“बिन्दु में सिन्धु समाया”

February 1969

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किसी की यह धारणा सर्वदा मिथ्या है कि सुख का निवास किन्हीं पदार्थों में हैं। यदि ऐसा रहा होता तो वे सारे पदार्थ जिन्हें सुखदायक माना जाता है, सबको समान रूप से सुखी और संतुष्ट रखते। अथवा उन पदार्थों के मिल जाने पर मनुष्य सहज ही सुख सम्पन्न हो जाता। किन्तु ऐसा देखा नहीं जाता। संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिन्हें संसार के वे सारे पदार्थ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, जिन्हें सुख का संचालक माना जाता है। किन्तु ऐसे सम्पन्न व्यक्ति भी असन्तोष, अशान्ति, अतृप्ति अथवा शोक-संतापों से जलते देखे जाते हैं। उनके उपलब्ध पदार्थ उनका दुःख मिटाने में जरा भी सहायक नहीं हो पाते।

वास्तविक बात यह है कि संसार के सारे पदार्थ जड़ होते है। जड़ तो जड़ ही है। उसमें अपनी कोई क्षमता नहीं होती। न तो जड़ पदार्थ किसी को स्वयं सुख दे सकते हैं और न दुःखं। क्योंकि उनमें न तो सुखद तत्व है, जिससे वे किसी को अपनी विशेषता से प्रभावित कर सकें। यह मनुष्य का अपना आत्म-तत्व ही होता है, जो उससे सम्बन्ध स्थापित करके उसे सुखद या दुःखद बना लेता है। आत्म-तत्व की उन्मुखता ही किसी पदार्थ को किसी कि लिये सुखद और किसी के लिये दुःखद बना देती है।

जिस समय मनुष्य का आत्म-तत्व सुखोन्मुख होकर पदार्थ से सम्बन्ध स्थापित करता है, वह सुखद बन जाता है और जब आत्म-तत्व दुःखोन्मुख होकर सम्बन्ध स्थापित करता है, तब वही पदार्थ उसके लिये दुःखद बन जाता है। संसार के सारे पदार्थ जड़ हैं, वे अपनी ओर से न तो किसी को सुख दे सकते हैं और न दुःख। यह मनुष्य का अपना आत्म-तत्व ही होता है, जो सम्बन्धित होकर उनको दुःखदायी अथवा सुखदायी बना देता है। यह धारणा कि सुख की उपलब्धि पदार्थों द्वारा होती है, सर्वथा मिथ्या और अज्ञानपूर्ण है।

किन्तु खेद है कि मनुष्य अज्ञानवश सुख-दुःख के इस रहस्य पर विश्वास नहीं करते ओर सत्य की खोज संसार के जड़ पदार्थों में किया करते हैं। पदार्थों को सुख का दाता मानकर उन्हें ही संचय करने में अपना बहुमूल्य जीवन बेकार में गवाँ देते हैं केवल इतना ही नहीं कि वे सुख की खोज आत्मा में नहीं करते बल्कि पदार्थों के चक्कर में फँसकर उनका संचय करने के लिये अकरणीय कार्य तक किया करते है। झूठ, फरेब, मक्कारी, भ्रष्टाचार, बेईमानी आदि के अपराध और पाप तक करने में तत्पर रहते हैं। सुख का निवास पदार्थों में नहीं आत्मा में हे। उसे खोजने और पाने के लिये पदार्थों की और नहीं आत्मा की और उन्मुख होना चाहिये।

पदार्थों का उपभोग इन्द्रियों द्वारा होता हैं। इन्द्रियों के सक्रिय ओर सजीव होने से ही किसी रस, सुख अथवा आनन्द की अनुभूति होती है। जब तब मनुष्य सक्षम अथवा युवा बना रहता है, उसकी इन्द्रियाँ सतेज बनी रहती है। पदार्थ और विषयों का आनन्द मिलता रहता है। पर जब मनुष्य वृद्ध अथवा अशक्त हो जाता है-उन्हीं पदार्थों में जिनमें पहले विभोर कर देने वाला आनन्द मिलता था, एकदम नीरस और स्वाद-हीन लगने लगते है। उनका सारा सुख न जाने कहाँ विलीन हो जाता है। वास्तविक बात यह है कि अशक्तता की दशा अथवा वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ निर्बल तथा अनुभवहीनता से शून्य हो जाती हैं। उनमें किसी पदार्थ का रस लेने की शक्ति नहीं रहती। इन्द्रियों का शैथिल्य ही पदार्थों को नीरस, असुखकर तथा निस्सार बना देता है।

