कोलाहल से दूर शान्त एकान्त की ओर

February 1969

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एक समय था जब दुनियाँ की जनसंख्या बहुत थोड़ी थी। शहर तब नाम मात्र को थे, अधिकाँश लोग किसी जलाशय के किनारे कोई पर्णकुटी बना लेते थे। उसी के आस-पास एक दो खेत तैयार कर लेते थे। बस उतने से ही मस्ती का जीवन बीतता था। तब के जीवन में बड़ी शाँति और सरलता थी।

आबादी बढ़ी और छोटे-छोटे घर गाँव बन गये। शहरों की तो गरजना में ही काफी दिन लग सकते हैं, फिर कई शहरों की जनसंख्या तो किसी-किसी जिले के बराबर होती है। सघन आबादी का जनस्वास्थ्य और शाँति व्यवस्था पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता।

प्रारम्भिक और विकासशील बाल्यावस्था को इन बुराइयों से जो बहुल-जन क्षेत्र में सम्भव हैं, बचाने के लिये ही प्राचीनकाल में गुरुकुलों की स्थापना हुई थी। लेकिन तब लोगों के जीवन लक्ष्य महान आध्यात्मिक हुआ करते थे, इसलिये भी लोग एकान्त की व्यवस्था बनाया करते थे। एकान्त में न केवल आत्म-शाँति मिलती है, वरन सात्विक विचार उठते हैं, आत्म-चिन्तन होता है। वाणी संयम के कारण चित्तवृत्ति अन्तर्मुखी हो जाती है और आध्यात्मिक लक्ष्य और सरल हो जाता है। इसलिये तब एक समय निश्चित रूप से लोग एकान्तवास किया करते थे, गृहस्थ आश्रम के बाद थोड़ा-थोड़ा एकान्त का अभ्यास किया जाता था। पर चौथे चरण में तो नितान्त अन्तर्वासी हो जाया जाता था।

यह व्यवस्था प्राचीनकाल में जितनी उपयोगी थी, आज उससे दो गुना अधिक आवश्यक हो गई है, क्योंकि अब न तो ग्रामीण न शहरी क्षेत्र इस योग्य रहे कि मनुष्य शाँति से रह सके। साधारण ध्वनि तरंगें जो दिन भर लोग बोलते रहते हैं, वह अपने सूक्ष्म प्रभाव सहित तरंगित होती हुई हमारे मस्तिष्क को प्रभावित करती है और कोई कारण न होते हुए भी व्यग्रता, चिंता, व्यथा और परेशानी बढ़ती है पर उससे भी अधिक विस्फोटक अब शोर की समस्या हो गई है। शोर ध्वनि तरंगों से विलग वह वस्तु है, जो स्पष्ट प्रतिस्वन की सृष्टि करती हैं, उससे तत्काल मस्तिष्क में अप्रियता बढ़ती है। वैज्ञानिकों के अनुसार इन दिनों पृथ्वी प जनसंख्या शहर और सबसे अधिक यंत्रीकरण के कारण शोर की मात्रा इतनी अधिक बढ़ गई है कि प्रति व्यक्ति कई टन वजन इसी का बोझ डाले रहता है, उससे कोई शाँत और शीतल प्रकृति का व्यक्ति भी प्रसन्न नहीं रह सकता।

डा. फेचनर ने 40 वर्ष तक ध्वनियों का गहन अध्ययन किया और यह पाया कि अब जो शोर बढ़ रहा है, उससे उत्तेजना बढ़ती है ओर शरीर के कोमलतम तन्तुओं पर तीक्ष्ण प्रभाव पड़ता है। ध्वनि के उत्तेजना को उन्होंने डेसीबिल नाम की इकाई बनाकर नापा भी और यह बताया कि शाँत सड़कों में 50 डेसीबिल उत्तेजत्व रहता है, जबकि शोर-युक्त सड़कों में 70-80 डेसीबिल। मोटरगाड़ियों में ब्रेक लगाने की ध्वनि से 76 ध्वनि निरोधक यंत्र से सज्जित मोटर-साइकिलों से 60 और ऐसी ही मोटरें से 120 डेसीबिल शोर का प्रभाव श्रवण प्रणाली पर पड़ता है। उससे मस्तिष्क का विभ्रान्त और अशाँत रहना तो आवश्यक है ही, यह भी सिद्ध हो चुका है कि 160 डेसीबिल वाले शोर के कारण कान का पर्दा तक फट जाता है। 120-130 डेसीबिल शोर से आँशिक और यदि कुछ दिन तक यह क्रम बराबर बना रहे तो व्यक्ति स्थायी रूप से भी बधिर हो सकता है। प्रत्येक अवस्था में 80-100 डेसीबिल से अधिक मात्रा का शोर श्रवण प्रणाली और मानसिक संवेदना के लिये घातक हो सकता है।

