सच्चा-जीवन (Kavita)

February 1969

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कैसा है वह सुख मय जीवन तथा सुयोग्य सुशिक्षा है। कार्य सभी स्वतन्त्र है जिसके, न परवश पर इच्छा है॥ सद्विचार का कवच पहन, जो सत्मार्ग अपनाता है। निपट सत्व आदर्श मान जो, जीवन क्षेत्र चलाता है॥

जिसकी इच्छा दुर्व्यसनों पर, कभी नहीं डिग सकती है। जिसकी आत्मा सम्मुख लख निज मृत्यु नहीं टूट सकती है॥ लोक प्रशंसा की आशा से जिसका हृदय न फलता है। गुप्त विषय की चिन्ताओं से जिसका हृदय न जलता है।

निज सम्पत्ति की छटा देख कर, जो अभिमान न करता है। पर उन्नति की दशा देखकर, जो दुःख आह न भरता है॥ वृथा वाद अपवाद मात्र में, जिसका समय न कटता है। केवल धन के योग भोग में, जो दिन रात न मरता है॥

लोक वादियों ने भी जिसका, जीवन शुद्ध बताया है। जिसने अपने तीव्र ज्ञान को शरण-स्थान बनाया है॥ जिसकी सम्पत्ति चापलूस खल कभी नहीं खा सकते है। जिसके सुख, दुःख को भी निन्दक व्यर्थ नहीं गा सकते है॥

सुबह शाम ईश्वर चिन्तन जो नित्य नेम से करता है। उसकी भक्ति मात्र पाने को, नर इच्छा नहिं रखता है॥ धर्म, कर्म या संत संगति में मग्न सदा जो रहता है। अपने पैरों आप खड़ा हो जो संसार विचरता है॥

उन्नति आशा अवनति भय से, मुक्ति उसे मिल जाती है। मृत्यु बाद भी उसकी आत्मा पूर्ण शान्ति को पाती है॥ चाहे वह स्वामी न भूमि का, निज स्वामी तो पक्का है। चाहे वह निर्धन हो फिर भी, जीवन वह ही सच्चा है॥

-लाल महाबली सिंह,

*समाप्त*


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