समाज भावना और में मनुष्य का व्यक्तिगत स्वार्थ बहुत घातक तत्व है। यह बात गलत नहीं है कि जीवन रक्षा के लिए मनुष्य की कुछ अपनी व्यक्तिगत आवश्यकतायें भी होती है। उनकी पूर्ति करना अनुचित नहीं कहा जा सकता। किन्तु जब यह अनुचित स्वार्थ केवल स्वार्थपरता में बदल कर मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगता है, तब मनुष्य को मनुष्य न रखकर पिशाच बना देता है।
एक मात्र स्वार्थ परायण व्यक्ति अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ऐसे ऐसे अनुचित मार्गों का अवलम्बन लेने लगता है, जिसे देख, सुनकर मनुष्यता का सिर लज्जा से नीचा हो जाता है। जब उचित, अनुचित का विचार छोड़कर कोई मनुष्य जैसे भी बने अपना स्वार्थ सिद्ध करने की नीति अपनाने लगता है। किसी एक व्यक्ति की देखा देखी दूसरे व्यक्ति भी स्वार्थ परायण होकर उसकी अनुचित नीति का अनुसरण करने लगते है। धीरे धीरे ऐसे स्वार्थी व्यक्तियों की संख्या बढ़ने लगती है और कोई सभ्य समाज असभ्यता की ओर बढ़ने लगता है। समाज में छीना झपटी, आपाधापी, छल कपट, शोषण, संघर्ष की परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगती है। जिसके परिणामस्वरूप समाज, विश्रृंखल निर्बल और अरक्षित हो जाता है। दूसरे समाज ऐसे अवसर का लाभ उठाते है और प्रयत्न करते है कि उस मूर्ख समाज को अपने अधीन कर ले, उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लें।
इतिहास साक्षी है कि हमारे अपने समाज में जब जब स्वार्थपरता का घातक विष फैला तब तब उसी प्रकार दुर्दिन देखने पड़े। स्वार्थी और दम्भी लोगों ने अपने ने अपनी भयंकर नीति से समाज में संघर्ष उत्पन्न किया, उसकी एकता और संगठन शक्ति को नष्ट किया, समाज निर्बल बना और उस पर आपत्तियों के पहाड़ टूटने लगे। विदेशियों ने समाज की इस निर्बलता से लाभ उठाकर ही हमारे देश को लूटा और उस पर अपनी सत्ता स्थापित की।
इस दीर्घजीवी आपत्ति का कारण समाज के वे थोड़े से स्वार्थी व्यक्ति ही तो थे, जिन्हें अपने व्यक्तिगत लाभ की अन्धता में न तो देश का भविष्य दिखलाई दिया और न समाज का अमंगल स्वार्थपरता का विष इतना भयानक होता है कि किसी भी क्षेत्र में उनका अस्तित्व सम्पूर्ण समाज को विषाक्त बनाकर जर्जर कर देता है।
पता नहीं स्वार्थान्ध व्यक्ति यह क्यों नहीं सोच पाते कि जब वे अपनी अनुचित नीति से समाज को निर्बल, विश्रृंखल और अव्यवस्थित बना देंगे तो उसकी सुरक्षा खतरे में पड़ जायेगी और तब उसके साथ ही उनका अस्तित्व भी सुरक्षित न रह पायेगा। कमजोर और असमर्थ समाज न अपनी ही सामूहिक रक्षा कर पात है और न व्यक्ति की। अपने निम्न स्वार्थता के लिए समाज की इतनी बड़ी हानि करने वाले व्यक्ति को और कुछ भी कहा जाये, मनुष्य नहीं कहा जा सकता।
