संगीत के दुरुपयोग की निन्दा भर्त्सना

March 1973

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स्वरयोग की साधना-शब्दब्रह्म का अभ्यास वस्तुतः एक साधना है जिसका अवलम्ब लेकर मनुष्य अपने भीतर के ‘सुन्दर’ को ही नहीं ‘शिव’ और ‘सत्य’ को भी उल्लसित कर सकता है और उस आन्तरिक तृष्णा की तृप्ति कर सकता है जिसकी लालसा उसे विविध विविध कामनाएँ और प्रवृत्तियाँ अपनानी पड़ती है। ‘संगीत’ के योगसूत्र में यही स्पष्ट किया गाय है। कि योग साधना के अनेक प्रकारों में नादयोग की स्वर साधना का भी महत्त्व पूर्ण स्थान है।

गीता में भगवान ने अपने को वेदों में सामवेद बताया है।

वेदानां समावेदोऽस्मि।’

सामवेद में भी सङ्गीत ही है पर उसमें पवित्र उद्देश्य और आदर्शों का समावेश है इसलिए उस स्वर लहरी को वन्दनीय और उपयोगी कहा गया है-

सामवेदः स्मृत पित्र्य स्तस्यात् तस्याशुचिर्घ्वनिः।

मनु0। 4।124

रुद्रः साममयोऽन्तेच तस्यात्तस्याशुचि र्ध्वनिः।

मार्कण्डेय पुराण 102।106

चिरअतीत में मनीषियों ने उसका विकास, विस्तार इस दृष्टि से किया था। लय और ताल का समन्वय करके वाद्य यन्त्रों को नहीं-अन्तरंग की स्वर वीणा को झंकृत करने का उपक्रम किया गया था। संगीत किसी समय भगवदोपासना का ही एक माध्यम था। सुनाने वालों में वह आत्मोल्लास जगाता था और उसे ‘कुत्सा’ से ऊँचा उठाकर ‘भूमा’ में प्रतिष्ठित करता था। अपनी इसी विशेषता के कारण वह लोक श्रद्धा का माध्यम रहा। सन्तों ने उसे प्राणप्रिय माना और उसके सहारे लक्ष्य पूर्ति की दिशा में सफल प्रयाण किया। इसमें इनका ही नहीं वरन् सुनने वाला का भी आत्मोत्कर्ष जुड़ा हुआ रहता था। सामगान के दिव्यदर्शी से लेकर देवर्षि नारद तक और अन्ततः वह पवित्र धारा अनेक सन्त साधकों में प्रवाहित होती हुई हरिदास एवं तानसेन तक चली आई। यह प्रवाह यथाक्रम चलता रहता और अपना स्तर यथा स्थान बनाये रहता तो उससे-भावनात्मक महानता की स्थिति उत्कृष्ट स्थिति में ही बनी रहती।

दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि पतन के सर्वभक्षी आक्रमण से संगीत भी बच नहीं सका। वह योगाभ्यास से नीचे उतरा और कला बना। इससे भी नीचे गिरा तो नट विद्या मात्र बनकर रह गया। आज वह इसी दयनीय दुर्दशा की स्थिति में पड़ा है।

संगीत को कला इसलिए बनना पड़ा कि वह लोक रुचि के पीछे चलकर आजीविका और प्रशंसा का माध्यम बन सके। यहाँ तक भी गनीमत थी। अन्य व्यवसायों की तरह ही संगीत भी किन्हीं पेशेवरों का पेशा रहे तो उन्हें व्यवहारिक जीवन की एक आवश्यकता मानकर गायक वादकों को साधक तो नहीं पर श्रमजीवी कहा जा सकता था। दुःखद स्थिति तब उत्पन्न हुई जब वह साधना तो दूर कला भी न रही और कुत्साओं के हाथ का खिलौना बनकर व्यसनी और व्यभिचारियों की तुष्टि-पुष्टि के काम आने वाली एक नशा भर बनकर रह गया। सामंतों और अमीरों की पशु प्रवृत्ति को अधिकाधिक उत्तेजित करने और उनके ‘पशु’ को अधिकाधिक उग्र बनाने भर के लिए जब उसने अपनी आत्मा को बेच दिया तो उस तत्त्वदर्शी की आत्मा बिलख-बिलख कर रोई होगी जिसने स्वर विज्ञान द्वारा नर को नारायण बनाने के सपने देखे होगे

