तर्पण का अर्थ

February 1969

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गुरु नानक भ्रमण करते हुए हरिद्वार पहुँचे। कोई धार्मिक पर्व था। गंगातट पर भारी भीड़ थी। श्रद्धालु लोग आते और गंगा स्नान करते। प्रातःकाल का समय था, गुरु ने सोचा स्नान और भवन के लिए इतना उपयुक्त स्थान कहाँ मिलेगा। वे भी गंगातट की ओर स्नान के लिए चल पड़े।

वहाँ जाकर देखते क्या है, एक व्यक्ति पूर्व की ओर जल उलीच रहा है। उसे देख कर दूसरे साथी ने भी अर्घ्य देना प्रारम्भ कर दिया तात्पर्य यह है कि जो भी स्नान के लिए आता वह तर्पण की बात न भूलता। गुरु नानक ने यह देखकर एक व्यक्ति से पूछा-आप अभी वह क्या कर रहे थे? उस व्यक्ति ने कुछ रुखाई और कुछ दुष्टभाव से कहा-कर क्या रहे थे-पितरों को तर्पण कर रहे थे।

गुरु ने कपड़े उतारे, स्नान किया और पीछे आकाशाभिमुख खड़े होकर गंगा जी से बाहर पानी उलीचने लगे। पास ही खड़े लोगों को अटपटा सा लगा। उन्होंने पूछा-महाशय आप यह क्या कर रहे है, तर्पण पूर्वाभिमुख होकर किया जाता है या पश्चिम की ओर मुख करके फिर ऐसे तो नहीं किया जाता है, जैसे आप कर रहे है। यह दृश्य देखने कि लिए तब तक काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी।

नानक ने मुस्कराकर उत्तर दिया-भाइयों हमारे खेत पंजाब में है, उन्हें पानी दे रहा हूँ। खेते सूख रहे होंगे।

पास खड़े आदमी हँस पड़े, एक वृद्ध आदमी ने कहा-गुरु जी, इतनी दूर यहाँ से पंजाब और वहाँ आपके खेत भला पानी वह कैसे पहुँच जायेगा।

अब गुरु की बारी थी। उनने कहा-भाइयों पिता लोक से दूर नहीं है, यदि आपका दिया पानी पितर लोक पहुँच कर पूर्वजों को संतोष दे सकता है तो मेरा तर्पण पंजाब के खेतों में क्यों नहीं पहुँच सकता?

लोग स्तम्भित थे, कुछ ठीक समझ नहीं पाये। पास ही एक बालक खड़ा था, उसने समझाया ठीक ही तो है-हम पितरों के प्रति श्रद्धा रखें पर जो जीवित पितर माता पिता, पड़ोसी और समाज के दूसरे पीड़ित लोग है, उनके प्रति भी तो अपनी श्रद्धा बनाये रहे। यदि इनके प्रति श्रद्धा और परोपकार का भाव नहीं रख सकते तो उस तर्पण से ही क्या लाभ?


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