स्वप्न और मनुष्य जीवन की गहराई

February 1969

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फ्रायड ने अपना तमाम जीवन और बुद्धि कौशल इस बात को सिद्ध करने में लगाया कि काम वासना (सेक्स) ही आत्मा को नैसर्गिक आकांक्षा है। अपने मत की पुष्टि में उसने सर्वाधिक प्रमाण स्वप्नों के लिये है और यह कहा है कि स्वप्न कुचली हुई वासनाओं की प्रतिच्छाया मात्र है। मन की जो मुरादें पूरी नहीं होती, अवचेतन अवस्था में वह उनकी काल्पनिक उड़ाने लगता है, उसी का नाम स्वप्न है और उसमें कोई बड़ा भारी मनुष्य जीवन का रहस्य नहीं छिपा हुआ।

अनेक उदाहरण ही नहीं हर प्रकार की वासनाओं के चार्ट बनाकर और स्वप्नों के उदाहरण देकर उसने संमति बैठाने का भी पूरा पूरा प्रयत्न किया है, किन्तु कुछ स्वप्नों का अध्ययन करके स्वयं फ्रायड भी चौक गया। ऐसे स्वप्नों में वह मुख्य रूप से थे, जिनमें किन्हीं लोगों के भविष्य में घटित होने वाली अनेक घटनाओं के पूर्व सन्देश इतने सच्चे निकले मानों वह सब कुछ पहले हो चुका हो और मन में केवल उसकी स्मृति को दोहराया हो।

उदाहरणार्थ अति प्राचीन प्राच्य भाषाओं के पण्डित सर ई॰ ए॰ बालिस बज का वह स्वप्न लेते है, जिसकी कृपा से ही ब्रालिस बज एक कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हो सका। बज एक निर्धन परिवार में जन्मे थे, माध्यमिक शिक्षा काल में ही उनके मन में यह इच्छा हुई कि प्राचीन भाषाओं का विशेषज्ञ बनूँ। युवक की इस आकांक्षा से प्रभावित होकर ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधान मन्त्री श्री ग्लेडस्टन ने 1878 में बालिस बज को कैम्ब्रिज में भरती करा दिया। यहाँ बज ने एमीरियन भाषा सीखी किन्तु उससे भी प्राचीन एक्केडियन भाषा बहुत कठिन पड़ती थी। सारे यूरोप में उसे जानने वाले कोई तीन चार व्यक्ति ही थे। एक दिन क्राइस्ट कालेज के प्रधानाचार्य ने बज को बुलाकर बताया था कि कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में प्राच्य भाषाओं की एक प्रतियोगिता हो रही है, यदि तुम उसमें प्रथम श्रेणी ला सके तो तुम्हें अपना अध्ययन जारी रखने के लिए आर्थिक सहायता भी मिल जायेगी और अपनी महत्वकाँक्षाओं को सफल करने का रास्ता भी। इससे अच्छा कोई दूसरा अवसर तुम्हें नहीं मिलेगा।

प्रतियोगिता के परीक्षक प्रोफेसर सेइस प्राच्य विद्याओं के धुरन्धर विद्वान थे पर बालिस बज का उनसे कोई परिचय न था। परीक्षा भी बड़ी कड़ी थी। बज किसी तरह तैयार तो हो गया पर उसकी घबराहट और बेचैनी बढ़ती ही गई, एक दिन तो वह बुरी कड़ी थी। बज किसी तरह तैयार तो हो गया पर उसकी बुरी घबराहट और बेचैनी बढ़ती ही गई, एक दिन तो वह बुरी तरह निराश हुआ और प्रतियोगिता में सम्मिलित होने का इरादा ही छोड़ दिया।