प्रसिद्ध मनोविज्ञान शास्त्री पास्कल का कथन है कि शोर श्रवण प्रणाली को ही नहीं प्रभावित करता वरन् वह मस्तिष्क में भी कुप्रभाव छोड़ता है। जिससे सारे शरीर पर दूषित तत्व सक्रिय हो उठते हैं। हमारी चिन्तन-धारा में मुख्य बाधा भी यह शहरी शोर हैं, जिसके कारण मनुष्य अपने कल्याण की भी बात अच्छी तरह सोच नहीं पाता।

यंत्रीकरण के कारण आज जनजीवन में शोर का जो दबाव पड़ रहा है, उसकी सियेमा विश्वविद्यालय इटली के इंस्टीट्यूट आफ हाइजिनके प्रोफेसर टिजानों ने विस्तृत व्याख्या की है। शोर के प्राणि-शास्त्रीय प्रभाव का उन्होंने बहुत आवश्यक विवेचन और लोगों को सावधान किया है कि यदि आज के याँत्रिक मनुष्य ने एकान्त-शाँति की व्यवस्था न की तो उसका भावी प्रजा पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। बड़ी चिड़चिड़ी, क्रोधी, अशिष्ट, फूहड़ और दुराचारी आत्मायें जन्म लेंगी या यों कह सकते हैं कि इस दुष्प्रभाव के कारण आने वाली पीढ़ी में इन दुर्गुणों का स्वयमेव विकास होता जायेगा।

उनका कहना है-यही नहीं कि शोर केवल श्रवण यंत्रों को ही राब करते हैं, वरन मस्तिष्क जिससे सारा शरीर का क्रिया-व्यापार चलता है, प्रभावित होता है। उसका ही परिणाम है कि लोगों की कार्य क्षमता तेजी से घट रही है। स्नायविक तनाव और रक्तचाप बढ़ रहा है।

उन्होंने कई औद्यौगिक प्रतिष्ठानों के श्रमिकों का मानसिक अध्ययन किया और यह निष्कर्ष पाया कि मिल कारखानों में काम करने वाला प्रत्येक मजदूर जब प्रातःकाल सोकर उठता है तो काम में कठिनाई अनुभव करता है। उसके कानों में 20 मिनट तक भनभनाहट गूँजती रहती है। मानसिक और शारीरिक थकान अनुभव होती है। उसे लगता है मस्तिष्क में कुछ भर गया है। कुछ दिन में यद्यपि वह अभ्यास में आ जाता है किन्तु श्रवण प्रणाली को क्रमिक क्षति पहुँचती रहती है। मानसिक उद्वेग के कारण पारिवारिक झंझट, क्लेश, चिन्ता और वासनायें भड़कती है। फिर वह शाँति की खोज के लिये भटकता है पर जो साधन हाथ लगते हैं, जैसे सिनेमा, शराब, सम्भोग, वह और भी उसकी दुर्दशा करने वाले सिद्ध होते है।

जिन शहरों में याँत्रिक शोर की अधिकता होती है, वहाँ श्रवण-शक्ति की कमजोरी और इस तरह से व्यग्र व्यक्तियों की अधिकता होती है। वहाँ अपराध भी बहुत अधिक होते हैं। क्योंकि आत्म-शाँति के लिये जिसे कोलाहल से उन्मुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है, वह उन्हें बिलकुल नहीं मिल पाता। कुछ बड़े आदमियों के बंगले और बगीचे ऐसे होते हैं कि वे कुछ समय एकान्त का लाभ पा लेते हैं और अपनी कार्य-क्षमता और स्नायविक तेजस्विता को बनाये रखते हैं पर मानसिक प्रभाव से वे भी मुक्त नहीं रह सकते, क्योंकि ध्वनि तरंगों की तरह यह शोरगुल भी महापुरुषों के मुख-मण्डल पर व्याप्त औरों की तरह उस शहर के बाहरी क्षेत्र तक को भी कई-कई मील तक प्रभावित किये रहता है।

ऐसी अवस्था में उस युग की याद आती हैं, जब लोगों की जीवन व्यवस्था ऐसी रहती थी कि कुछ समय एकान्त सेवन के लिये निकल आता था। ऐसे पीठ संस्थान तथा क्षेत्र होते थे, जहाँ जाकर लोग कम से कम जीवन के अन्तिम चरण में तो मुक्त चिंतन और आत्म-शाँति पाते थे। आज उसकी सर्वाधिक आवश्यकता अनुभव हो रही है। विद्यालय और शिक्षण संस्थानों को तो शहर से हटा कर अन्य प्रदेशों में रखना ही चाहिये साथ ही कुछ क्षण निकालकर ऐसे स्थानों की यात्रा भी करनी चाहिये, जहाँ कुछ समय मानसिक शाँति पाई जा सके। तीर्थ यात्रा का यह महत्व अब पहले की अपेक्षा बहुत अधिक है, यदि ऐसे सुरम्य और सुरक्षित एकान्त स्थान उपलब्ध हो सकें।

