यह भूलना नहीं चाहिये कि प्रगति किसी भी दिशा में क्यों न हो उसका आधार प्रयत्न और पुरुषार्थ द्वारा उत्पन्न शक्ति ही होती है। शक्ति का उपार्जन एवं संचय, यही वह मार्ग है, जिस पर चलते हुए उन्नति के उच्च-शिखर तक पहुँच सकना सम्भव होता है। इस तथ्य, को लोग समझते भी हैं। तद्नुरूप धन-बल शरीर-बल बुद्धि-बल संघ-बल आदि सामर्थ्यों को अपने-अपने ढंग से उपार्जित भी करते हैं। प्रत्यक्ष में यही थोड़े से बल हमारी जानकारी में आते हैं, इसलिये उन्हीं की ओर सर्व-साधारण का ध्यान केन्द्रित रहता है। उन्हीं के उपार्जन में अपनी गतिविधियाँ लगी रहती हैं।
देखते है कि सभी अपने-अपने ढंग से प्रयत्नशील हैं और एक सीमा तक धन, विद्या एवं स्वास्थ्य भी पा लेते हैं। यह उपार्जन दीखता तो है पर उसके द्वारा प्रगति और सुख-शान्ति का जो परिणाम मिलना चाहिये, वह कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। यह उपलब्धियाँ जिनके पास हैं, उन्हें भी दुःखी, शोक-संताप ग्रस्त, उद्विग्न, पतित और हेय स्थिति में पड़ा देखा जाता है। निर्धनों की अपेक्षा धनी, भूखों की अपेक्षा बुद्धिमान्, अस्वस्थ की अपेक्षा बलवान् जब अधिक दुःखी, विक्षुब्ध, पतित और घृणित स्थिति में पड़े दीखते हैं तो शक्ति के तत्व-ज्ञान पर ही सन्देह होने लगता है और शंका उत्पन्न होती है कि कहीं “शक्ति से प्रगति” वाला-सिद्धाँत ही गलत तो नहीं हैं। आज लोगों के पास साधन बहुत हैं, उनके द्वारा विलासिता और विडम्बना का थोड़ा मन बहलाव भी कर लेते हैं पर वह देखा कम ही जाता हे कि उनसे ऐसा समर्थ व्यक्तित्व बना हो जो सुखी, समुन्नत, परिपुष्ट एवं वर्चस्व सम्पन्न, प्रतिभाशाली जीवन जी सकने की परिस्थिति उत्पन्न करे।
इस उलझन का कारण एक ही है कि एक महत्वपूर्ण बल जो उन सब का प्राण है, हमारे पास नहीं होता, फलस्वरूप धन, बुद्धि, स्वास्थ्य, संघ आदि की सामर्थ्य भी क्रमबद्ध जीवन-विकास कर सकने ओर जो उपलब्ध है, उसका समुचित लाभ एवं आनन्द उठा सकने से वंचित रह जाना पड़ता हे। इस सर्वोपरि सर्व-समर्थ बल का नाम है-आत्म-बल आत्म-बल के अभाव से सारी भौतिक सामर्थ्य तथा उपलब्धियाँ केवल भार बनकर रह जाती है। केवल बलवान् होना ही काफी नहीं। बलों का सही दिशा में सदुपयोग होना ही वह कौशल है, जिसके आधार पर समर्थता का लाभ उठाया जा सकता है। अपव्यय अथवा दुरुपयोग से तो बहुमूल्य साधन भी निरर्थक ही नहीं हानिकारक तक बन जाते हे। अतएव धन, बुद्धि, स्वास्थ्य आदि शक्तियों के ऊपर नियन्त्रण करने और उन्हें सही दिशा में प्रयुक्त करने वाली एक केन्द्रीय समर्थता भी होनी चाहिये कहना न होगा कि इस समर्थता का नाम-आत्म-बल है।
आत्म-बल के अभाव में वह विवेक-बुद्धि जागृत नहीं होती, जो वासनात्मक इन्द्रिय असंयम पर- तृष्णात्मक, अनियन्त्रित एवं आलस्य, प्रचारात्मक, मानसिक असंयम पर नियन्त्रण कर सके। अन्तःकरण में विद्यमान् दैवी और आसुरी शक्तियों में से आसुरी शक्तियों का उभार तीव्र होता है, वे निकृष्ट स्वार्थ की पूर्ति के लिये दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिये प्रेरणा देती रहती हैं, उनके ऊपर नियन्त्रण