मध्यकाल में संगीत अमीरों और बादशाहों का क्रीतदास था उसे उन्हीं के यहाँ आश्रय मिलता था। जनता की कुरुचि के बीच भी उसे स्थान मिला। इससे संगीत को धन और सुविधा साधन तो मिले-सस्ती वाहवाही भी हाथ लगी पर इसके लिए उसे महँगा मूल्य चुकाना पड़ा। ‘पीर को बावर्ची , भिश्ती को अन्ततः ‘खर’ बन जाना वस्तुतः एक दुःखद प्रसंग ही है। पुरोहित का यह पतन लौकिक दृष्टि से सुविधाजनक भले ही प्रतीत हो पर स्तर में आसमान से पाताल में जा गिरने जैसी यह दुर्दशा हर दृष्टि से लज्जाप्रद और दुर्भाग्य पूर्ण ही मानी जाएगी

अपने समाज में भगवद् भक्ति का भावोद्दीपक मनुष्य के देवत्व के जागरण का अविच्छिन्न अवलम्बन माना जाता रहा है। तदनुसार सन्तों, ब्राह्मणों, मनीषियों, धर्मोपदेशकों को भूसुर कहकर उनकी चरण धूलि मस्तक पर चढ़ाने की परम्परा रही है। संगीतकार इसी पंक्ति में बैठता था उसकी गणना इसी वर्ग में की जाती थी। स्वर साधक को योग-साधकों के बीच ही माना जाता था, उसे वैसी ही श्रद्धा प्रदान की जाती थी । कहना न होगा कि कभी किसी श्रद्धास्पद को रोजी-रोटी की शिकायत नहीं करनी पड़ी। रोटी की चिन्ता ने उन्हीं को खाया है जो आत्म विस्मरण के गर्त में गिर चुके। रोटी के नाम पर दौलत की हविस इन्हें सताती है जिन्होंने आन्तरिक गरिमा का विसर्जन करके विलासताओं ,लिप्साओं और अहंता की भौतिक तृप्ति के लिए व्याकुल रहने की दुष्प्रवृत्ति अपना लीं। कोई भी क्यों न हो- भले ही वह संगीतकार ही क्यों न हो इस स्तर पर उतरेगा तो वह अपना ही नहीं अपने संपर्क में आने वाले को भी पतन के गर्त में धकेलेगा।

इन दिनों कामुकता भड़काने वाली दृष्प्रवृत्तियों का ही दूसरा नाम संगीत बन गया है। स्वर साधना अब कला भी नहीं रही, वह नटनी, नर्तकी, गायकी वेश्या हरजाई है। उसका तन अब हर कोठे पर किसी भी कोढ़ी के आगे प्रमाणित होने के लिए सजा बैठा है। सन्त परम्परा-सामंतों के आश्रय में विकृत हुई तो अब हर कुत्साएं भड़काने वाली विडम्बना मात्र रह गई हैं। धन, वैभव तो वेश्याएँ भी कमाती हैं, तालियाँ बजने और वाहवाही सुनने का लाभ तो नग्निकाओं और विष कन्याओं को भी मिल जाता है ऐसी ही प्रशंसा यदि आधुनिक गीत वाद्य की कला को मिले तो उसे नियति का क्रूर व्यंग ही समझा जाना चाहिए। संगीत में सम्मोहन है। इसे ऋषियों के हाथ में ही रहना चाहिए। कुत्साओं की खिलवाड़ के लिए उसका प्रयुक्त किया जाना जनजीवन को विषपान ही करा सकता है। प्राणियों का वध करो के लिए अहेरी और सपेरे भी प्रयोग करते हैं। हिरनों को, साँपों को पकड़ने के लिए भी संगीत सम्मोहन का प्रयोग होता है पर वह न शुभ है और न श्रेयस्कर। शालीनता की दृष्टि से यह उचित नहीं कहा जा सकता कि संगीत जैसे शब्द योग को दौलत अथवा वाहवाही लूटने के प्रलोभन में लोक मानस का विनाश करने में प्रयोग किया जाय।