दूसरे दिन परीक्षा होने वाली थी। बज उस रात जब पलंग पर सोया तो उसने एक बड़ा विचित्र स्वप्न देखा। वह देखता है कि परीक्षा हाल में बैठा हूँ पर यह स्थान कुछ विचित्र सा है। ऊपर एक ही रोशनदान है इस कमरे में। थोड़ी देर में एक अध्यापक ने कमरे में प्रवेश किया। कोट की भीतरी जेब से उसने एक लिफाफा निकाला, उसकी सील तोड़ी, उसमें से हरे रंग के कुछ पर्चे निकाले और एक पर्चा बज को देते हुए कहा-लो इन प्रश्नों का उत्तर देना है। एसीरियन और एक्केडियन भाषाओं के जो अंक दिये है, उनका अंग्रेजी में अनुवाद करना है। इतना कहकर अध्यापक बाहर चला गया। और बाहर से कमरे में ताला लगा दिया।

रात के स्वप्न में बज ने पर्चे को ध्यान से पढ़ा एक बार नींद टूट गई फिर सोने पर जहाँ से स्वप्न समाप्त हुआ था, वहीं से फिर प्रारम्भ हुआ पहली बार एसीरियन और एक्केडियन भाषाओं के जो टेक्स्ट देखे थे, ठीक वही प्रश्न अब भी दिखाई दिये। फिर नींद टूटी और लगी तीसरी बार के प्रश्न पत्र में भी कोई अन्तर न था। बज की ठीक 2 बजे आँख खुल गई। बही प्रश्न पत्र अब भी उसकी आँखों के आगे झूम रहा था।

हेनरी एलिसन की विख्यात पुस्तक निकालकर उसने ‘‘क्यूनीफार्म इंस्क्रिप्शन्स आफ वेर्स्टन एशिया’’ खोज कर वह सपने में देखे हुए अंश को प्रातः काल होने तक दोहराता रहा। ने जाने कैसे यह विश्वास सा हों गया था कि यही प्रश्न पत्र आएगा। ठीक समय पर बज परीक्षा भवन पहुँचा पर उसे बताया गया कि वह हाल किन्हीं और परीक्षार्थियों से भर गया है इसलिए उसे दूसरे कमरे में ले जाया गया। बज उस स्थान को देखते ही चौक गया। यह एक रसोई घर था और ठीक वैसा ही चौक गया। यह एक रसोई घर था और ठीक वैसा ही जैसा उसने रात स्वप्न में देखा था। फिर था। फिर एक अध्यापक आया। उसने जेब से लिफाफा निकाला और उसमें से हरे रंग के पर्चे निकालें। हरे रंग का चुनाव परीक्षक की आँख दुखने के कारण किया गया था। इसके बाद अध्यापक बाहर गया और दरवाजा बन्द करके ताला लगा कर चला गया।

बज ने पर्चे को देखा-अक्षर व अक्षर बड़ी पर्चा जो रात स्वप्न में तीन बार उसने देखा। बड़ी प्रसन्नतापूर्वक प्रश्न पत्र हल किया। परीक्षा में उसे प्रथम स्थान भी मिल गया। फेलोशिप और आर्थिक सहायता भी मिल गई। वह 1924 तक ब्रिटिश म्यूजियम के मिस्त्रों और असीरियाई विभाग के प्रधान के रूप में काम करते रहे पर वह उस को कभी नहीं भूले जिसके द्वारा ही वह अपनी महत्वाकाँक्षा की पूर्ति कर सके।

क्या यह ‘सेक्स’ की प्रतिच्छाया थी? क्या यह स्वप्न मस्तिष्क की काल्पनिक उड़ान या शरीर की किसी रासायनिक क्रिया का चित्रण थी। वैज्ञानिकों के पास उसका कोई उत्तर नहीं। मनुष्य जीवन की उस गहराई को पाना उनके वश की बात नहीं, उसे जानने और समझने के लिए तो आत्मा के अन्तराल में उतरना आवश्यक हो जाता है, अपने आपकी खोज बीन करना अनिवार्य हो जाता है। उसे जाने बिना मनुष्य जीवन की सारी जानकारियाँ व्यर्थ है। उपनिषद्कार ने कहा है-

स्वप्नन्तं आगरितान्सं ड़ड़ड़ड़ येनान्पश्यति। महान्तं निभुमात्मान मत्वा धीरो न शोचति॥

कठोपनिषद्, 2 अध्याय, प्रथम सरुली,4

अर्थात्- जागृत अवस्था के समान स्वप्न में भी दृश्य देखने वाला ‘अह’ ही सर्वव्यापी आत्मा है, उसे भली प्रकार जानने वाले मेधावी जनों को किसी प्रकार का शोक नहीं होता।