करना भी बिना आत्म-बल के सम्भव नहीं। इन्द्रियाँ, मन और अन्तःकरण में विद्यमान् आसुरी सत्त दुर्बुद्धि का रूप धारण कर हमारे कठोर परिश्रम द्वारा उपार्जित सामर्थ्यों को अपव्यय एवं दुर्व्यय की ओर धकेल देती है, जब दिशा सही नहीं तो सुख-शान्ति एवं प्रगति की प्रबल आकांक्षा को पूरा करने के लिये हम अपनी समझ के अनुसार निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं, फिर भी दुर्भाग्यवश खाली हाथ ही रहना पड़ता है।
इच्छा और प्रयत्न रहते हुए भी लक्ष्य प्राप्त न हो इस पहेली का समाधान करते हुए इस रहस्य को समझना होगा कि भौतिक जीवन के ऊपर एक महान सत्तावादी आध्यात्मिक जीवन भी है और भौतिक बलों के ऊपर एक अति समर्थ आत्म-बल का भी अस्तित्व है। इन दोनों का समन्वय होना आवश्यक हैं। भौतिकता के ऊपर आध्यात्मिकता का दबाव एवं प्रकाश रखा जाना चाहिये। अन्यथा एकाकी भौतिक-बज भौतिक पुरुषार्थ और भौतिक दृष्टिकोण कोई उपयुक्त परिणाम प्रस्तुत न कर सकेगा। रेडियो, पंखा, बल्ब, रेफ्रिजरेटर, हीटर, कूलर आदि विद्युत उपकरणों का अपना मूल्य और महत्व आवश्यक है पर उनसे लाभ तभी मिलेगा, जब बिजली की धारा उनमें प्रवेश करने लगे। बिजली बन्द हो जाने पर यह सभी बहुमूल्य उपकरण बेकार हो जाते हैं। इसी प्रकार आत्मा-बल का नियन्त्रण न रहने पर परिश्रमपूर्वक कमाई गई भौतिक शक्तियाँ एवं सम्पदायें वह सत्परिणाम उत्पन्न कर नहीं पाती जो उन्हें करना चाहिये था।
हमें जानना चाहिये कि मनुष्य केवल शरीर मात्र ही नहीं है। उसमें एक परम तेजस्वी आत्म भी विद्यमान् है। हमें जानना चाहिये कि मनुष्य केवल बल, बुद्धि और स्वास्थ्य के भौतिक बलों से ही साँसारिक सुख, सम्पदा, समृद्धि एवं प्रगति प्राप्त नहीं कर सकता, उसे आत्म-बल के अभाव में उपरोक्त तीनों शरीर -बाल मात्र खिलवाड़ बन कर रह जाते है। वे किसी के पास कितनी ही बड़ी मात्रा में क्यों न हों, उससे सहानुभूति नहीं मिल सकती। वे केवल भार, तनाव, चिन्तन एवं उद्वेग का कारण बनेंगे और यदि कहीं उनका दुरुपयोग होने लगा, तब तो सर्वनाश की भूमिका ही सामने लाकर खड़ी कर देंगे
आत्म-चेतना की विस्मृति भावना-जीवन की एक भयावह भूल है। यों कहने-सुनने को हम आत्मा-आत्मा शब्द बार-बार पढ़ते-सुनते हैं। उनके सम्बन्ध में कौतूहल भरी भावनायें भी बार-बार सामने आती जाती है, पर वस्तुतः यह अनुभव होता कभी भी नहीं है कि हम आत्मा है। अभ्यास और विश्वास यही है कि हम शरीर के रूप में जो कुछ जाने-माने जाते हैं, वही है-उतने ही है। शरीर भावना इतनी एवं परिपक्व हो गई है कि यह अनुभव करना अति कठिन लगता है कि हम शरीर से मित्र एक परम पवित्र एवं परम समर्थ चेतना केन्द्र हैं। यदि ऐसा अनुभव होने लगे तो सोचने का सारा आधार ही बदल जाय।
“मैं आत्मा हूँ, शरीर मेरा उपकरण है। मेरा स्वार्थ, आत्मिक स्वार्थ परमार्थ है। उसे शरीर स्वार्थ की वेदी पर बलिदान न करूँगा यह विद्रोह जब सजग विवेक द्वारा आरम्भ होता है तो अन्तरंग में एक भावनात्मक महाक्रान्ति उठ खड़ी होती है और सोचने तथा करने की पद्धति में महत्वपूर्ण परिवर्तन करने के लिये विवश होना पड़ता है। यही वह मर्मस्थल है। जहाँ आत्म-जागरण आत्म-निर्माण आत्म-विकास की सम्भावनाऐं मूर्तिमान् होती हैं। यही वह प्रवेश द्वार है, जहाँ से आत्म-बल की महान् विभूतियों का रत्न-भण्डार जगमगाता हुआ दीखता है।
