्यक्ति का अन्तरंग परिष्कृत हो अन्यथा सर्प को दूध पिलाने की तरह बढ़ा हुआ वैभव व्यसन, व्यभिचार, अहंकार आदि दुर्गुणों की ही वृद्धि करता है।

आत्मबोध होने से व्यक्ति अपनी वस्तुस्थिति समझता है। वह क्या है, क्यों है और क्या करने से सुख शान्ति एवं प्रगति भरी विभूतियाँ उपलब्ध हो सकती है यह निश्चित हो जाता है। जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए संकल्प पूर्वक बढ़ चलने वाले लोगों की सामान्य कार्य पद्धति से ही कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग की साधना जुड़ जाती है। उन्हें अलग से कुछ बहुत बड़े कर्मकाण्ड नहीं करने पड़ते।

इन्द्रिय लिप्सा के लिए नहीं-जीवन धारण किये रहने के लिए जब आहार-विहार का सुनियोजित सुसंतुलित क्रम निर्धारण कर लिया जाता है तो फिर शरीर के रुग्ण बिनोवा जैसे दुर्बलकाय व्यक्ति 80 वर्ष की आयु तक पूर्ण सक्रिय बनें रहते हैं। यह केवल कर्मयोग की महत्ता है। स्वास्थ्य का विनाश अकारण नहीं होता, इन्द्रिय लिप्सा, असंयम, दिनचर्या में असन्तुलित क्रम, श्रम की न्यूनाधिकता जैसे कारण ही अस्वस्थता के मूल उद्गम है। जलवायु , रोग के कृमि आदि तो अत्यन्त स्वल्प मात्रा में ही रोगों के लिए उत्तरदायी होते हैं। अधिकतर तो मनुष्य आप ही रोगों को निमन्त्रण देता है और असंयम के घोंसले में उन्हें छिपाये रहते हैं। जिसने शरीर को ईश्वर का मन्दिर माना-लिप्साओं को शुद्र समझा-औषधि रूप सात्विक आहार किया- और सन्तुलित श्रम साधना का निर्धारण किया उसे अपना इस कर्मयोग का प्रतिफल सुदृढ़ आरोग्य और दीर्घ जीवन के रूप में मिलता ही रहेगा। शरीर के अनैतिक, अवांछनीय, असामाजिक, गर्हित कर्म न करने दिये जायें कुसंस्कार और गर्हित अभ्यास तथा दुष्ट दृष्टिकोण यदि कुकर्म करने के लिए प्रेरित करें तो उन्हें बलपूर्वक कुचल दिया जाय। इसके लिए उपयुक्त साहस उत्पन्न करने के लिए व्रत, उपवास, अस्वाद, भूमि शयन, रात्रि जागरण, तप, तितीक्षा, पदयात्रा, मौन धारण, ब्रह्मचर्य, शीतोष्ण सहन जैसी धार्मिक साधनायें की जाती है। कर्मयोग का मूल प्रयोजन यही है कि शरीर को उच्छृंखल क्रिया कृत्य न करने दिये जाये, उसे औचित्य की मर्यादा में रहने के लिए ही अभ्यस्त और विवश किया जाय।

ज्ञानयोग की साधना यह है कि मस्तिष्कीय गति विधियों पर-विचार धाराओं पर विवेक का आधिपत्य स्थापित किया जाय। चाहे जो कुछ सोचने की छूट न हो। चाहे जिस स्तर की चिन्तन प्रक्रिया अपनाने न दी जाय। औचित्य-केवल औचित्य-मात्र औचित्य-ही चिन्तन का आधार हो सकता है, यह निर्देश मस्तिष्क को लाख बार समझाया जाय और उसे सहमत अथवा बाध्य किया जाय कि इसके अतिरिक्त उसे और किसी अनुपयुक्त प्रवाह में बह चलने की छूट न मिल सकेगी।

शरीर के द्वारा होने वाले कर्मों को चमड़े की आँखों से देखा जा सकता है पर उनकी भलाई बुराई स्वयं समझी जा सकती है अथवा दूसरे बताते रहते हैं। स्थूल शरीर का क्रिया-कलाप स्थूल दृष्टि से समझा जा सकता है पर मानसिक हलचलें अदृश्य होती है उन्हें देखने समझने के लिए सूक्ष्म दृष्टि विकसित करनी पड़ती है। यही ज्ञान-योग है। मोटे तौर से धर्म, अध्यात्म दर्शन जैसे विषयों का पठन पाठन-श्रवण स्वाध्याय ज्ञानयोग की साधना के अंतर्गत आता है लोग इसी के लिए कथा, प्रवचन सुनते हैं। ग्रन्थ पाठ भी उसी पुण्य प्रयोजन के लिए किये जाते हैं पर ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह सब निर्देश संकेत मात्र हैं- आधार नहीं। मस्तिष्क पर नियन्त्रण प्राप्त करने के लिए किस स्तर की चिन्तन प्रक्रिया हो इसके लिए अवतारों के, ऋषियों के-महामानवों के चरित्रों, एवं निर्देशों का श्रवण स्वाध्याय करके हम अपनी मनः स्थिति सही करें-विचारणाओं में परिष्कृत तत्त्वों का समावेश करें इतना भर उद्देश्य इस सारे ज्ञानयोग कलेवर का है। उसका सार-तत्त्व व्यवहार में आया कि नहीं इसकी परख इस कसौटी पर होती है कि सूक्ष्म दृष्टि से अपनी मानसिक हलचलों का बारीकी से अध्ययन-उनके औचित्य का वर्गीकरण-अवांछनीय प्रवाह का दमन और दिव्य चिन्तन को प्रोत्साहन कितनी गहराई के साथ किया जा रहा है।