भारतीय आचार्यों ने स्वप्न का जीवात्मा की चार अवस्थाओं में से एक बताया है। जागृत अवस्था में स्थूल ज्ञानेंद्रियों के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, हव सीमित होता है। हमारे कान थोड़ी दूर की आवाज सुन सकते है, आँखें थोड़ी दूर तक देख सकती है, किन्तु स्वप्न अवस्था में जीवात्मा मनोमयकोश (सूक्ष्म शरीर) में चला जाता है। मन भी आत्मा की एक सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रिय ही है। स्वप्न अवस्था में उसके द्वारा पाया हुआ ज्ञान एक विस्तृत और विशाल सीमा का होता है। मन अधिक सूक्ष्म है, वह आत्मा को उसके भूत और भविष्य की अनेक देखी अन देखी बातों को भी प्रकट करता है पर उसे होना चाहिये स्वच्छ, मन जितना और साफ होगा उतने ही स्वप्नों में सकी और सार्थक दृश्य उभरेंगे। दूषित शरीर का मन भी दूषित और स्थूल होता है। इसलिए उसके स्वप्न भी गन्दे, कामुक (सेम्सुअल) और भद्दे होते है। सामान्य लोगों की यही अवस्था होती है, इसलिए उन्हें स्वप्न का कोई निश्चित अर्थ समझ में नहीं आता।90 प्रतिशत लोग तो स्वप्न भूल भी जाते है पर श्रद्धालु, स्वच्छ मन, पवित्र हृदय, उपासक और आत्मा की गहराई का जो जितना अधिक चिन्तन करता है, वह उतने ही साफ और सार्थक स्वप्न देखता है और भविष्य की या प्रियजनों की खबरें भी देते रहते है।

इंग्लैण्ड की एक 12 वर्षीय जेनी कन्या की स्वप्नावस्था में ऐसी विलक्षण अनुभूतियाँ हुआ करती थी। कन्या का कहना था कि जब वह सोती है, तब भी वह एक विचित्र प्रकार के शरीर से चारों तरफ धूप आती है। उसे तरह तरह की सत्य घटनाओं का पता चल जाता है। किन्तु बालिका के इस कथन पर किसी ने विश्वास न किया।

29 जनवरी 1898 में बालिका के पिता कप्तान स्प्रूइट अताकाम्बा जहाज पर कोयला लादकर विद्वेष के लिये रवाना हुए। एक दिन वह बालिका रात में सोते सोते एकाएक चौंक पड़ी। माता ने उसे सँभाला और पूछा क्या हुआ? बालिका ने बताया कि पिताजी जिस जहाज में यात्रा कर रहे थे, वह डूब गया है, लेकिन पिताजी को किसी और जहाज ने बचा लिया है। माँ ने इस बात पर तब कोई विश्वास नहीं किया पर जब 25 फरवरी को स्प्रूइट लौटकर घर आया तो उसने सारी घटना सुनाई। वह घटना लड़की के बतायें स्वप्न से हूबहू मिलती जुलती पाई गई।

प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता रोमान नोवारो ने अपने एक स्वप्न एक दुःखी लड़के का बड़ा हित किया था, उस घटना की चर्चा उसने इस प्रकार की है-मैं जिस सराय में ठहरा था उसका स्वामी मर चुका था। उसके दो लड़कों में उत्तराधिकार को लेकर लड़ाई चल रही थी। सराय का स्वामी वसीयत लिखकर कहीं छोड़ गया, उसके न मिलने से एक भाई तो सारी सम्पत्ति पर अपना अधिकार बताता है और दूसरा छोटा, सीधा और भोला होने के कारण सताया जा रहा था। उसने रोमान नोवारो को सब बातें बताई यह भी कहा कि मेरा बड़ा भाई मेरे साथ बहुत अत्याचार करता है। नोवारों बहुत दुःखी हुआ पर उस समय कोई सहायता न कर सकता।

