भगवती गंगा की दिव्य प्रवाह

March 1973

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मोटी दृष्टि से हर नदी एक जलधारा मात्र है। पर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर उनके साथ जुड़े हुए गुणों का प्रभाव और परिचय प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। हिमालय यों एक पहाड़ मात्र है पर दिव्य दर्शियों ने उसमें आध्यात्मिक दिव्यता का प्रकाश देखा है, और उसके संपर्क में आकर आशातीत लाभ भी उठाया है। मेरी दृष्टि में हिमालय भी पत्थर , नदी, नाले, बरफ, वृक्ष, वनस्पति, पशु-पक्षियों का स्थल मात्र है पर उसकी आध्यात्मिक गरिमा इतनी असाधारण है कि उस क्षेत्र के सम्पर्क में आकर न जाने किस-किस ने क्या क्या पाया है।

देखने में सभी नदियाँ लगभग एक सी लगती हैं। जल की मात्रा एवं उपयोगिता की दृष्टि से उन्हें न्यूनाधिक महत्त्व भी मिलता है। पर आध्यात्मिक विशेषता उनमें से हर किसी में नहीं जन्मती गंगा भी यों एक नदी ही है और उसमें भी अन्यों जैसा ही जल बहता है। पर उसके अन्तराल में दिव्य प्रवाह का जो अजस्र स्रोत जुड़ा हुआ है उसके कारण उसमें प्रत्यक्ष देवत्व आ गया है। इस प्रभाव को कोई भी भावनाशील व्यक्ति अनुभव कर सकता है।

गंगा के दर्शन, आचमन, पान मात्र से पवित्रता का संचार होता है। गंगा जल को वर्षा तक रखे रहने पर भी उसका न सड़ना उसमें स्वास्थ्य वर्धक तत्त्वों का बाहुल्य रहना जैसी भौतिक विशेषताएँ तो अति सामान्य हैं। मूल लाभ है उसके साथ जुड़ा हुआ दिव्य प्रभाव। कुछ प्रदेश जलवायु की दृष्टि से बड़े उपयोगी माने जाते हैं। और लोग वहाँ आरोग्य लाभ करने की दृष्टि से जाते रहते हैं। गंगा तट आत्मिक आरोग्य लाभ करने की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण है। वहाँ जितनी शान्ति मिलती है एकाग्रता एवं स्थिरता रहती है उतनी अन्यत्र दुर्लभ है।

आत्म शान्ति एवं तप साधना की सफलता के लिए गंगा तट का निवास-गंगाजल पान, गंगाजल स्नान अमोघ आधार है। जिनके लिए जितने समय तक इस प्रकार का लाभ उठा सकना संभव हो उन्हें उसके लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।

गंगाजल का आध्यात्मिक महत्त्व शास्त्रों में इस प्रकार बताया गया है-

यत्र गंगा महाभागा स देशस्तत्तपोवनम्।

सिद्धक्षेत्रन्तु तज्ज्ञेयं गंगातीरं समाश्रितम्॥

कूर्मपुराण 47

जहाँ पर यह महाभाग गंगा है वह देश उसका तपोवन होता है। उसको सिद्ध जानना चाहिए।

स्नातानां तत्र पयसि गागें ये नियतात्मनाम्

त्ष्टीर्भवति या पुंसां न सा क्रतुशतैरपि।2।

पद्य पुराण

गंगा के जल में स्नान किये हुए नियत आत्मा वाले पुरुषों को जो तुष्टि होती है वह सौ बसन्त ऋतुओं से भी नहीं होती है। 20।

भुक्तिमुक्तिप्रदा गंगा सुखमोक्षाग्रतः स्थिता।

अनेकजन्मसंघातपांप पुं सांविनश्यति॥ 28॥

पद्य पुराण

मनुष्यों के समक्ष भक्ति और मुक्ति प्रदान करने वाली सुख से ही मोक्ष कारिणी गंगा स्थित है। इस महा महिमामयी गंगा के प्रभाव से मनुष्यों के अनेक जन्मों के पापों का संघात नष्ट हो जाता है॥28॥

सम्प्राप्नोत्यक्षयं स्वर्ग गंगास्नानेन केशवम्।

यशों राज्यं लभेत्पुण्यं र्स्वगमन्ते परां गातिम् ॥5

पद्य पुराण

गंगा के जल में स्नान करने की बहुत बड़ी महिमा है। इसके करने से कभी नाश को न प्राप्त होने वाला स्वर्ग लोक का निवास मिल जाता है, भगवान श्री केशव के चरणों की प्राप्ति होती है, संसार में उत्तम यश प्राप्त होता है, राज्य का लाभ होता है और महान् पुण्य मिलता है तथा अन्त समय में स्वर्गलोक और परा गति होती है॥5॥