प्रेम का-भक्ति का-प्रकटीकरण सद्भावनाओं के रूप में होता है। इस अमृत उद्भव का प्रथम लाभ अपने आपको मिलता है। अपने ऊपर अत्याचार करते रहने का कुकर्म तत्काल बन्द करना पड़ता है। प्रेम योगी के अन्तःकरण में करुणा का स्रोत बहता है उसका लाभ पेट को मिलता है, जीभ के चटोरेपन के कारण जो पेट को निरन्तर उत्पीड़ित किया जाता रहा है उस पर इतना अत्याचार होता रहा है कि उसकी कराह, रुग्णता और दुर्बलता के रूप में कभी भी सुनी जा सकती है। जननेन्द्रिय का दुरुपयोग एक प्रकार से अभिशाप ही बनकर रहा है उससे अपना-अपनी पत्नी का स्वास्थ्य बेतरह खोखला हुआ है। इतने बच्चे जने गये है। जिनका उचित रीति से भरण-पोषण शक्य न था। दाम्पत्य क्षेत्र की मर्यादाओं का उल्लंघन करके व्यभिचार का भी आश्रय लिया जाता रहा है इस आत्म अत्याचार का फल, शरीरबल, मनोबल और आत्मबल की अपार क्षति के रूप में भुगता जा रहा है। आत्म समीक्षा करते हुए सब कुछ खोखला ही खोखला प्रतीत होता है।

यह भूले पहले समझ में नहीं आती थी पर जब सद्-भावनाओं का , भक्तियोग का -उदय होता है तो शरीर के प्रति भी करुणा जगती है। पेट और जननेन्द्रिय पर किया जाने वाला अत्याचार करते रहने वाले कसाई जैसे हाथ तत्काल रुक जाते हैं। जिह्वा और जननेन्द्रिय का संयम अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होता है प्रतीत ही नहीं होता उसे तत्काल कार्यान्वित करना भी आरम्भ हो जाता है। औषधि रूप आहार की दृष्टि बनती है और ब्रह्मचर्य के प्रति कठोर रहने की बुद्धि जागृत होती है। दिनचर्या में ऐसा सन्तुलन स्थापित किया जाता है। जिसमें प्राकृतिक जीवन पद्धति का तनिक भी व्यक्तिक्रम न होता हो। नियमित और सात्विक आहार-विहार का निर्धारण करने को भक्तियोग साधना जब आरम्भ होती है तो काय कलेवर के रोम-रोम में विद्यमान् परमेश्वर पुलकित हो उठता है और आरोग्य का उपहार तत्काल देना आरम्भ कर देता है।

संयम शरीर में अवस्थित भगवान है सद्विचार मस्तिष्क में निवास करने वाला परमेश्वर है। अन्तरात्मा में उसकी और भी ऊँची झाँकी देखने हो तो सद्भावनाओं के रूप में देखनी चाहिए। ईश्वर दर्शन के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं , उसे अपने भीतर ही देखा जाना चाहिए उसे प्राप्त करने के लिए संयम, सद्विचार और सद्भाव का विकास करना चाहिए। यही है यथार्थ-सत्ता और चैतन्य-चित्त-परिष्कृत आत्मा-परमात्मा की उपलब्धि है। इसी का सद्भाव सम्पन्न आराधना का प्रतिफल है आनन्द। इसी भक्तियोग का साधक सच्चे अर्थों में जीवन लाभ प्राप्त करता है।

उच्च आदर्शों के प्रति इतनी सघन निष्ठा, भक्ति भावना ही कहीं जाएगी जो किसी भी भय या प्रलोभन के प्रस्तुत होने पर आत्मिक आकांक्षाएँ प्रदीप्त होना गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता को सबसे बड़ी सम्पदा समझना-वैभव बड़प्पन की उपेक्षा करके महानता के पथ पर अग्रसर होना-यही है सद्भाव सम्पन्न अन्तःकरण का लक्षण। भक्तियोगी इसी स्तर की भावनाओं से ओत-प्रोत रहता है। वह ईश्वर को-आदर्शों को-कर्तव्यों को एक ही तत्त्व के तीन रूप मानता है और तीनों के लिए समान रूप से अपनी सघन श्रद्धा को नियोजित किये रहता है। ऐसा भक्तियोगी ईश्वर को आत्म समर्पण करके-दैवी विभूतियों के सहज ही सुसम्पन्न बनता है। ऐसी आत्माएँ जीवन मुक्त-देवदूत-कहलाती हैं, उनके प्रकाश के सहारे असंख्य प्राणियों को उद्धार का अवसर मिलता है। स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों का परिष्कार करने के लिए कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का साधना क्रम व्यावहारिक जीवन में उतारने से ही जीवन लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है।


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