रात जब वह सोया तो उसने एक स्वप्न देखा कि एक आदमी उस कमरे के एक आले की ओर इशारा कर रहा है और किसी लकड़ी से उस स्थान पर ठक्क ठक्क कर रहा है। नोवारो की नींद टूट गई पर उसने समझा चूहों ने खड़–बड़ मचाई होगी, इसलिए वह फिर सो गया पर इस बार फिर वही दृश्य दिखाई दिया। फिर नींद टूटी तो वह उठ खड़ा हुआ और उस आले में रखे कागज हटाकर देखने लगा। सब कागज हटाने के बाद एक कपड़े में लिपटी कोई वस्तु दिखाई दी। उसे निकाल कर देखा तो वह वसीयत रखी थी, जिसके न होने के कारण छोटा भाई सताया जा रहा। उसे बड़ी प्रसन्नता हुई, उसने तुरन्त उस बच्चे की बुलाकर वसीयत सौंप दी। फलस्वरूप उसे अपने पिता की जायदाद का आधा हिस्सा मिल गया।

नोवारो जो उन लड़कों के पिता को जानता तक न था और न ही उसे किसी वसीयत की बात मालूम थी, उसे यह सब स्वप्न में कैसे जानकारी मिली? क्या उसे भी सेक्स कहा जा सकता है।

‘पुरुषार्थ’ नामक मराठी पत्र के एक अंक में छपी यह घटना स्वप्न और जीवात्मा की गहराई को और भी स्पष्ट कर देती है। घटना इस प्रकार है।

बम्बई के प्रसिद्ध नेत्र चिकित्सक डा. श्री एस॰ अजगाँवकर की धर्मपत्नी ललिताबाई की 1952 में मृत्यु हो गई। ललिताबाई वट पूर्णिमा का व्रत रखा करती थी। उनकी मृत्यु भी वट पूर्णिमा के दिन ही हुई, इसलिये वे व्रत भी नहीं कर सकी, उनके भाई श्री आर॰ जी0 सामन्त बम्बई में एडवोकेट थे। मृत्यु के दूसरे दिन उन्होंने एकाएक दरवाजे पर अपनी बहन को खड़े देखा तो वे घबड़ा गये। मृतक शरीर का यों आना बहुत कौतूहल वर्धक लगा पर इसे उन्होंने कोई मानसिक भ्रान्ति कहकर टाल दिया। श्री सामन्त कोई सन्तान न थी और न ही होने की कोई आशा थी, क्योंकि उनकी धर्मपत्नी को डाक्टरों को दिखाया गया था और उन्होंने सन्तान होने की सम्भावना से इनकार कर दिया था। इनकी जननेन्द्रिय की बनावट इस योग्य थी ही नहीं। उनकी पत्नी आयु की भी अब चालीस की थी। एक दिन रात में उन्होंने देखा कि स्वप्न में उनकी ननद ललिताबाई उनके पास आई हैं और कह रही है-भाभी जी मैं तुम्हारे उदर से जन्म लूँगी। मेरा नाम ललिताबाई रखना और अपने को डाक्टर को दिखाने जाना।

सवेरे उन्होंने यह स्वप्न अपने पति को सुनाया और डाक्टर के पास चलने का आग्रह किया। डाक्टर ने उनकी जाँच की तो आश्चर्यचकित रह गया कि अब उनकी जननेन्द्रिय विकसित ही नहीं हो गई वरन् गर्भाधान भी हो चुका है। यथासमय उनके पेट से बालिका का ही जन्म हुआ। उन्होंने उसका नाम ललिताबाई ही रखा।

यह स्वप्न मात्र कौतूहल वर्धक नहीं कुछ तथ्य भी रखते है, लगता है उनकी सत्यता अनिवार्य मान लेने पर ही फ्रायड को अन्तिम दिनों अपनी मान्यता बदलनी पड़ी थी। उसने अन्त में लिख ही दिया-स्वप्न की समस्या को पूर्णतया समाधान करना सम्भव नहीं। उनमें कई तथ्य ऐसे भी हैं, जिनकी उत्पत्ति के मूल सूत्र की पकड़ सहज नहीं। सपनों की भविष्य सूचना सम्भावना की भी हम उपेक्षा नहीं कर सकते।”


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