आत्मा का अस्तित्व-सत्य और तथ्य

February 1969

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पुनर्जन्म की सैकड़ों घटनायें आयें दिन आती रहती है। भारतवर्ष में तो उनकी बहुतायत है पर इस्लाम और ईसाई धर्मावलम्बी देशों में भी पुनर्जन्म की अनेक घटनायें घटी तो पाश्चात्य वैज्ञानिकों को यह सोचने के लिए विवश होना पड़ा कि क्या आत्मा का कोई अस्तित्व भी है। भारतवर्ष में ही उसकी व्यापक खोज की जा रही है, किन्तु अभी लोगों की मान्यताएँ स्पष्ट नहीं हुई।

परामनोविज्ञानी पुनर्जन्म की घटनाओं को पदार्थ का रूपान्तर मानता है। उनके अनुसार शरीर में जो जीन्स होते है, उनमें स्मृतियाँ विद्यमान् रहती है। मरने के बाद शरीर नष्ट हो जाता है पर जीन्स नहीं होते। उनका रूपान्तर होता है। राख बन जाते है। राख मिट्टी में मिल जाती है, मिट्टी से वही जीन्स किसी वृक्ष में चले जाते है, वृक्ष के पत्ते फल या दानों में वही जीन्स पहुँच जाते है। फल कोई मनुष्य खा लेता है और जीन्स वीर्य में परिवर्तित हो जाते है फिर उससे किसी बालक का जन्म होता है। बालक के स्मृति पटल (सेरोबोलम) में पहुँचकर वही जीन्स जब जागृत हो उठता है तो संयोग वश यदाकदा उसे वह घटनायें भी याद हो आती है, जो पूर्व जन्म के शरीर में थीं। इस तरह परामनो-विज्ञान की मान्यता यह है कि पुनर्जन्म जीन्स का होता है, आत्मा नामक कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इस तरह पुनर्जन्म के सिद्धान्त को पाश्चात्य अनुसंधान केन्द्रों ने काट दिया और उसके द्वारा आत्मा के अस्तित्व को मानने के इनकार कर दिया।

भारतीय दर्शन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है। हमारा उपनिषदकार कहता है-

अंगुष्ठ मात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति। ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते॥

एतर्द्व तत्।

अगुड मात्रः पुरुषो ज्योतिरिवा यूमकः। ईशानो भूतमध्यस्य स एचाद्य स उक्ष्यः॥

-कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय

प्रथम बल्ली, 12।13

अर्थात्-यह आत्मा ही वह परमेश्वर है, जिसे जान लेने पर मनुष्य किसी की निन्दा नहीं करता। वह परम पुरुष अंगुष्ठ मात्र देह में स्थित होकर भूत भविष्यत् आदिकाल में सब पर शासन करता है। यही वह परमेश्वर है, जो आज भी है, कल भी रहेगा। वह अमुख प्रमाण परिणाम वाला पुरुष निर्धूम ज्योति (अत्यन्त उज्ज्वल प्रकाश) के समान है एवं भूत, भविष्यत् सब कालों पर शासन करता है।

यदि ऐसी विराट्-शक्ति में स्थित है तो उसकी अनुभूति क्यों नहीं होती? उकसा कारण इसी उपनिषद् के प्रथम अध्याय की तीसरी बल्ली में इस प्रकार बताया गया हैं-

एथ सर्वेसु गूढोत्मा प्रकाशते। दृश्यते त्वग्रया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदशिनि॥

-तीसरी बल्ली, 12,

ड़ड़डड़ ड़ड़ड़ड़ड़ ड़ड़ड़डत्र

ड़ड़ड़़ड़ ड़डड़ड़ ड़़ड़ड़ड़ डड़ड़ड़

-तीसरी वल्ली,7,

अर्थात्-परमात्मा सभी में आत्मा के रूप में देहधारियों में निवास करता हुआ भी अपनी माया से आच्छादित रहने के कारण प्रकट नहीं होता। केवल सूक्ष्म दर्शियों को ही सूक्ष्म बुद्धि द्वारा दर्शन देता है। अविवेकी बुद्धि और असंयत मन वाला अपवित्र हृदय मनुष्य जन्म मृत्यु के चक्र में घूमता रहता है और परमपद को कभी प्राप्त नहीं कर सकता।