जड़ परमाणुओं का बल अब सर्वविदित हो चला है। एक छोटे से अणु का ‘नाभिक जब फट पड़ता है, तब उसकी प्रचण्ड शक्ति का अन्दाज लगता हैं। अणुबम विस्फोट के समय उत्पन्न होने वाली शक्ति को देख कर नगण्य से अणु की महती शक्ति का अनुमान लगाया जा सकता है। फिर आत्मा तो चेतन है, चेतन में जड़ से असंख्य गुनी शक्ति है। आत्मा के एक कण की शक्ति का अनुमान लगा सकना अपनी पंगु-बुद्धि के लिये संभव नहीं। इस शक्ति के बल पर क्या कुछ नहीं हो सकता। एक नई सृष्टि रची जा सकती है। एक प्रलय ताण्डव प्रस्तुत हो सकता है। परमात्मा का पुत्र आत्मा रूप है, यह पूछने की अपेक्षा यह जानना चाहिये कि वह क्या नहीं है। परम-आत्मा में केन्द्रीभूत हैं। जो उनको समझ, संभाल और प्रयोग कर सके, वह एक प्रकार ईश्वर का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है।
आत्म-ज्ञान के साथ यह मान्यता जगती है कि हमारा स्वरूप और लक्ष्य क्या है? हम क्या सोचना और क्या करना चाहिये? इन प्रश्नों के उत्तर अन्तःकरण में से अनायास ही, स्वयमेव ही उठते हैं। जीवन की खोई हुई पवित्रता प्राप्त करने के लिये, विचारों को परिष्कृत करने के लिए, गतिविधियों को व्यवस्थित करने के लिये-एक प्रचण्ड साहस, उत्साह एवं उल्लास यदि अन्तरंग में से फूट पड़े तो समझना चाहिये कि आत्म-जागरण एवं आत्म-साक्षात्कार का सौभाग्यशाली शुभ मुहूर्त आ गया। इस विवेक बिन्दु पर खड़ा हुआ व्यक्ति बड़े महत्वपूर्ण आश्चर्यचकित करने वाले एवं दुस्साहसपूर्ण निर्णय करता है।
आत्मा-बल आरम्भिक स्वरूप विवेक के समर्थन में-आत्मा की महत्ता अक्षुण्ण रखने के लिये-वर्तमान गतिविधियों के विरुद्ध उठ खड़े होने के दुस्साहस के रूप में होता हैं। आगे वह बढ़ते-बढ़ते उस स्थिति को पहुँच जाता है, जिस पर पहुँचे हुओं को योगी-यती सिद्ध-ऋद्धि तत्त्वदर्शी आदि नामों से पुकारते है। आत्म-बल की परख आमतौर से कई सिद्धियों और चमत्कारों से की जाती है। जो दूसरों को अचम्भे में डाल देने वाले, अद्भुत, असाधारण काम कर दिखाये, उसे आत्म-बल सम्पन्न कहा जाता हैं। जो अन्तरिक्ष से कोई वस्तुऐं मँगा दे, किन्हीं को गायब कर दे, जो अदृश्य तथ्यों को देख सके, दूरस्थ घटनाओं को जान सके, बिना वाहन सुदूर प्रदेशों में चला जाय, बिना अन्न-जल जी सके, जिस पर शीत, ग्रीष्म आदि का प्रभाव न हो, जो समाधि में मूर्छित रहकर जीवित रहे, जिसके शाप से नाश और आशीर्वाद से उत्कर्ष सम्भव हो सके आदि चमत्कारी विशेषताओं से युक्त व्यक्ति को अध्यात्म-बल सम्पन्न मानते है। यह विशेषताएँ आत्म-शक्ति के साधारण से चमत्कार है, जो सरकस जैसे कुछ अभ्यास साधन करने से सहज ही उपलब्ध हो सकते हैं। मूल प्रश्न आत्म-बल की उत्पत्ति वाले केन्द्र बिन्दु का हैं। वह तब उत्पन्न होता है, जब व्यक्ति भौतिक सुख-सुविधाओं को गौण और आध्यात्मिक परमार्थ साधना को प्रथम स्वीकार कर लेता है। मुख्य के लिये गौण की उपेक्षा कर सकने का आदर्श जो अपना लेगा उसी के लिये यह सम्भव होगा कि तृष्णा और वासना को ठुकरा कर उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का समर्थन एवं आचरण कर सके। यह साहस कुछ ऐसी घटनाओं के साथ विकसित होता है, जिन्हें साधारण लौकिक दृष्टि में दुस्साहस ही कहा जा सकता है।
