वाजिश्रवा के शिष्यों-धर्मद और विराध में विवाद छिड़ गया। दोनों अपने-अपने को अधिक श्रद्धावान सिद्ध करना चाहते थे।
दोनों गुरु के समीप गये और निर्णय देने का आग्रह किया। गुरु ने कहा- अपनी-अपनी श्रद्धा व्याख्या करो तब निर्णय देंगे।
धर्मद बोला-देव आश्रम जीवन में मैंने आपकी प्रत्येक बात मानी। उचित अनुचित का भी ध्यान नहीं दिया। आपकी किसी भी आज्ञा को तर्क या विवेक से परखने का प्रयत्न नहीं किया। क्या इससे भी बढ़कर कोई श्रद्धा हो सकती है?
गुरुदेव मुस्कराये, अब उनने विरोध को संकेत किया। विराध बोला- भगवन मुझे ज्ञान की प्रबल आकांक्षा है। अतएव आप पर श्रद्धा भी अगाध है पर साथ ही यह भी परखना आवश्यक समझता हूँ कि जो कुछ कहा या बताया जाता है, वह सत्य से परे तो नहीं है। सत्य का मूल्य अधिक है इसलिये मैं सत्य को पाने के लिये सर्वस्व छोड़ने के लिये तैयार रहता हूँ।
गुरु ने कहा- ‘‘धर्मद सत्य को परख कर धारण की जाने वाली श्रद्धा ही श्रेष्ठ है।’’