वृद्धावस्था है क्यों? बहुत बार यौवनावस्था में भी सुख की अनुभूतियाँ समाप्त हो जाती हैं। इन्द्रियों में कोई रोग लग जाने अथवा उनको चेतनाहीन बना देने वाली कोई घटना घटित हो जाने पर भी उनकी रसानुभूति की शक्ति नष्ट हो जाती है। जैसे रसेन्द्रिय जिव्हा में छाले पड़ जाये तो मनुष्य कितने ही सुस्वाद पदार्थों का सेवन क्यों न करे, उसे उसमें किसी प्रकार का आनन्द न मिलेगा। पाचन क्रिया निर्बल हो जाय जो कोई भी पौष्टिक पदार्थ बेकार हो जायेगा। आँखें विकार युक्त हो जाये तो सुन्दर से सुन्दर दृश्य भी कोई आनन्द नहीं दे पाते। इस प्रकार देख सकते हैं कि सुख पदार्थ में नहीं बल्कि इन्द्रियों की अनुभूति शक्ति में है।

अब देखना यह कि इन्द्रियों की शक्ति क्या है? बहुत बार ऐसे लोग देखने को मिलते हैं जिनकी आँखें देखने में सुन्दर स्वच्छ तथा विकार-हीन होती है, लेकिन उन्हें दिखलाई नहीं पड़ता। परीक्षा करने पर पता चलता है कि आँखों का यन्त्र भी ठीक हैं। उनमें आने-जाने वाली नस-नाड़ियों की व्यवस्था भी ठीक है। तथापि दिखलाई नहीं देता। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियाँ हाथ-पाँव नाक-कान आदि की भी दशा हो जाती है। सब तरफ से सब वस्तुऐं ठीक होने पर भी इन्द्रिय निष्क्रिय अथवा निर्दिशति ही रहती है। इसका अर्थ यह हुआ कि रस की अनुभूति इन्द्रियों की स्थूल बनावट से नहीं होती। बल्कि इससे भिन्न कोई दूसरी वस्तु है, जो रस की अनुभूति कराती है। वह वस्तु क्या है? वह वस्तु है चेतना, जो सारे शरीर और मन प्राण में ओत-प्रोत रहकर मनुष्य की इन्द्रियों को रसानुभूति की शक्ति प्रदान करती है। इसी सब ओर से शरीर में ओत-प्रोत चेतना को आत्मा कहते है। आनन्द अथवा सुख का निवास आत्मा में ही है। उसी की शक्ति से उसकी अनुभूति होती है ओर वही जीव रूप में उसका अनुभव भी करती है। सुख न पदार्थों में है और न किसी अन्य वस्तु में। वह आत्मा में ही जीवात्मा द्वारा अनुभव किया जाता है।

मनुष्य की अपनी आत्मा ही सब कुछ है। आत्मा से रहित वह एक मिट्टी का पिण्ड मात्र ही हे। शरीर से जब आत्मा का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है तो वह मुर्दा हो जाता है। शीघ्र ही उसे आहर करने ओर जलाने, दफनाने का प्रबन्ध किया जाता है। संसार के सारे संबन्ध आत्मा द्वारा ही सम्बन्धित है। जब तक जिसमें आत्मा-भाव बना रहता है, उसमें प्रेम और सुख आदि की अनुभूति बनी रहती है और जब यह आत्मीयता समाप्त हो जाती है वही वस्तु या व्यक्ति अपने लिये कुछ भी नहीं रह जाता। किसी को अपना मित्र बड़ा प्रिय लगता है। उससे मिलने पर हार्दिक आनन्द की उपलब्धि होती है। न मिलने से बेचैनी होती है। किन्तु जब किन्हीं कारणवश उससे मैत्री-भाव समाप्त हो जाता हे अथवा आत्मीयता नहीं रहती तो वही मित्र अपने लिये, एक सामान्य व्यक्ति बन जाता है। उसके मिलने न मिलने में किसी प्रकार का हर्ष-विवाद नहीं होता। बहुत बार तो उससे इतनी विमुखता हो जाती है। प्रेम, सुख ओर आनन्द की पर सारी अनुभूतियाँ आत्म से ही सम्बन्धित होती हैं, किसी वस्तु, विषय, व्यक्ति अथवा पदार्थ से नहीं। सुख का संसार आत्मा में ही बसा हुआ हैं उसे उसमें ही खोजना चाहिये। साँसारिक विषयों अथवा वस्तुओं में भटकते रहने से सही दशा और वही परिणाम सामने जायेगा, जो गड़बड़ में भूले मृग के सामने आता है।

मनुष्य की अपनी विशेषता ही उसके लिये उपयोगिता तथा स्नेह सौजन्य उपार्जित करती है। विशेषता समाप्त होते ही मनुष्य का मूल्य भी समाप्त हो जाता है और तब वह न तो किसी के लिये आकर्षक रह जाता है और न प्रिय! इस बात की समझने में लिये सबसे अधिक निकट रहने वाले माँ और बच्चे को ले लीजिये। माता से जब तक बच्चा दूध और जीवन-रस पाता रहता है, उसके शरीर से अवश्य की तरह चिपटा रहता है। उसे माँ से असीम प्रेम होता है। जरा देर को भी वह माँ से अलग नहीं हो सकता। माँ उसे छोड़कर कहीं गई नहीं की वह रोने लगता है। किन्तु जब इसी बालक का अपनी सुरक्षा तथा जीवन के लिये माँ की गोद और दूध की आवश्यकता नहीं रहती अथवा रोग आदि के कारण माँ की यह विशेषता समाप्त हो जाती है तो बच्चा उसकी जरा भी परवाह नहीं करता। यह उससे अलग भी रहने लगता है और स्तन के स्थान पर शीशी से ही बदल जाता है। मनुष्य की विशेषताएँ ही किसी के लिये स्नेह, सौजन्य अथवा प्रेम आदि की सुखदायक स्थितियाँ उत्पन्न करती है।