स्वार्थ से प्रेरित जब किसी एक दिशा में शोषण का चक्र चलता है, तब उसके कुत्सित प्रभाव से कोई भी दिशा नहीं बच पाती। बुराई एक संक्रमण रोग की तरह होती है, अंकुर पाते ह वह बरसाती वनस्पति की तरह फैलकर शीघ्र ही पूरे समाज को ग्रास कर लिया करती है। सामूहिक भावना अथवा सामाजिक चेतना से शून्य होकर जब कोई स्वार्थी व्यक्ति उसके बदले में किसी और का शोषण करने लगता है और इस प्रकार फल यह होता है कि समाज के सदस्यों के बीच से परस्पर विश्वास तथा सहयोग की भावना उठ जाती है।
उन्नति के इन स्तम्भों के टूटते ही समाज खण्डहर की तरह भर भर कर गिर पड़ता है। उसकी बहुमूल्य विचार धारायें, सुन्दर संस्कृति और उज्ज्वल सभ्यता या तो नष्ट हो जाती है अथवा संसार में उपहास का विषय बन जाती है। सामाजिक जीवन में स्वार्थ बड़ा घातक विष है। इससे सदैव ही समाज की रक्षा करते रहना चाहिये। अन्यथा यह स्वार्थी को तो मिटा ही देता है, समाज को भी कहीं का नहीं रखता।
स्वार्थ के दोष से बड़े बड़े बलवानों और शक्तिमानों को में मिलते देर न लगी। कंस, जरासन्ध, हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष, नहुष, बेन आदि न जाने कितने प्रतापी राजा बात की बात में नष्ट हो गये। यही तक नहीं, स्वार्थ न इस सीमा तक उनका पतन कर दिया दिये वे मनुष्य शरीर में भी असुर और राक्षस बन गये। स्वार्थ सिद्धि के लिए ऐसे ऐसे जघन्य काम किए कि जिसके लिये आज तक थूके जाते है। लोभ और स्वार्थ सभी पापों की जड़ मानी गई है। इसका कुचक्र जिस पर चल जाता है, वह सदा के लिए मिट जाता है, फिर चाहे वह व्यक्ति हो, वह सदा के लिए मिट जाता है, फिर चाहे वह व्यक्ति हो, समाज हो अथवा राष्ट्र।
जिस परमात्मा ने मनुष्य को पैदा किया उसी ने उसके जीवन के साधन भी संसार में उत्पन्न किये। उसका इस निर्माण में कभी भी वह अन्यायपूर्ण मन्तव्य नहीं रहा है कि कुछ व्यक्ति तो साधनों में कर ले और बाकी का बहुमत जीवन यापन की आवश्यक पूर्ति के लिए भी अभाव ग्रस्त रहे। परमात्मा को तो अपनी सारी प्रजा समान रूप से प्यारी है। वह क्यों न चाहेगा कि जगत न समान रूप से उसके दिए साधनों को उपयोग करे। किन्तु खेद है कि समाज के स्वार्थी व्यक्ति प्रभु की इस मंगल इच्छा में भी विघ्न डालते है। यद्यपि वे अपने वे अपने इस अपराध के लिए रोगों, दोषों, शोक संतापों निन्दा, भर्त्सना और राज नियमों द्वारा दण्डित होते रहते है, तथापि अपनी करती से बाज नहीं आते।
स्वार्थी व्यक्ति मनोविकार में शुद्ध पशु होता है। उसका न तो कोई आदर्श होता है और न सिद्धान्तवाद गुणों से भी उसका जीवन शून्य होता है। जिस शक्ति से उसका स्वार्थ सिद्ध होने की आशा होती है, उसकी पदधूलि भी वह अपने सिर पर चढ़ा लेने में संकोच ही करता, फिर चाहे वह व्यक्ति कितना ही निकृष्ट तथा विचारी क्यों न हो। कोई भी बुरे से बुरा मार्ग स्वार्थी व्यक्ति अपने लाभ के लिए अपना सकता है, चाहे वह विशुद्ध पापमय ही क्यों न हो। स्वार्थी में न केवल दीनता का दोष ही होता है, उसमें छल कपट, झूठ फरेब, मक्कारी और विश्वासघात जैसे और भी न जाने कितने दोष होते हैं। स्वार्थी व्यक्ति अपने धर्म, देश, राष्ट्र और समाज तक को बेच लेने में नहीं लजाता।
