युग शम्भु का गरल पान (kavita)

March 1973

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जब-जब दानवता होती उन्मत्त, वारुणी पीकर-तब-तब युग का शम्भु विश्व का गरल पिया करता है॥

नाग, झूठ, छल, छद्मों के, जब रोहित को डसते हैं।

और अन्धविश्वासों के घर विवश तथ्य बसते हैं॥

करते विश्वामित्र परीक्षण की जब भी तैयारी।

तभी बीच चौराहे पर बिकती शैव्या सी नारी॥

जब-जब सत्य कसौटी पर चढ़ता है खरा उतरने-तब-तब युग का हरिश्चन्द्र भी जन्म लिया करता है॥

समता और विषमता में जब जीत विषमता जाती।

अपने बल से जन-जीवन को जब वह विषम बनाती॥

मानव की आंखें टिकती जब एक मात्र कंचन पर।

उसके लिए भुला देता वह आत्मा के शाश्वत स्वर॥

जब-जब वृत्तासुरी असुरता चरम बिन्दु पर आती-तब-तब युग संत दधीचि, अस्थियाँ दान किया करता है॥

सगर सुतों सी यह जन शक्ति, त्यागती जब निष्ठा को।

मानस हंस-छोड़कर मोती, खाते जब विष्ठा को॥

ज्ञान और तप-संचम की चखती न वायु जीवन में-अनाचार-अज्ञान-अनैतिकता भरती जन-जन में॥

जब-जब आवश्यकता पड़ती ज्ञान गंग लाने की-तब-तब युग भागीरथ तप निरत जिया करता है॥

जब सम्मान भुला देता जग, चिर-जननी नारी का।

बढ़ता हाथ छिपी लज्जा पर जब अत्याचारी का॥

केवल भोग्या-रमणी रूप नारी का जब रह जाता।

नंगी तस्वीरें निहार, रो उठता स्वयं विधाता॥

जब-जब दुशासन उतारता द्रुपद सुता की साड़ी-तब-तब युग का कृष्ण तार में तार सिया करता है॥

हर युग में केवल कुछ ही दुष्प्रवृत्तियाँ छायी हैं।

किन्तु आज तो सारी ही बस एक साथ आयी हैं॥

इसीलिये आवाज लगाई हे चेतन मन वालों!

गिरती है दीवार संस्कृति की-तुम इसे बचा लो!!

जब-जब होता जग उद्भ्राँत-पतित-आक्रान्त-भयातुर-तब-तब युग का देव विश्व को अभय दिया करता है-तब-तब युग का शम्भु विश्व का गरल पिया करता है॥

*समाप्त*


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