अब इस दृष्टि से जब विचार करते है और पुनर्जन्म की घटनाओं की विवाद-ग्रस्त पाते है तो आत्मा के अस्तित्व के प्रमाण के लिए अन्य सूत्रों की खोज करनी पड़ी। इन सूत्रों को दो भागों में बाँटते है-(1) आत्मा की जानकारी सम्बन्धी वैज्ञानिकों की खोजें और उनके निष्कर्ष, (2) भूत और प्रेत का अस्तित्व। इन दोनों स्थितियों के कुछ ऐसे तथ्य सामने आये है, जिनसे आत्मा के सम्बन्ध में कहे गये, कठोपनिषद् के कथन नितान्त सत्य साबित होते है।

इंग्लैण्ड की राजधानी लन्दन के प्रख्यात सेट जेम्स अस्पताल के डाक्टर डब्ल्यू. जे. किन्नर को एक बार आत्मा के अस्तित्व को जानने की तीव्र जिज्ञासा पैदा हुई। यह जिज्ञासा एक आकस्मिक घटना के कारण हुई। एक दिन जब वे अस्पताल में रोगियों का परीक्षण कर रहे थे तो खुर्दबीन पर एक विशेष प्रकार की रंग जम गया। वह विशेष रासायनिक रंग था, जो इतना दुर्लभ था कि सेंट जेम्स तो दूर शायद इंग्लैण्ड की किसी भी प्रयोग शाला में उसका उपलब्ध होना कठिन था। वह रंग कहाँ से आया इस पर बहुत खोज की पर उस सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका।

दूसरे दिन वे अपने एक रोगी के कपड़े उतरवा कर खुर्दबीन से उसके शरीर की जाँच कर रहे थे तो वह यह देखकर स्तब्ध रह गये कि उसी रासायनिक रग की लहरे शीशे के सामने उड़ रही हैं। कपड़े बिलकुल हटा देने पर उन्होंने पाया कि रोगी के छः-सात इंच की परिधि में वही प्रकाश एक मंडल बनाये हुए स्थित है। यह देखकर वे इतना डर गये कि उनकी अंगुलियाँ काँपने लगी। उन्होंने बहुत जाँच की पर उस प्रकाश को शरीर की किसी अवस्था का परिणाम नहीं पाया। तभी एक और विचित्र घटना हुई। उन्होंने देखा जब यह प्रकाश कुछ तीव्र रहा तब तक रोगी चेतना की सी स्थिति में रहा पर जैसे ही प्रकाश मन्द पड़ना प्रारम्भ हुआ कि रोगी का शरीर भी शिथिल पड़ने लगा। डा. किल्नर बराबर रोगी पर दृष्टि रख रहे थे। वह मरणासन्न था, धीरे धीरे वह प्रकाश न जाने कहाँ विलुप्त हो गया और इसके बाद जब उन्होंने उसकी नाड़ी परीक्षा की तो उसे पूर्ण रूप से मृत पाया। सारा शरीर ठण्डा पड़ चुका था और वहाँ किसी भी प्रकार का रासायनिक रंग शेष नहीं रह गया था।