कामुकता एवं कुत्सा भड़काने जैसे दुष्ट प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया गया स्वर कितना अहितकर होता है इसकी एक कथा शतपथ ब्राह्मण में इस प्रकार आती है- त्वष्टा ऋषि ने ऋचा का उच्चारण करने में भूल की, उसका अवांछनीय रीति से दुरुपयोग किया। इसका फल बड़ा विपरीत निकला। त्वष्टा ने जिस प्रयोजन के लिए उच्चारण किया था वह तो पूरा न हुआ वरन् वृत्तासुर नामक एक देवघाती विकट महादैत्य उपज कर खड़ा हो गया और उसने भयंकर विभीषिकाएँ उत्पन्न कर दीं। आज ऐसे ही संगीत के दुरुपयोग ने समाज में अवांछनीय परिस्थितियाँ उत्पन्न की है।

जब कुत्साओं का पर्यायवाची संगीत बन गया तो विज्ञ समाज में उसकी सर्वत्र भर्त्सना की जाने लगी। औरंगजेब ने एक बार अपने राज्य में वाद्ययन्त्रों का जनाजा निकाल कर उन्हें कब्रिस्तान में दफना देने का आदेश दिया था और संगीतकारों को जन मानस को विलासी एवं पतनोन्मुख बनाने का अपराधी घोषित करके उन्हें देश निकाले की सजा दी थी।

पतनोन्मुख वासना प्रिय विलासी संगीत को भारतीय धर्म ग्रन्थों में भी घृणित त्याज्य एवं गर्हित घोषित किया है और इस प्रकार के विष मिश्रित दूध को पीने से बचने के लिए ही सर्वसाधारण को निर्देश दिया है। ऐसे अनेक अभिवचन यत्र-तत्र भरे पड़े है।

सम्भ्रान्त विज्ञ व्यक्तियों को भगवान मनु ने संगीत व्यसन से दूर रहने का परामर्श दिया है।

कामं क्रोधे च लोभं च नर्तन गीत वादनम्।

-मनु0 2।17

न नृत्येदथ्वा गायेत्र वादि-त्राणि वादयेत्। मनु 4।64

इन अभिवचनों से काम, क्रोध, लोभ जैसे दुर्गुणों की पंक्ति में ही गीत-नृत्य की गणना की गई है और उनसे बचने की शिक्षा दी गई है।

आगे चलकर उन्होंने संगीत जीवी व्यक्ति को अनाचारी, अधर्म, गर्हित, बताते हुए कहा है कि न तो उनके साथ पंक्ति में बैठकर भोजन करें और न उनका अत्र जल ही ग्रहण करें। उन्हें ब्राह्मण होने पर भी शूद्रवत् समझे। यह अभिप्राय व्यक्त करने वाले मनुस्मृति में निम्न श्लोक हैं-

कुशील वो ऽ वकीर्णी च वृषली पति रवेच।

एतान् विगर्हिताचाराना पांक्तेयान् द्विजा धमान्।

द्विजाति प्रवरो विद्वानुभयत्र विवर्जयेत्।

-मनु0 3।155,167

स्तेन गायक योश्चात्र तक्ष्णों वार्धुषिकस्य च।

-मनु0 4।210

प्रेप्यन् वाधु षिकांश्चैव व्रिपान शूद्र वदाचरेत्।

8।102

ब्राह्मणो नैव गायेत्र नृत्येत्।

ब्राह्मण न तो गाये और न नाचे।

मनुस्मृति में नृत्य गान वाद्य को ‘तौर्यत्रिक’ संज्ञा देते हुए उसे त्याज्य कागज व्यसन कहा गया है।