ऐसे स्थानों में हिमालय के उत्तराखण्ड भाग का महत्व सर्वाधिक है। यह आदिकाल से भारतवर्ष की साधना स्थली रही है। ऋषि-महर्षियों से लेकर अनेक साधु वानप्रस्थों ने यहाँ आकर तपस्याएं कीं और साधना के तेजस्वी कण बिखेरे। उनका लाभ वहाँ पहुँचने वाले को अनायास ही मिल जाता है।

प्राकृतिक दृष्टि से यह स्थान अत्यन्त शीतल, सुरम्य और मनोहर दृष्टाओं से परिपूर्ण है। यहीं एक स्थान ऐसा शेष बचा है, जो अभी तक जन कोलाहल से पर्याप्त अंश में बचा हुआ है। दूसरे वहाँ पर उठने वाली युग युगान्तरों की प्रबल आध्यात्मिक विचार तरंगें, इतनी शक्तिशाली हैं कि वे बाहर से पहुँचने वाले शोर और ध्वनि तरंगों को दबा देती है और अपने प्रभाव को निरन्तर बनाये रखती हैं।

हरिद्वार से आरम्भ हिमालय हृदय का यह सौ कोस लम्बा और तीस कोस चौड़ा स्थान तमसा नहीं के बौद्धांचल तक फैला है, पच-केदार पंच-बदरी यमुनोत्री और गंगोत्री आदि प्रमुख तीर्थ स्थल हैं, अनेकों हिम स्रोत, तप्तकुण्ड और गरम जल-धाराओं से युक्त यह स्थान मन को अत्यन्त शीतलता और शरीर को ताजगी प्रदान करने वाला है। पर्वतों-शिखरों नदियों, घाटियों, प्रपातों-स्रोतों वामकों से आच्छादित बद्री क्षेत्र को पुष्पों की घाटी कहते हैं। उसकी प्राकृतिक सुषमा की तुलना विश्व का कोई भी पुष्प उद्यान नहीं कर सकता। जो भी उस सुरम्य तपोभूमि के एक बार दर्शन कर लेता है, उस पर जादू का सा प्रभाव पड़ता है। वहाँ से लौटने का मन नहीं करता।

स्वास्थ्य की दृष्टि से इस स्थान का महत्व बहुत अधिक है। यहाँ की प्रत्येक लता वनस्पति मानों प्राण और शक्तिदायक औषधियाँ हैं। गंगा तो अमृत ही है। महर्षि चरक ने-हिमवत्प्रभवा पथ्या हिम से आया हुआ जल पथ्य है, कहकर उसकी प्रशंसा की है। महाभारत अनुशासन पर्व में गंगा माता को पयस्विनी घृतिनीं मृत्युदारां- 26।82 कहा। अर्थात्-गंगा दुग्ध के समान उज्ज्वल घृत के समान उज्ज्वल घृत के समान स्निग्न जल से भरी है। गंगा का जल स्वाद-युक्त स्वच्छ, पथ्य, भोजन पचाने योग्य पाचक, प्यास, शमक, क्षुधा और बुद्धि वर्धक माना गया है।

शीतं स्वादु स्वच्छमत्यन्तश्च्यं

पथ्यं पाम्यं पचनं पापहारी।

तृष्णामोहवंसनं दीपनं च प्रज्ञां

धते वारि भागीरथीयम्।

इसके अतिरिक्त-

शरीर जर्जरीमूते ध्याधिग्रस्तेकलेवरे।

औषधं जाहवीतोयं वैद्यो नारायणेहरिः॥

अर्थात्-गंगा का उक्त गुणों वाला जल तारुण्य को बनाये रखने वाला है, वृद्धावस्था के रोगों का विनाश करने वाला साक्षात् औषधि की तरह है।

ऋषियों की तपोभूमि यह गंगा तटवर्ती क्षेत्र हिमालय की मर्मस्थली ही रही है। यहाँ रहकर आत्मिक तत्वज्ञान और वर्चस्व का अनुसंधान उन्होंने किया है। आज भी उस भूमि का अपना महत्व है। आज के इस कोलाहल और अशाँति भरे वातावरण में शाँत एकान्त स्थलों का महत्व है। शहरी शोर से बचकर इस दिव्य वातावरण में रहकर शारीरिक उत्साह, मानसिक उल्लास और आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर अधिक सुविधापूर्वक चला जा सकता है।


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