स्वार्थी व्यक्ति न केवल स्वयं भ्रष्टाचारी होता है, बल्कि समाज में इस दोष को प्रोत्साहन भी देता है। स्वार्थी व्यक्ति स्वभाव से ही असहयोगी होता है। एक बार शत्रु और विरोधी से तो सहायता और सहयोग की आशा को जा सकती है, किन्तु स्वार्थी व्यक्ति से नहीं स्वार्थी व्यक्ति जितना किसी से अपना काम निकाल लेने में मक्कार होता है, उतना ही किसी दूसरे के काम के लिए जीवाश्म भी होता है। उसका संकीर्ण और ईर्ष्यालु स्वभाव उसे सामाजिक सहयोग से सर्वदा विरत रखा करता है। दूसरे की उन्नति और प्रगति में सहायक होना तो दूर किसी को बढ़ता देखकर उसकी छाती फटने लगती है। किसी की सुख सुविधा और मान प्रतिष्ठा उसे फूटी आँख नहीं सुहाती। वह तो संसार का सारा वैभव, सारी सम्पदा और सारा मान सम्मान केवल अपने लिये ही सुरक्षित कर लेना चाहता है। ऐसे संकीर्ण और अधीर व्यक्ति समाज की प्रगति और उन्नति के बड़े भारी शत्रु होते है।
स्वार्थ वृत्ति एक जहरीले साँप की तरह होती है। यह जब अपना फन फैलाती है तो शत्रु मित्र का विचार किए बिना समान रूप से सबको डस लेती है। एक स्वार्थ वृत्ति से ही मनुष्य में न खाने और कितनी दूषित वृत्तियाँ आ जाती है। ईर्ष्या द्वेष काम क्रोध लोभ ओर मोह आदि के अनर्थकारी विकार एक स्वार्थ की ही सन्तति समझनी चाहिये। लौकिक और पारलौकिक, भौतिक तथा आध्यात्मिक, वैयक्तिक अथवा सामाजिक किसी भी कल्याण के लिए मनुष्य की स्वार्थ वृत्ति बड़ी भयानक पिशाचिनी है। अपने प्रभाव में लेकर यह मनुष्य को अपने अनुरूप पिशाच ही बना लेती है।
इसको प्रश्रय देने वाला व्यक्ति माता पिता भाई बहन आदि के सारे सम्बन्ध भूल जाता है। कंस ने अपनी बहन देवकी की आठ सन्तानों को मार डाला, बालि ने स्वार्थ के वशीभूत होकर सुग्रीव पर क्या क्या अत्याचार नहीं किये कैकेयी ने राम जैसे योग्य पुत्र को चौदह वर्ष के लिए वनवास दिलाया और कौरवों ने अपने भाई पाँडवों को मिटा डालने में कोई करार नहीं रखी। इन आततायियों की यह सब करनियाँ पैशाचिक लक्षण के सिवाय और क्या कही जा सकती है।
मनुष्य और मनुष्य समाज का मंगल स्वार्थ जैसी अनावृत्तिं में नहीं बल्कि त्यागपूर्ण भावना के अंतर्गत निवास करता है। आदि से लेकर आज तक मानवता के सम्मुख जब जब संकट और अनर्थ का समय आया तब तब उसका कारण मनुष्यों की यह स्वार्थपरता रही है। इसके विपरीत जब-जब सुख-शाँति और सुकाल के दर्शन हुए है तब तब समाज के सदस्यों के बीच त्याग और पारस्परिकता की भावना का बाहुल्य रहा है। सुख शाँति, सुकाल और सम्पन्नता सबको वाँछित है। किन्तु यह प्राप्त तभी हो सकती है, जब व्यक्ति मिलकर समाज में स्वार्थ का बहिष्कार करे और त्याग भावना की प्रतिष्ठा।