तौर्यत्रिकं वृथाटया च कामजो दशको गणः।

- मनु0 7।47

व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत्।

- मनु0 7।4 5

इन दोनों ही निर्देशों में संगीत की भर्त्सना की गई है और उससे बचने के लिए कहा गया है।

संगीतकारों की गवाही को राजदरबारों में अप्रामाणिक मानने की बात मनु भगवान ने कहीं है और उन्हें अविश्वस्त ठहराया है।

न साक्षी नृपतिः कार्यो न कारुक कुशीलवौ। मनु 8।65

इसका कारण बताते हुए टीकाकारों ने बताया है कि वे लोभ, मोह में पड़कर अविश्वस्त आचरण कर सकते हैं। इसलिए उन्हें अप्रामाणिक माना जाय। यही मत याज्ञवल्क्य स्मृति 3।70 में नारद स्मृति 1।4।146 में व्यक्त किया गया है।

पद्मपुराण भूमि खण्ड 75।30 में राजा ययाति के महान् व्यक्तित्व और आदर्श राज्य का वर्णन किया गया है। साथ ही उनके पतन का कारण गीत वाद्य में रुचि लेने लगना भी बताया है।

कामस्य गीत लास्येन हास्येन ललितेन च।

मोहितो राज राजेन्द्रः काम संसक्त मानसः।

- पद्य पु॰ भू॰ ख॰ 77।1

कामुक गीत, वाद्य, नृत्य, हास्य विलास में राजा ययाति का मन मोहित हो गया और वे अपनी गरिमा खो बैठे।

श्रीमद्भागवत में साधु को संगीत सीखने , गाने एवं सुनने का निषेध किया गया है और कहा गया है कि इस कुचक्र में फँसकर वे अपनी हिरनों जैसी दुर्गति न करायें।

ग्राम्यगीतं न श्ररगुयाद् यतिर्वनचरः क्वचित्

शिक्षेत् हरिणाद् वद्धान् सृगयो गीत मोहितम्।

भागवत् 11-8।17

अगले श्लोक में इसका प्रमाण देते हुए भागवतकार ने बताया है कि शृंगी ऋषि का पतन इसी कुचक्र में फँसने के कारण हुआ था।

बाणभट्ट ने अपने कादम्बरी ग्रन्थ में चन्द्रापीड आदर्श राज्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि उस राज्य में ‘एणकानाँ गीत व्यसनम्’ हिरनों के अतिरिक्त और किसी को संगीत का व्यसन नहीं है।

वाल्मीकि रामायण में रावण की स्त्रियों के अनेक दूषणों में से एक यह भी गिनाया है कि वे संगीत परायण थीं।

नृत्य वादित्र कुशला राक्षसेन्द्र भुजाडकगाः।

-बा० रा० सुन्दर काण्ड 10।32

काचिद् वीणाँ परिष्वज्य प्रसुप्ता सम्प्रकाशिते।

10।37

अन्या कक्ष गते नैव मडडु के नासिते क्षणा।

10।38

विपंची परिगह्यान्याँ नियता नृत्य शलिनी।

इन सभी विवरणों में राक्षसियों को नाचने, गाने वाली, अनेक प्रकार के वाद्य यन्त्रों के साथ लटकाये रहना वाली, उन्हें साथ लेकर सोने वाली बताया गया है।

एक ओर असुर ललनाओं की इस काम संगीत व्यसन से ग्रस्त स्थिति का वर्णन है। दूसरी ओर भगवान राम भरत जी को अयोध्याकाण्ड 100।68 में संगीत व्यसन से सर्वथा दूर रहने का उपदेश देते हैं।

गायक वादकैश्चानथ्यैः संयोगः कामः।

-कौटिल्य अर्थशास्त्र 8।1।4

अर्थात् गायन, वादन कामोत्तेजक और अनर्थमूलक हैं।

नट नर्तकी विट वेश्याकुनृपेष्व नृताडम्बरं वक्तव्यः।

-वार्हस्पत्य अर्थशास्त्र 1-54

आचार्य बृहस्पति ने नट, नर्तक, वेश्या, कुनृप को समतुल्य रखते हुए इन आडम्बरों की भर्त्सना की है।