तुच्छ स्वार्थों की उपेक्षा करने का दुस्साहस जो कर सके, समझना चाहिये कि उसे आत्म-बल के भण्डार की चाबी मिल गई। हीरा किस जेवर में प्रयुक्त किया जाय? यह पीछे का प्रश्न है। आत्म-बल दूसरों को प्रभावित करने वाली अद्भुत चमत्कारी कला दिखाने में भी प्रयुक्त किया जा सकता हैं। जिसका शरीर समर्थ है, वह कुछ दिन में सरकस जैसे खेल भी सीख सकता है। पर सरकस शिक्षण स्कूल में प्रवेश करने पर दुर्बल, बीमार को कुछ मिलने वाला नहीं हैं। इसी प्रकार जिसमें आत्म-बल का मूल-तत्व न हो उसे विविध विधि योग साधनाओं का अभ्यास करते रहने पर भी खाली हाथ ही रहना पड़ता है। आत्म-बल बढ़ाने के कई प्रयोग, कई साधन, कई अभ्यास भी है पर वे सब तो हीरे पर खराद चढ़ाने के उपकरण मात्र वाली कीमती मशीनें भी उसे असली हीरे का स्थान नहीं दिला सकतीं।
आत्म-बल का प्रधान लाभ जीवन को सर्वोत्तम सदुपयोग के लिये प्रस्तुत करना है। अपने आपकी समीक्षा कर सकना, अपने से लड़ सकना, अपने का बदल सकना, अपनी गतिविधियों को निकृष्टता की कीचड़ में से निकाल कर उत्कृष्टता के सिंहासन पर प्रतिहित सकना मानव-जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ और मानवी चेतना की सबसे बड़ी सफल साधना है। जीवन-क्रम देखने में सामान्य भले ही रहे पर अन्तरंग की उत्कृष्टता की जो समुन्नत कर सके वस्तुतः वही महापुरुष है। पुरुष का महापुरुष के रूप में परिणत हो जाना यही जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति हे।
यहाँ मनोबल और आत्म-बल का अन्तर हमें समझ लेना चाहिये। मनोबल, इच्छा-शक्ति दृढ़ता, साहस और धैर्य का नाम है। इन गुणों का अपना महत्व है। साँसारिक सफलतायें इन्हीं विशेषताओं के आधार पर मिलती है। मनस्वी लोग कठिनाइयों से डरते नहीं वरन् दूने उत्साह से कष्ट सहते हुए संघर्ष करते हुए आगे बढ़ते है। जबकि दूसरे लोग पग-पग पर निराशा आशा के हर्ष-शोक के झूले में झूलते रहते हैं, तब मनोबल सम्पन्न व्यक्ति अविचल भाव से, निर्धारित दिशा में तत्परतापूर्वक गतिशील रहते हैं। साहस के आधार पर बड़े-बड़े कठिन कार्य पूरे होते हैं।
परिश्रमी, उद्योगी, पुरुषार्थी असम्भव लगने वाली सफलतायें प्राप्त कर लेते है। उत्साह और स्फूर्ति का चुम्बकीय आकर्षण अनेक दिशाओं से सुविधा-साधन तथा सहयोग खींच कर सामने खड़े कर देते है। संसार में छोटे-छोटे मनुष्यों ने अभावों और असुविधाओं को चीरते हुए प्रगति की है, उसमें उनके साहस, श्रम, धैर्य और मनोबल का ही श्रेय है। भौतिक प्रगतियों की कुँजी मनोबल ही तो है।