इस घटना की रिपोर्ट छपी तो सैकड़ों लोग आश्चर्य चकित रह गये। डा. किल्नर ने बाद में दि ह्यूमन एटमाल्फियर नामक पुस्तक लिखी। उसमें उन्होंने वर्तमान भौतिक विज्ञान को चुनौती देने वाले तथ्य प्रस्तुत किये है और यह बताया है कि पश्चिम की यह बड़ी भारी भूल है कि वह जीवन जैसी अमूल्य और वास्तविक वस्तु की खोज करने की अपेक्षा जड़ वस्तुओं के चक्कर में पड़ा अपना अहित कर रहा है। अमेरिका के विलियन मैक्डूगल का ध्यान भी इस ओर आकर्षित हुआ और उन्होंने भी आत्मा के अस्तित्व को जानने के लिए प्रयोग प्रारम्भ कर दिये उन्होंने रोगियों का वजन लेने के लिए एक ग्राम से भी सैकड़ों अंश कम भार को भी तौल सके। एक बार एक मरणासन्न रोगी को उसमें लिटाकर वजन लिया। उसके फेफड़ों में कितनी साँस रहती है, उसका तौल पहले ले लिया। कपड़ों सहित पलंग का वजन भी तैयार था। रोगी को जो भी औषधि दी गई, उसका तौल तराजू की सुई बराबर बताती रहती थी।

जब तक रोगी जीवित रहा तब तक वह सुई बराबर एक स्थान पर टिकी रही पर जिस क्षण उसके प्राण निकले सुई पीछे हटकर टिक गयी और जब अंक पड़े गये तो वह यह देखा गया कि 1 ओस (आधी छटाँक) वजन कम हो गया है। बाद में भी उन्होंने जितने भी मरणासन्न रोगियों पर यह प्रयोग किया, चौथाई औसत से लेकर डेढ़ औसत तक वजन कम पाया। उन्होंने इस सिद्धान्त की पुष्टि की कि शरीर में कोई अत्यन्त सूक्ष्म तत्व निश्चित रूप से है, वह जीवन का आधार है, उसकी तौल भी उन्होंने उपरोक्त प्रकार के परीक्षणों से प्राप्त की। लाँस एन्जिल्स के प्रोफेसर टवाहनिंग और कार्नल विश्व विद्यालय के डा. ओटो रान ने भी ऐसे प्रयोग किया 1936 में डा. रान ने अपने प्रयोगों के आधार पर लिखा कि इसमें सन्देह नहीं है कि प्रत्येक जीवित मनुष्य के चारों ओर कुछ रहस्य मय किरणों का आवरण रहता है पर वे मृत्यु के उपरान्त लुप्त हो जाती है। विज्ञान जब तक इन अतिसूक्ष्म प्रकाश कणों को नहीं जान पाता, तब तक वह अधूरा और भ्रामक ही रहेगा, क्योंकि जीवन का आधार इन सूक्ष्म किरणों में सन्निहित है और उसके विकास एवं अनुभूति की प्रणाली भिन्न है।

डा. गेट्स ने एक नई किरणों की खोज की है और उनसे आत्मा के अस्तित्व का पता लगाया है। इन किरणों का रंग कुछ कालापन लिये हुये लाल है, ये कुछ कुछ बनफशई रंग की कही जा सकती है पर इस रंग से इनका रंग कुछ गहरा होता है। ‘एक्स रेज’ जिस रंग की होती है, यह भी उनसे कुछ कुछ मिलती जुलती सी है, किन्तु कई बातों में इनका एक्सरेज से बिलकुल सम्बन्ध नहीं है। इनमें जो देदीप्यमान शक्ति रहती है वह अँधेरे में नहीं दिख पड़ती, उनके प्रकाश को मनुष्य आँख से नहीं देख सकता। किन्तु उन्होंने कमरे की दीवारों में रोडापसिन नामक एक पदार्थ का लेप किया तो देख कि इन किरणों के प्रभाव से उसका रंग बदल जाता है। इन किरणों में इतनी जबर्दस्त पारदर्शिता देखी गई कि वे हड्डी, धातु, लकड़ी और पत्थर को भी पार करके चमकने लगती है, यदि इन किरणों को दीवार में डाला जाय और बीच में कोई मनुष्य आ जायें तो उन्होंने देखा कि उसकी छाया स्पष्ट दिखाई देने लगती है। तात्पर्य यह है कि यह किरणों जीवित प्राणी के शरीर का भेद नहीं कर सकती है। यह प्रकाश किरणों डाक्टर गेट्स ने तुरन्त मरे हुए जानवरों की आँखों से इसे प्राप्त किया है उन्होंने जीवित चूहे को गिलास में डालकर इन किरणों का अध्ययन किया पर सबसे ज्यादा पर उसकी छाया पड़ी। जब तक चूहा जीवित रहा छाया बराबर बनी रही पर जैसे ही चूहे के प्राण निकल गये, उसका शरीर भी इन किरणों के लिए पारदर्शी हो गया। ठीक उसी क्षण एक छाया नली के भीतर जिसमें चूहा रखा गया था निकली और मसाला लगी हुई दीवाल की तरफ जाकर कुछ दूर ऊपर लोप हो गई। परीक्षा के समय यह दृश्य दो और अध्यापक भी देखते रहे, उन्होंने इस छाया को दीवार पर ऊपर नीचे जाते हुए अच्छी तरह देखा। अब गेट्स इस प्रयत्न में है कि यह पता लगाया जाय कि जब यह छाया शरीर से निकलकर कहीं लोप हो जाती है, उस समय वह ज्ञान अवस्था में रहती है या नहीं इस सम्बन्ध में यदि कुछ वैज्ञानिक हल निकल सका तो आत्मा के सूक्ष्म अस्तित्व की और अधिक पुष्टि की जा सकेगी। भूत प्रेतों की लीलाएँ वास्तव में इसी तथ्य की पुष्टि करती है, इसका विवरण आगे देंगे