भरत नाट्य शास्त्र में संगीत को तीन भागों में विभक्त माना है-

“गीतं वाद्यं नर्तनं च त्रयं संगीत मुच्यंते”।

अर्थात् गाना, बजाना और नाचना तीनों को संगीत कहते हैं।

इसी ग्रन्थ के अन्त में उल्लेख है ऋषियों ने संगीत को शाप दिया और उसे शूद्रों का कार्य घोषित किया।

निब्रह्यणों निराभूतः शूद्रा चारो भविष्यति।’

36।34

अर्थात् वह विज्ञ व्यक्तियों से तिरष्कृत होगा एवं शूद्रों द्वारा अपनाया जाएगा

क्षेमेन्द्र रचित कला विलास ग्रन्थ में नृत्य गीतकारों को जनता के धन का अपव्यय कराने वाला और अर्थ व्यवस्था को नष्ट भ्रष्ट करने वाला बताया है-

अर्थो नाम जनानां जीवित मखिल क्रिया कलापस्य।

तं संहरन्ति धूर्ता छगल गला गायका लोके॥1॥

निःशेष कमला कर कोषं अग्ध्वापि कुमुदमा-स्वाद्य-क्षीणा गायन भृंगा मातंगा प्रणयतां यान्ति ॥2॥

अर्थात्-धन मानव जीवन की एक आवश्यकता है। पर बकरे के गले में लटकने वाले निरर्थक थन की तरह यह निकम्मे गायक, नर्तक उसे ऐसे ही झटक ले जाते हैं। ये लोग लक्ष्मी का भी खजाना खाली कर सकते हैं। निरन्तर फूलों का रस चूसते रहने पर भी अतृप्त ही रहते हैं। मत्त लोगों को ढूँढ़कर उनके वे मित्र बने रहने का प्रपञ्च रचते हैं।

चारुचर्या ग्रन्थ में गीत, वाद्य, विलास, व्यसनों की निन्दा करते हुए इन्हें शत्रु के समान घातक बताया गया है-

न गीत वाद्याभि रर्तिर्विलास व्यसनी भवेत्।

बीणा विनोद व्यसनी वत्सेशः शत्रुणा हतः।

उपरोक्त अभिवचनों में केवल कुत्सित संगीत की-वासना भड़काने में संलग्न कुरुचिपूर्ण संगीतकारों की ही भर्त्सना की गई है। सत्संगीत पर इस प्रकार के आक्षेप नहीं है। वह तो जन जीवन में भावनात्मक उत्कर्ष का ही पथ प्रशस्त कर सकता है। संसार भर के मनीषियों ने सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त होने वाले संगीत की महत्ता और आवश्यकता का एक स्वर से प्रतिपादन किया है। इस प्रकार के अभिवचनों में से कुछ इस प्रकार है-

संगीत से आत्मा की मलीनता धुलती है -आवेर वेच

गहराई में उतरो तुम्हें हर पदार्थ के अन्त में एक दिव्य संगीत उभरता दिखाई देगा। -कार्लाईल

संगीत आत्मा के ताप को शान्त कर सकता है -महात्मा गाँधी

संगीत में क्रूर हृदयं को भी कोमल बनाने वाला जादू भरा पड़ा है -जेम्स वाटसन

कितने ही महामानवों ने संगीत के सम्बन्ध में अपना अभिप्राय इस प्रकार व्यक्त किया है-

संगीत मानव की विश्व भाषा है। - लाँग फैलो

संगीत के पीछे-पीछे खुदा चलता है -शेखसादी

संगीत टूटे हुए हृदय की औषधि है -ए॰ हन्ट

संसार मुझसे चित्रों में बात करता है - मेरी आत्मा उसका उत्तर संगीत में देती है-रवीन्द्रनाथ

संगीत अपने मूल उद्देश्य को पूरा कर सके, अपने सनातन स्वरूप को स्थिर रख सके इसके लिए हमें पूरा प्रयत्न करना चाहिए और उसे सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त होने देना चाहिए।


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