स्वर्ग और नरक में से हम जिसे चाहें चुने

March 1973

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स्वर्ग ऊपर आसमान से कितनी दूर है, कितना विस्तृत है और कितनी सुविधाओं से भरा है। यह बताना कठिन है पर यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि परिष्कृत दृष्टिकोण का व्यक्ति अपने आस-पास उतने क्षेत्र में आनन्द और उल्लास ही निरन्तर अनुभव करता रहेगा जितनी दूर तक कि वह देख या सोच सकें।

वस्तुएँ निर्जीव है। उनमें सुख है ना दुःख जिन पदार्थों में अपनी चेतना नहीं वे भला किसी चेतन प्राणी को किस प्रकार सुखी या दुखी बना सकते है? मनुष्य अपने सोचने के ढंग की प्रतिक्रिया ही सुख या दुःख के रूप में प्रतिध्वनित देखता सुनता है। जैसी कुछ भली बुरी अनुभूतियाँ हमें होती हैं वस्तुतः वह अपने ही चिन्तन और मन स्तर का प्रतिफल परिपाक, परिणाम है।

एक ही वस्तु को दो तरह से देखा जा सकता है। गिलास आधा भरा हो तो उस सम्पन्न भी कह सकते हैं और अभावग्रस्त भी। जितना भरा है उतनी उसकी सम्पन्नता है और खाली जगह अभाव। अपनी दृष्टि दोनों में से जिस पक्ष को महत्त्व देगी, गिलास की स्थिति उसी आधार पर सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य स्तर की गिनी जाएगी चूँकि गिलास आधा भरा हुआ है, इसलिए अभाव ग्रस्त अभागा कैसे कहा जाय? चूँकि वह आधा खाली है इस-लिए उसे सौभाग्यशाली भी कौन कहे? गिलास निर्जीव है, यह निर्णय करना अपना काम है कि उसे भाग्यवान कहें या अभागा। सुखी समझें या दुखी?

अपने को जो उपलब्ध है वह उतना अधिक है कि तथाकथित चौरासी लाख योनियों के जीवधारी उसे स्वर्गोपम और देवोपम ठहराते होगे मनुष्यों में ही करोड़ों ऐसे होगे जो उस स्थिति के लिए तरसते होगे, जिसमें हम रह रहे है। यदि उनकी दृष्टि से अपना मूल्यांकन करें तो प्रतीत होगा कि अपनी सम्पन्नता सन्तोषजनक है और हम स्वर्गीय परिस्थितियों में रह रहें है।

यदि सुविधा सम्पन्न लोगों की तुलना में अपने को लायें तोले तो निश्चित रूप से बहुत कमियाँ मालूम देंगी और उनके कारण अपने दरिद्र दुर्भाग्य पर क्षोभ उत्पन्न होता रहेगा। नरक विक्षोभ का ही तो दूसरा नाम है। हम अपना स्वर्ग और अपना नरक वस्तुतः स्वयं ही गढ़ते हैं। बदलते दृष्टिकोण स्वर्ग को नरक और नरक को स्वर्ग में भी सहज ही परिणत परिवर्तित करते रहते हैं।

इस संसार की सृष्टि जिस मिट्टी और पानी से की गई है उसमें शुभ और अशुभ-सत और तम-दोनों का सम्मिश्रण है। दोनों में से हम जिसे भी अपने लिए चुन सकते हैं। उपाय और अनौचित्य को देखें तो वह भी दुनिया भी कम नहीं पर यदि स्नेह सौजन्य और सद्भाव को खोजा जाय तो वह भी कम नहीं मिलेगा। अन्धकार के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता पर प्रकाश का परिमाण उससे कम नहीं अधिक ही है। हम प्रकाश में बैठे या अन्धकार में जा घुसे यह अपनी मनमर्जी की बात है। सत्प्रवृत्तियों के साथ-सद्भाव सत्पात्रों के साथ जो अपने को जोड़ेगा उसे लगेगा कि स्वर्गीय वातावरण कम नहीं-देव मानवों का अभाव नहीं-पर यदि देखने और ढूँढ़ने का केन्द्र बिन्दु बदल जाय और बुरे व्यक्तियों-बुरे कर्मों-पर अपनी अभिरुचि जमी रहें तो नारकीय दृश्य और सड़न भरी दुर्गन्ध से माथा चकराने लगेगा। दोनों स्थानों में से हम कहाँ बैठे, अभिरुचि को कहाँ केन्द्रित नियोजित करें यह पूर्णतया अपने हाथ की बात है। उद्यान में पुष्प खिलें रहते हैं और गोबर भी पड़ा रहता है। गुबरीले गोबर में जा चिपकते हैं और भ्रमर का गुँजन पुष्पों के आस-पास होता है। दोनों कीड़े एक ही खेत में अपनी अभिरुचि के अनुकम्पा परस्पर विरोधी परिस्थितियों में रहते और आकाश पाताल जैसे अन्तर की अनुभूतियाँ करते हैं, स्वर्ग और नरक दोनों सामने खुले पड़े है हम जिसे चाहें उसे चुन सकते हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण के साथ स्वर्ग और अशुभ चिन्तन में नरक अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।


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