इन पंक्तियों में मनोबल की नहीं आत्म-बल की चर्चा की जा रही है। मनोबल का अपना महत्व है पर वह है इसी सीमा तक कि किन्हीं कार्या को सिद्ध करने में प्रयुक्त हो सके। आत्म-बल इससे ऊँचे स्तर का। आदर्शों और सिद्धान्तों पर अड़े रहने, किसी भी प्रलोभन और कष्ट के दबाव में कुमार्ग पर पग न बढ़ाने, अपने आत्म-गौरव के अनुरूप सोचने और करने, दूरवर्ती भविष्य कि निर्माण के लिये आज की असुविधाओं को धैर्य और प्रसन्नचित्त से सह सकने की दृढ़ता का नाम आत्म-बल है। जो वासना और तृष्णाओं को-स्वार्थ और सुविधा को कठोर मारकर अपने लिये नहीं लोक-मंगल के लिये संयम और सदाचार से भरा, प्रेम ओर आत्मीयता भरा जीवन जी सकता है, उस महामानव को ही आत्म-बल सम्पन्न कहा जायेगा
आत्म-बल आत्मा की उच्च स्थिति का प्रकाश है। उसके आधार पर किसी की आन्तरिक महानता नापी जा सकती है। जो आत्मिक दृष्टि से जितना महान् है, उसे इस संसार का उतना ही बड़ा सम्पन्न और विभूतिवान मानना चाहिये। ऋषि ओर मनीषियों के पास यही संपदा होती है और वे इसी विभूति के बल पर आत्म-कल्याण का लक्ष्य प्राप्त करते हुए चन्दन वृक्ष की तरह अपने समीपवर्ती लोगों को सुगन्धि सुविधा से लाभान्वित करते रहते हैं।
मनुष्य शरीर में ईश्वर का अंश उसके आत्म-बल के आधार पर आँका और नापा जा सकता है। जिसमें जितना आत्मबल हो समझना चाहिये कि उसके व्यक्तित्व में उतनी ही मात्रा में ईश्वर का निवास हैं। जहाँ ईश्वर है, वहाँ ऐश्वर्य की क्या कमी। दूसरे उसे गरीब एवं अभावग्रस्त समझते हों तो समझे पर वह अपनी विभूतियों का मूल्य-समझते हुए, स्वामी रामतीर्थ की तरह अपने को बादशाह ही समझता है। समझता ही नहीं-उसी स्तर की प्रसन्नता एवं संतुष्टि भी अनुभव करता है।
जिनके प्रकाश से जन-समाज को श्रेय पथ पर चलने का मार्ग-दर्शन मिलता है, जो अपने अनुकरण की प्रेरणा देकर असंख्यों को उठाते, उभारते, बढ़ाते ओर पार करते हैं, वे आत्म-बल सम्पन्न महामानव ही होते हैं। चरित्र के धनी, करुणा, दया, परिपूर्ण हृदय, उदारता और आत्मीयता से ओत-प्रोत व्यक्तित्व आत्म-बल के ही प्रतीक है। ऐसे महाभाग देवदूतों की तरह जीवन मुक्ति की तरह जीते है। संसार उनकी उपस्थिति से सुगन्धित, सुरक्षित, समुन्नत, और व्यवस्थित होता है। वे अपनी सामर्थ्य से दिशायें बदलने और हवायें पलटने में समर्थ होते है। उन्हें धरती के देवता ही कहा जायेगा, भले ही साधारण गृहस्थ व्यवसायी के रूप में जीवन-यापन करते हों अथवा लोक-सेवी परमार्थी सज्जनों की तरह पुण्य परमार्थ के प्रयोजनों में संलग्न हो। उनका आशीर्वाद जिन्हें मिल गया वह कृतकृत्य हो जाता है।
आत्म-बल वह क्षमता है, जिसका जितना अंश मनुष्य के पास होगा, उतना ही वह अपने विवेक को सजग कर सकने में समर्थ होगा। विवेक ही वह सत्ता है जो धन, बुद्धि, स्वास्थ्य आदि की भौतिक शक्तियों को नियन्त्रण में रख कर उन्हें सन्मार्गगामी बनाती हैं। सदुद्देश्य और सत्प्रयोजनों में प्रवृत्त करती है। यह प्रयोग ही हमारी भौतिक उपलब्धियों को सार्थक बनाते हैं।
मनोबल सहित स्वास्थ्य, विद्या और धन सभी का अपना-अपना महत्व है पर यह गाँठ बाँध रखना चाहिये कि संसार की किसी वस्तु का यदि तनिक भी लाभ उठाना हो तो उसे आत्म-बल के नियंत्रण में रख कर ही यह प्रकाशवान और सुखदायक होती है, अन्यथा वे भारभूत बनी हुई मनुष्य के कष्टों को ही बढ़ाती रहती है।