मुनयः सिद्धगन्धर्वा ये चान्ये सुरसत्तमाः।

गड.गतीरे तपस्तप्त्वा र्स्वगलोकेऽच्युताभवन्।11

पारिजातसमाः पुष्पवृक्षाः कल्पद्रु मोपमाः।

गंग्गाँतीरे तपस्तप्त्वा तत्रैर्श्वय लभन्ति हि।12।

तपोभिर्बहुभिर्यज्ञैर्प्रतैर्नानाविधैस्ताथा।

पुरुदानैर्गतिर्या च गंगा संसेवतां च सा॥13।

पद्य पुराण

मुनिगण- सिद्ध लोग- गन्धर्व वृन्द और जो अन्य देवों में परम श्रेष्ठ है वे गंगा के तट पर तपस्या करके स्वर्ग लोक में स्थायी रूप से निवास प्राप्त कर अच्युत होते ही वहाँ रहते है॥11॥ गंगा के तट पर तपश्चर्या करके वहाँ पर परम ऐश्वर्य का लाभ लिया करते हैं क्योंकि वहाँ पर जो पुष्पों वाले वृक्ष है वे पारिजात (देवतरु) के समान हैं और समस्त मनोकामना पूर्ण कर देने वाले कल्प वृक्षों के तुल्य होते है॥12॥ बहुत प्रकार के तपों से-यज्ञ और नानाप्रकार के व्रतों से तथा अधिक दानों से जो मनुष्य को गति प्राप्त होती है वही गति भागीरथी गंगा के जल में स्नानादि से प्राप्त होती है अतः इस गंगा की भली-भाँति सेवन करना चाहिए॥13॥

नास्ति विष्रगुसमं ध्येयं तपो नानशनात्परम्।

नास्त्यारोग्यसमं धन्यं नास्ति गंगासमा सरित्।

अग्नि पुराण

भगवान के समान काई आश्रय नहीं। उपवास के समान तप नहीं। आरोग्य के समान सुख नहीं । और गंगा के समान कोई जल तीर्थ नहीं है।

येषां मध्ये याति गंगा ते देशाः पावना वराः।

गतिर्गगा तु भूतानां गतिमन्वेषतां सदा।

गंगा तारयते चाभौ वंशौ नित्यं हि सेविता॥

गंगातीर्थ समुद्भूतमृद्वारी सोऽघटार्कतव्।

दर्शनात्स्पर्शनात्पानात्तथा गगंतिकीर्तनाँत्।

पुनाति पुण्यपुरुषाञछततशोऽथ सहस्रशः॥

अग्नि पुराण (गंगा)

जिन क्षेत्रों में होकर गंगा जाती है वे पवित्र है। गंगा सद् गति देने वाली है। जो उसका नित्य सेवन करते हैं वे अपने वंश सहित तर जाते हैं।

गंगा तट की मिट्टी धारण करना। गंगा दर्शन, गंगा स्नान, गंगा जल पान, गंगा नाम का जप करने से असंख्य मनुष्य पवित्र और पुण्यवान हुए है।

प्रधानांशस्वरुपा सा गंगा भुवनपावनो।

विष्णुविग्रहसंभूता द्रवरुपा सनातनी॥

पापिपापेध्मदाहाय ज्वलदग्नि रुवरुपिणी।

सुखस्पर्शा स्नानपानैर्निर्वाणपददायिनी॥

गोलोकस्थानप्रस्थानमुखसोपान रुपिणी।

देवी भगवत

विष्णु भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई परम पावनी गंगा तुम्हारा ही द्रव स्वरूप है। वह गंगा पापियों के पाप नाश करने में अग्नि ज्वाला के समान तथा निर्वाण पद देने में समर्थ वह तुम्हारे ही कारण है।

गंगायांच मृतोः स्वर्ग मोक्षचविन्दति।

या गातिर्योगयुक्तस्य सत्वस्थस्यमनीषिणः॥

सा गतिस्त्यजतः प्राणान्गडूयां तू शरीरिणः।

चान्द्रायणसहस्त्राणि यश्चरेत्कायशोधनम्॥

पानम् कुर्याद्यथेच्छ च गंगाम्भःस विशिष्यते।

पद्य पुराण

गंगा के समीप में मृत्यु को प्राप्त होने वाला मनुष्य स्वर्ग का निवास और मोक्ष दोनों का लाभ प्राप्त किया करता है। जो गति योगाभ्यास में निरन्तर निरत एक योगी पुरुष की होती है और सत्व में सुस्थित एक महा मनीषी पुरुष की गति हुआ करती है वह गति उस पुरुष की भी होती है जो गंगा के तट पर अपने प्राणों का त्याग किया करता है। एक सशस्त्र चांद्रायण महाव्रत करके जो काया की शुद्धि की जाती है उससे भी अधिक यथेच्छ रूप से गंगा के जल का पान करने से होती है।

यद्यकार्यशतम् कृत्वाकृत्तम गंगाभिषेचनम्।

सर्वतत् तस्य गंगाम्भो दहत्यग्निरिवेन्धनम्॥

सर्व कृतयुगे पुण्यम् त्रेतायां पुष्करं स्मृतम्।

द्वापरेऽपि कुरुक्षेत्र गंगा कलियुगे स्मृता॥

-महाभारत

जैसे अग्नि ईंधन को जला देती है, उसी प्रकार सैकड़ों निषिद्ध कर्म करके भी यदि गंगा स्नान किया जाय तो उसका जल उन सब पापों को भस्म कर देता है। सतयुग में सभी तीर्थ पुण्य दायक होते हैं। त्रेता में पुष्कर का महत्त्व है। द्वापर में कुरुक्षेत्र विशेष पुण्य दायक है और कलि-युग में गंगा की अधिक महिमा बतायी गयी है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118