किन्तु मनुष्य की इस विशेषता का स्त्रोत क्या है। इसका स्त्रोत भी आत्मा के सिवाय और कुछ नहीं है। बताया जा चुका है कि आत्मा से असम्बन्धित मनुष्य सब से अधिक कुछ नहीं होता। जो शव है, मुर्दा है अथवा अचेतन या जड़ है, उसमें किसी प्रकार की प्रभावोत्पादक विशेषता के होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मनुष्य के मन प्राण और शरीर तीनों का संचालन, नियन्त्रण तथा पोषण आत्मा की सूक्ष्म सत्ता द्वारा ही होता है। आत्मा और इन तीनों के बीच जरा-सा व्यवधान आते ही सारी व्यवस्था बिगड़ जाती है। सुन्दर, सुगठित ओर स्वस्थ शरीर की दुर्दशा हो जाती है। प्राणों का प्रबन्धन तिरोहित होने लगता है और मन मतवाला होकर मनुष्य को उन्मत्त ओर पागल बना देता है।

ऐसी भयावह स्थिति में संसार का कोई व्यक्ति, कोई आत्मीय और कोई स्वजन सम्बन्धी न तो प्रेम कर सकता है और स्नेह सौजन्य के सुखद भाव ही प्रदान कर सकता है। यह केवल मनुष्य की अपनी आशा ही है, जो उसका सच्चा मित्र, सगा-सम्बन्धी और वास्तविक शक्ति है। इसी के कारण मनुष्य गुणों और विशेषताओं का स्वामी बनकर अपना मूल्य बढ़ाता और पाता है। जीवन में सुख, सौख्य के उत्पादन, अतिवृद्धि और रक्षा के लिये मनुष्य को चाहिये कि वह आत्मा की ही शरण रहे। उसे ही अपना माने, उससे ही प्रेम करे ओर उसे ही खोजने पाने में अपने जीवन की सार्थकता समझे।

सुख का निवास किसी व्यक्ति, विषय अथवा पदार्थ में नहीं है। उसका निवास आत्मा में ही हे। संसार के सारे पदार्थ जड़ और प्रभाव-हीन है। किसी को सुख-दुख देने की उनमें अपनी क्षमता नहीं होती। पदार्थों अथवा विषयों में सुख-दुख का आभास उनके प्रति आराम-भाव के कारण ह होता है। आत्म-भाव समाप्त हो जाने पर वह अनुभूति भी समाप्त हो जाती है। हमारी आत्मा ही विभिन्न पदार्थों पर अपना प्रभाव डाल कर उन्हें आकर्षक तथा सुखद बनाती हैं। अन्यथा संसार के सारे विषय, सारी वस्तुऐं, सारे पदार्थ ओर सारे भोग नीरस, निःसार तथा निरुपयोगी है। जड़ होने से सभी कुछ कुरूप तथा अग्राह्य हे।

जिस पदार्थ के साथ जितने अंशों में अपनी आत्मा धुली-मिली रहती है, उतने ही अंशों में वह पदार्थ प्रिय, सुखदायी और ग्रहणशील बना रहता है और आत्मा का सम्बन्ध जिस पदार्थ से जितना कम होता जाता है, वह उतना ही अपने लिये कुरूप और अप्रिय बनता जाता है। आनन्द और प्रियता का सम्बन्ध पदार्थों से नहीं स्वयं आत्मा से ही होता है। अस्तु, आत्मा को ही प्यार करना चाहिये, उसे ही तेजस्वी और प्रभावशाली बनाना चाहिये जिससे हमारा सम्बन्ध उसी से दृढ़ हो और उसके उपलक्ष से ही संसार में प्रेम ओर सुख दे सकें। हमारी अपनी आत्मा ही ज्ञान-विज्ञान का केन्द्र है। सुख-शान्ति का मूल आधार हैं। उन्नति की समृद्धि का बीज उसी में छिपा है, स्वर्ग और मुक्ति का आधार वही है। कल्पवृक्ष बाहर नहीं अपनी आत्मा में ही अवस्थित है, आत्मा में ही सब कुछ है और आत्मा स्वयं ही कुछ है। उसे ही सर्वस्व ओर सारे सुखों का मूल और शान्ति का स्त्रोत मान कर उसकी उपासना करनी चाहिये। जिसने आत्मा को देख लिया, उसने सब कुछ देख लिया और जिसने आत्मा को प्राप्त कर लिया, उसने निश्चय ही सारे सुख, सारे सौख्य और सारे रस, आनन्द एक साथ एक स्थान पर सदा के लिये पा लिये।


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