यहाँ यह प्रश्न उठता है कि चूहा जीवित अवस्था में पारदर्शी क्यों नहीं होता। मृत्यु के उपरान्त ही क्यों होता है। डा. गेट्स ने इसका उत्तर देने के लिए गेल्वेनोमीटर (विद्युत्मापक यंत्र) से किसी व्यक्ति के शरीर में संचालित विद्युत तरंगों की शक्ति का मापा और इसके बाद उन किरणों की शक्ति को। शारीरिक बिजली की शक्ति अधिक थी। अब गेट्स ने बताया कि जिस संयम मनुष्य विचार करता है और उसकी नाड़ी और मज्जा तंतु काम करते रहते है, तब तक शरीर में विद्युत प्रवाह बना रहता है। इस प्रवाह की शक्ति अधिक होने के कारण जब यह किरणों उनके पास पहुँचती है तो पीछे धकेल दी जाती है पर जब प्राण विद्युत निकल जाती है तो उनके लिये कोई बाधा नहीं रह जाती। उन्होंने शरीर की इस विद्युत शक्ति को ही आत्मा की प्रकाश शक्ति माना है इस तथ्य से भी बिलकुल इनकार नहीं किया जा सकता।

आत्मा को तौलने और उसे विकिरण से सिद्ध करने की तरह ही उसके फोटो लेने के लिए भी प्रयत्न किये गये है। फ्राँस के डाक्टर हेनरी बारादुक ने एक विशेष कैमरा बनवाया और मृत्यु की फोटो लेने की तैयार की। संयोग से एक बार उनका लड़का बहुत तेजी से ज्वरग्रस्त हुआ। उसके बचने के कोई लक्षण दिखाई न दिये तो इस वैज्ञानिक ने परीक्षण करने की ही बात ठानी ऐसे ही प्रयोग उसने अपनी मरणासन्न पत्नी पर भी किया और एक प्रकार की प्रकाश किरणों की पुष्टि की पर उसके कठोर स्वभाव के कारण फ्राँसीसी ने उसकी उपेक्षा कर दी और उसका सारा उत्साह वही ठण्डा पड़ गया। कैलीफोर्निया के दूसरे डा. एफ. एम. स्ट्रॉ ने तो इस प्रकार एक सार्वजनिक प्रदर्शन ही किया था, जिसमें अख़बार के प्रतिनिधियों ने साधारण कैमरों से कुछ रहस्यमय किरणों के के चित्र प्राप्त किये। सब वैज्ञानिकों ने यह माना कि मनुष्य शरीर में कोई चैतन्य तत्व, कुछ रहस्यमय किरणें, कोई विलक्षण तत्व और प्रकाश है अवश्य पर उसका रहस्य वे नहीं जान पाये।


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